tag:blogger.com,1999:blog-76165966586810740092024-03-18T22:13:35.563+05:30Omkar....Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.comBlogger3790125tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-54710792001071580132024-03-18T22:12:00.007+05:302024-03-18T22:12:38.901+05:30 WISDOM-------<p> श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठतम कर्म कहा है l मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म से तो मुख मोड़ सकता है , परन्तु कर्मों के फल से नहीं बच सकता l यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान की ओर बढ़ते हैं तो वह सत्कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है , परन्तु जिस कर्म के द्वारा हम पतित होते हैं वह हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " देश -काल -पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य बदल जाते हैं और सबसे श्रेष्ठ कर्म तो यह है कि जिस विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो , उसी को हम भली -भांति निभाएं l पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए और उसे कर चुकने के बाद , सामाजिक जीवन में हमारे ' पद ' के अनुसार जो कर्तव्य हो , उसे संपन्न करना चाहिए l आचार्य श्री लिखते हैं --- ' प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का चयन करती है , उसका विरोध करना व्यर्थ है l यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे , तो उसके कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता l कर्तव्य के मात्र बाहरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता का निर्णय करना उचित नहीं है , देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है l सबसे श्रेष्ठ कार्य तो तभी होता है , जब उसके पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ न हो और उस व्यक्ति ने अपना कर्तव्य पूर्ण मनोयोग के साथ पूर्ण किया हो l " एक कथा है ---- एक संन्यासी ने कठोर तप किया , उनके पास कुछ ऐसी शक्ति आ गई कि क्रोध आने पर द्रष्टि मात्र से ही वे किसी को भी भस्म कर सकते थे l उन्हें अपनी शक्ति का बड़ा अहंकार हो गया l ईश्वर किसी के अहंकार को सहन नहीं करते , उस समय आकाशवाणी हुई कि तुमसे भी बड़ा तपस्वी अमुक व्याध है l संन्यासी उस व्याध से मिलने गए तो देखा कि वह व्याध अपना काम लगातार कर रहा है और जब काम पूरा कर चुका तो उसने अपने रूपये -पैसे समेटे और संन्यासी से कहा --- " चलिए महाराज ! घर चलिए l " घर पहुंचकर व्याध ने उन्हें आसन दिया और कहा ---' आप यहाँ थोडा ठहरिये l " इतना कहकर वह व्याध अन्दर चला गया l वहां उसने अपने वृद्ध माता -पिता को स्नान कराया , भोजन कराया और फिर उन संन्यासी के पास आया और कहा ---' अब बताइए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? ' संन्यासी ने उससे आत्मा -परमात्मा सम्बन्धी प्रश्न किए , उनके उत्तर में व्याध ने जो उपदेश दिया वह महाभारत में वर्णित है l जब व्याध अपना उपदेश समाप्त कर चुका तो संन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा ---- " इतने ज्ञानी होते हुए भी आप इतना निन्दित और कुत्सित कार्य क्यों करते हैं ? " व्याध ने कहा ---- " महाराज ! कोई भी कार्य निंदित अथवा अपवित्र नहीं है l मैं जन्म से ही इस परिस्थिति में हूँ , यही मेरा प्रारब्धजन्य कर्म है l मेरी इसमें कोई आसक्ति नहीं है , कर्तव्य होने के नाते मैं इसे उत्तम रूप से करता हूँ l मैं गृहस्थ होने के नाते अपना कर्तव्य करता हूँ और अपने माता -पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करता हूँ l मैं कोई योग नहीं जानता , संन्यासी नहीं हूँ , संसार को छोड़कर कभी वन भी नहीं गया , परन्तु फिर भी आपने मुझसे जो सुना व देखा वह सब मुझे अनासक्त भाव से अपनी अवस्था के अनुरूप कर्तव्य का पालन करने से ही प्राप्त हुआ है l " आचार्य श्री लिखते हैं --- " कर्तव्य आत्मा को मुक्त कर देने के लिए शक्तिशाली साधन हैं , इसलिए जब भी हम कोई कार्य करें तो उसे एक उपासना के रूप में करना चाहिए , कार्य को पूजा समझकर करें l " </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-36808413571859313352024-03-17T21:51:00.001+05:302024-03-17T22:11:24.542+05:30 WISDOM -----<p> एक साधक जब भी पूजा में बैठता , तभी बुरे विचार उसके मन में उठते l वह गुरु से इसका हल पूछने गया l गुरु ने उसे एक कुत्ते की सेवा करने का आदेश दिया , दस दिन तक वह उनके आश्रम में ही ठहरा l शिष्य कारण तो नहीं समझ सका , पर गुरु के आदेशानुसार कुत्ते की सेवा करने लगा l दस दिन कुत्ते को साथ रखने से वह उसके साथ बहुत हिल -मिल गया l अब गुरु ने आज्ञा दी कि इसे भगाकर आओ l साधक भगाने जाता , लेकिन वह कुत्ता फिर उसके पीछे -पीछे लौट आता l तब गुरु ने समझाया कि जिन बुरे विचारों में तुम दिन भर डूबे रहते हो , वे पूजा के समय तुम्हारा साथ क्यों छोड़ने लगे ? शिष्य की समझ में बात आ गई और उसने दिन भर अच्छे विचार करते रहने की साधना शुरू कर दी l गुरु ने कहा --- ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता नहीं , श्रेष्ठ विचारों की तन्मयता भी है l श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि निष्काम कर्म से मन निर्मल होता है , कर्म कटते हैं , जन्मों के पाप धुल जाते हैं और धीरे -धीरे एक समय ऐसा आता है कि बुरे विचारों का आना बंद हो जाता है l अध्यात्म -पथ पर धैर्य की जरुरत है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-22449917375612797742024-03-16T21:56:00.003+05:302024-03-16T21:56:25.399+05:30 WISDOM ---<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " यह ज्ञान ही है जो सत्य को असत्य में गिरने से , धर्म को अधर्म में परिणत होने से , दान को कृपणता में बदलने से , तप को भोगवादी होने से और तीर्थों को अपवित्रता में परिवर्तित होने से बचाता है l लेकिन यदि ज्ञान ही अपने मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है और अविवेक का मार्ग अपनाता है तो - सत्य , धर्म , ज्ञान आदि विभूतियों का क्या होगा ? " आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है तब उसके अंत: करण से करुणा नष्ट हो जाती है l उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता l ऐसी सर्वज्ञता का क्या लाभ ? " -------- दक्षिण भारत के एक बड़े ही ज्ञानी , तपस्वी साधु थे ---सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी l ये अपने गुरु के आश्रम में वेदांत का अध्ययन कर रहे थे l एक दिन उस आश्रम में एक विद्वान् पंडित जी पधारे l आश्रम में प्रवेश करते ही किसी बात पर उनका सदाशिव स्वामी से विवाद हो गया l सदाशिव स्वामी ने अपने तर्कों से उन पंडित जी के तर्कों को तहस -नहस कर दिया l वे आगंतुक पंडित , सदाशिव स्वामी की विद्वता के सामने पराजित हो गए और स्थिति ऐसी हो गई कि उन पंडित जी को ब्रह्मेन्द्र स्वामी से क्षमा -याचना करनी पड़ी l ब्रह्मेन्द्र स्वामी बड़े प्रसन्न थे कि उनकी इस विजय पर गुरु उनकी पीठ थपथपायेंगे , लेकिन ऐसा हुआ नहीं , बल्कि इसके ठीक विपरीत हुआ l उनके गुरु ने सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी को कड़ी फटकार लगाईं और बोले ----- " सदाशिव ! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो l तुमने वेदांत का चिन्तन तो किया , पर ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ सके और न ही तुम ज्ञाननिष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए , इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन -चिन्तन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है l " गुरु के इन वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अहंकार चूर -चूर हो गया l उन्होंने बड़े ही विनम्र भाव से पूछा --- " हे गुरुदेव ! हम अपना व्यक्तित्व किस भांति गढ़ें ? " उत्तर में गुरुदेव ने कहा ---- " तर्क -कुतर्क से बचो और मौन रहकर सकारात्मक चिन्तन , मनन , ध्यान से श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण करो l " </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-26926673330408771062024-03-15T22:23:00.001+05:302024-03-15T22:23:51.728+05:30 WISDOM -----<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----" अहंकार एक भ्रम है , जो व्यक्ति के अन्दर तब उत्पन्न होता है जब वह स्वयं को श्रेष्ठ और शक्तिमान समझने लगता है l वह यह मानने लगता है कि दुनिया उसी के इशारे पर चल रही है l जब व्यक्ति सफल होता है तब अपने अहंकार के कारण वह परमात्मा को धन्यवाद देना भूल जाता है और यह सोचता है कि उसी ने सब कुछ किया है l वह चाहता है कि सारी दुनिया उसी का गुणगान करे , उसी के इशारों पर चले l " ------- दक्षिण में मोरोजी पन्त नामक बहुत बड़े विद्वान् थे l उनको अपनी विद्या का बहुत अभिमान था l सबको नीचा दिखाते रहते थे l एक दिन दोपहर के समय वे अपने घर से स्नान करने के लिए नदी पर जा रहे थे l मार्ग में एक पेड़ पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे थे l वे आपस में बातचीत कर रहे थे l एक ब्रह्मराक्षस बोला ---- " हम दोनों तो इस पेड़ की दो डालियों पर बैठे हैं , पर यह तीसरी डाली खाली है , इस पर बैठने के लिए कौन आएगा ? " दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला ---- " यह जो नीचे से जा रहा है न , वह यहाँ आकर बैठेगा क्योंकि इसको अपनी विद्वता का बड़ा अभिमान है l " उन दोनों का यह संवाद सुनकर मोरोजी पंत वहीँ रुक गए l अपनी होने वाली इस दुर्गति से कि प्रेतयोनि में जाना होगा , वे बहुत घबरा गए और मन ही मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति शरणागत होकर बोले ---- " मैं आपकी शरण में हूँ , आपके सिवाय मुझे बचाने वाला कोई नहीं है l " ऐसा सोचते हुए वे आलंदी के लिए चल पड़े और जीवन पर्यंत वहीँ रहे l आलंदी वह स्थान है जहाँ संत ज्ञानेश्वर ने जीवित समाधि ली थी l संत की शरण में जाने से उनका अभिमान चला गया और संत की कृपा से वे भी संत बन गए l आचार्य श्री लिखते हैं --- जीवन में अहंकार उत्पन्न होने से प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं l यदि व्यक्ति की चेतना जाग्रत हो जाये , वह इस सत्य को समझ ले कि जीवन की सार्थकता अहंकार में और उसके अनुचित पोषण में नहीं है तब वह ईश्वर शरणागति , समर्पण भाव , विनम्रता , शालीनता और सद् विवेक को जाग्रत कर अपने जीवन को सही दिशा में ला सकता है l ' </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-64743055935944179092024-03-14T22:16:00.006+05:302024-03-14T22:16:38.441+05:30 WISDOM ----<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " अहंकार ज्ञान के सारे द्वार बंद कर देता है l अहंकारी की प्रगति जितनी तीव्र होती है , उसका पतन उससे भी अधिक तीव्र गति से होता है l जीवन में पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है , अभिमान और अहंकार से नहीं l " ---- एक दिन पानी से भरे कलश पर रखी हुई कटोरी ने घड़े से कहा --- " कलश ! तुम बड़े उदार हो l अपने पास आने वाले प्रत्येक पात्र को भर देते हो l किसी को खाली नहीं जाने देते l " कलश ने उत्तर दिया --- " हाँ ! मैं अपने पास आने वाले प्रत्येक पात्र को भर देता हूँ , मेरे अंतर का सारा सार दूसरों के लिए है l " कटोरी बोली ---- " लेकिन मुझे कभी नहीं भरते जबकि मैं हर समय तुम्हारे सिर पर ही मौजूद रहती हूँ l " घड़े ने उत्तर दिया ---- " इसमें मेरा कोई दोष नहीं है , दोष तुम्हारे अहंकार का है l तुम अभिमान पूर्वक मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो , जबकि अन्य पात्र मेरे पास आकर झुकते हैं और अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं l तुम भी अभिमान छोड़कर मेरे सिर से उतर कर विनम्र बहो बनों , मैं तुम्हे भी भर दूंगा l " </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-69759639648266664302024-03-13T17:54:00.008+05:302024-03-13T17:54:48.796+05:30 WISDOM -----<p> वर्तमान समय में इतने साधु , संत , समाज सुधारक , कथा , प्रवचन , सत्संग इतना अधिक है लेकिन फिर भी सुधार का प्रतिशत लगभग शून्य है l लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं , याद भी रखते हैं तो कही सुनाने के लिए , अपनी छाप छोड़ने के लिए l कमी दोनों तरफ ही है l आचार्य श्री कहते हैं ---- ' एक नशेड़ी अपने जीवन में सैकड़ों नशा करने वालों को अपने साथ जोड़ लेता है l ऐसा इसलिए संभव होता है क्योंकि वह स्वयं नशा करता है , फिर दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है , वह जो कहता है , वैसा ही करता भी है l उसकी वाणी और उसका आचरण में एकरूपता होने से उसकी नशे के लिए प्रेरित करने वाली बात में बल आ जाता है l लेकिन सन्मार्ग पर चलने का , सत्य बोलने का , किसी का हक न छीनो , किसी को न सताओ ----ऐसा उपदेश देने वाले बहुत हैं लेकिन उनकी वाणी और व्यवहार में एकरूपता न होने से समाज में सुधार नहीं होता है l ' संसार में अच्छे लोग भी बहुत हैं , जो अपने आचरण से शिक्षा देते हैं लेकिन इतने विशाल संसार में उनकी संख्या बहुत कम है l प्रवचन सुनने भी जो आते हैं , वे उसे टाइम पास और मनोरंजन समझते हैं l एक कथा है ----- एक संत प्रव्रज्या पर निकले और चतुर्मास के दिनों में एक गाँव में ठहर गए l वहां वे नित्य प्रति व्याख्यान देते और उन्हें सुनने के लिए अनेकों गांववासी एकत्रित होते थे l एक भक्त ऐसा था , जो नित्य प्रति उनकी सभा में उपस्थित होता और प्रवचन भी सुनता था l एक दिन उसने संत से कहा --- " महाराज ! मैं नित्य आपका प्रवचन सुनता हूँ , फिर भी बदल क्यों नहीं पाता हूँ ? " संत ने उससे पूछा --- " वत्स ! तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है ? " उस व्यक्ति ने कहा --- " करीब दस कोस दूर l " संत ने फिर प्रश्न किया --- " तुम वहां कैसे जाते हो ? " उस व्यक्ति ने उत्तर दिया --- " महाराज ! पैदल जाता हूँ l " संत ने पूछा --- " क्या ऐसा संभव है कि तुम बिना चले , यहाँ बैठे -बैठे अपने गाँव पहुँच जाओ l " वह व्यक्ति बोला --- " महाराज ! ऐसा कैसे संभव है l यदि घर जाना है तो उतनी यात्रा तो करनी ही पड़ेगी l " संत बोले ---- " पुत्र ! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है l तुम्हे घर का पता , वहां जाने का मार्ग सब मालूम है लेकिन जब तक तुम उस मार्ग पर चलोगे नहीं , तब तक घर जाना संभव नहीं होगा l इसी प्रकार तुम्हारे पास ज्ञान है , इसे जीवन में उतारे बिना तुम अच्छे इन्सान नहीं बन सकते l यदि तुम्हे स्वयं के भीतर परिवर्तन का अनुभव करना है तो उसके लिए सीखी गई बातों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करना होगा l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-25082827657440100652024-03-12T22:24:00.005+05:302024-03-12T22:24:42.899+05:30 WISDOM -----<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " मनुष्य की आत्मा में विवेक का प्रकाश कभी भी पूर्णतया नष्ट नहीं हो सकता l इसलिए पाप का पूर्ण साम्राज्य कभी भी छा नहीं सकेगा l विवेकवान आत्माएं अपने समय की विकृतियों से लड़ती ही रहेंगी और बुरे समय में भी भलाई की ज्योति चमकती रहेगी l " लघु -कथा ---- शिष्य ने प्रश्न किया --- " गुरुदेव ! जब संसार में सभी आदमी एक ही तत्व के एक से बने हैं , तो यह छोटे -बड़े का भेदभाव क्यों है ? " गुरु ने उत्तर दिया ---- " वत्स ! संसार में छोटा -बड़ा कोई नहीं , यह सब अपने -अपने आचरण का खेल है l जो सज्जन हैं वे बड़े हो जाते हैं , जबकि नेकी और सज्जनता के अभाव में वही छोटे कहलाने लगते हैं l " शिष्य की समझ में यह बात आई नहीं l तब गुरुदेव ने उसे समझाया कि युधिष्ठिर अपने आचरण के कारण ही धर्मराज कहलाए l जब महाभारत का युद्ध हो रहा था तब युधिष्ठिर शाम को वेश बदलकर कहीं जाते थे l भीम अर्जुन आदि की इच्छा हुई कि देखें आखिर वे वेश बदलकर कहाँ जाते है l शाम को युद्ध विराम होने पर जब युधिष्ठिर वेश बदलकर निकले तो चारों पांडव छुपकर उनके पीछे चल दिए l उन्होंने देखा कि युधिष्ठिर युद्ध स्थल पहुंचे और वहां घायल पड़े लोगों की सेवा कर रहे हैं l घायल व्यक्ति कौरव पक्ष का हो या पांडव पक्ष का वे बिना किसी भेदभाव के सबको अन्न -जल खिला -पिला रहें हैं l किसी को घायल अवस्था में अपने परिवार की चिंता है तो उसे आश्वासन दे रहे हैं l अपने निश्छल प्रेम और करुणा से वे घायलों व मरणासन्न लोगों के कष्ट कम कर रहे हैं , उनकी उपस्थिति ही सबको शांति दे रही है l रात्रि के तीन पहर बीत जाने पर जब वे लौटे तो अर्जुन ने पूछा ---- ' आपको छिपकर , वेश बदलकर आने की क्या जरुरत थी ? " युधिष्ठिर ने कहा --- तात ! इन घायलों में से अनेक कौरव दल के हैं , वे हम से द्वेष रखते हैं l यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने ह्रदय की बातें मुझसे न कह पाते और मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता l " भीम ने कहा --- " शत्रु के सेवा करना क्या अधर्म नहीं है ? " युधिष्ठिर ने कहा --- " बन्धु ! शत्रु मनुष्य नहीं पाप और अधर्म होता है l आत्मा से किसी का कोई द्वेष नहीं होता l मरणासन्न व्यक्ति के मृत्यु के कष्ट को यदि हम कुछ कम कर सकें तो यह हमारा सौभाग्य होगा l " नकुल ने कहा --- " लेकिन महाराज , आपने तो सर्वत्र यह कह रखा है कि शाम का समय आपकी ईश्वर -उपासना का है , इस तरह झूठ बोलने का पाप आपको लगेगा l " युधिष्ठिर बोले --- " नहीं नकुल ! भगवान की उपासना जप , तप और ध्यान से ही नहीं होती , कर्म भी उसका उत्कृष्ट माध्यम है l यह विराट जगत उन्ही का प्रकट रूप है l जो दीन -दुःखी हैं , उनकी सेवा करना , जो पिछड़े और दलित हैं उन्हें आत्म कल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान का ही भजन है l इस द्रष्टि से मैंने जो किया वह ईश्वर की उपासना ही है l सत्य और धर्म का आचरण करने के कारण ही वे धर्मराज कहलाए l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-58709201753186796342024-03-11T22:02:00.000+05:302024-03-11T22:02:54.450+05:30 WISDOM -----<p> 1 . हातिम परदेश जाने लगे तो अपनी पत्नी से पूछ बैठे --- 'तुम्हारे लिए खाने -पीने का कितना सामान रख जाऊं ? " पत्नी ने हँसते हुए कहा --- " जितनी मेरी आयु हो l " हातिम ने कहा --- ' तुम्हारी आयु जानना मेरे बस की बात नहीं है l " पत्नी ने कहा --- " तब तो मेरी रोटी का इंतजाम भी आपके बूते की बात नहीं है l यह काम जिसका है , उसी को करने दीजिए l " पत्नी का ईश्वर पर विश्वास से मुग्ध होकर हातिम परदेश चले गए l एक दिन एक पड़ोसन ने पूछा ---- " बेटी ! हातिम तेरे लिए क्या इंतजाम कर गए हैं ? ' हातिम की पत्नी ने कहा --- " मेरे पति क्या इन्तजाम करेंगे वे तो खाने वाले थे l खाना देने वाला तो अब भी यहीं है l " ईश्वर विश्वासी को किसी का आश्रय आवश्यक नहीं है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-23598877132867549952024-03-10T22:30:00.000+05:302024-03-10T22:30:10.949+05:30 WISDOM---<p> संकल्प की शक्ति ----- महाराज अनंगपाल जिस जल से स्नान करते थे उसमें प्रतिदिन कोई न कोई इत्र , चन्दन ,केवड़ा , गुलाब की सुवास मिलाई जाती थी , पर उस दिन के जल में जो मादकता , मधुरता थी , वैसी पहले कभी नहीं मिली थी l महाराज ने परिचारिका को बुलाया और पूछा ----" आज जल -कलश में कौन सी सुबास मिलाई गई है ? " परिचारिका ने कहा --- " क्षमा करें महाराज , एक नई परिचारिका जो कल ही नियुक्त की गई थी , उसने आज के जल का प्रबंध किया , आज्ञा हो तो उसे सेवा में उपस्थित करूँ l " महाराज अनंगपाल ने उस दूसरी परिचारिका से पूछा तो वह बोली --- " महाराज उस जल में कुछ नहीं मिलाया था , वह जल तो मैं अपने मायके से लाई थी l " महाराज की उत्सुकता और बढ़ गई पूछने लगे --- " तुम्हारा मायका कहाँ है , यह जल वहां के किस कुएं का है या तालाब का जिसमें कमल खिले हों l l परिचारिका ने कहा --- " मेरा मायका गंधमादन पर्वत की तलहटी में है l वहां एक आश्रम है जिसमे एक योगी रहते है l उस आश्रम के समीप के एक कुंड का यह जल है l महाराज अनंगपाल बहुत प्रसन्न हुए और परिचारिका को पारितोषिक देकर उस आश्रम की ओर चल दिए l दो दिन की लगातार यात्रा के बाद महाराज वहां पहुंचे तो देखा वहां की प्रत्येक वस्तु उसी सुगंध से परिपूर्ण है l महाराज बड़े आश्चर्य चकित हुए और योगी को प्रणाम कर पूछा ---- " महाराज आपके आश्रम में यह भीनी -भीनी सुगंध कहाँ से आ रही है l " योगी ने कहा --- " महाराज ! इस आश्रम से सौ योजन की दूरी पर इस पर्वत पर एक वृक्ष है , मैं सदैव उसका ध्यान करता हूँ , यह सुगंध उसी वृक्ष की है l " योगी ने राजा को समझाया कि मनुष्य संकल्प बल से अपने जीवन को , अपने वातावरण को जैसा चाहे वैसा बना सकता जैसा वो चाहे l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-57551293028377470452024-03-09T22:14:00.002+05:302024-03-09T22:14:35.628+05:30 WISDOM ------<p> 1 . हवा जोर से चलने लगी l धरती की धूल उड़ -उड़ कर आसमान पर छा गई l धरती से उठकर आसमान पर पहुँच जाने पर धूल को बड़ा गर्व हो गया l वह सहसा कह उठी --- " आज मेरे समान कोई भी ऊँचा नहीं l जल , थल , नभ के साथ दसों दिशाओं में मैं ही व्याप्त हूँ l " बादल ने धूल की गर्वोक्ति सुनी , और अपनी धाराएँ खोल दीं l देखते ही देखते आसमान से उतर कर धूल जमीन पर पानी के साथ दिखाई देने लगी , दिशाएं साफ़ हो गईं , धूल का नामो-निशान मिट गया l पानी के साथ बहती हुई धूल से धरती ने पूछा ---- " रेणुके ! तुमने अपने उत्थान -पतन से क्या सीखा ? " धूल ने कहा ---- " माता धरती ! मैंने सीखा कि उन्नति पाकर किसी को घमंड नहीं करना चाहिए l घमंड करने वाले मनुष्य का पतन अवश्य होता है l </p><p>2 . एक व्यक्ति ने महात्मा कन्फ्युशियस से प्रश्न किया ---- " महात्मन ! संयमित जीवन बिताकर भी मैं रोगी हूँ , ऐसा क्यों ? " कन्फ्यूशियस ने कहा ---- " भाई ! तुम शरीर से संयमित हो , पर मन से नहीं l अब जाओ ईर्ष्या -द्वेष करना बंद कर दो , मन से भी संयमी बनो , तो तुम्हे संयम का पूर्ण लाभ मिलेगा l " </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-51433006207946831952024-03-08T22:02:00.001+05:302024-03-08T22:02:50.762+05:30 WISDOM -----<p> यह संसार हो या देवलोक , जिनके पास भी सत्ता , धन -वैभव , सौन्दर्य , यौवन ----जो भी है , उसे उसके खोने का भय सताता है l यह सुख जितना अधिक है , इस सुख को खोने का भय उतना ही अधिक है l सबसे ज्यादा भयभीत तो स्वर्ग के राजा इंद्र हैं l किसी को भी कठिन तप करते और आगे बढ़ते देख वे काँप जाते हैं , उनको अपने इन्द्रासन पर खतरा मंडराता दीखता है और फिर वे उसको पीछे धकेलने के लिए सब तरीके इस्तेमाल करने लगते हैं l विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा मेनका को भेज दिया l एक कथा है ----- एक महात्मा की तपस्या का यह प्रभाव था कि उनके आश्रम में शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते थे l उनके तप से भयभीत इन्द्रासन काँप गया l देवराज इंद्र तरह -तरह के उपाय सोचने लगे कि कैसे इन महात्मा की तपस्या को भंग किया जाये l अंत में वे एक क्षत्रिय का वेश धारण कर उन महात्मा के आश्रम में गए और उन महात्मा से कहा --- " भगवान ! आप कुछ देर मेरी तलवार अपने पास रख लीजिए , मैं समीप के सरोवर में स्नान कर के आता हूँ l " महात्मा सरल स्वभाव के थे , तलवार को अपने पास सम्हाल कर रख लिया , लेकिन इंद्र वापस आए ही नहीं l किसी की अमानत को सुरक्षित वापस करना भी धर्म है , अत: अब वह महात्मा उस तलवार की रक्षा में अपना जप , तप साधना सब भूल गए l दिनचर्या का और तप का क्रम बिगड़ा तो उसका प्रभाव भी कम हो गया , यह देखकर इंद्र का भय भी कम हो गया </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-24772208335702183742024-03-07T21:58:00.001+05:302024-03-07T21:58:40.372+05:30 WISDOM ------<p> महर्षि व्यास जी ने अठारह पुराण और महाभारत जैसे ग्रन्थ लिखे , फिर भी उन्हें शांति नहीं मिली l वे अपने आश्रम में बहुत उदास और चिंतित थे l तभी देवर्षि नारद वहां पहुंचे और उनकी उदासी व चिंता का कारण पूछा l व्यास जी ने कहा --- " हे देवर्षि ! मेरी चिंता का कारण यही है कि मैंने इतना सब कुछ लिखकर मानव को मानवता का सन्देश दिया , तो भी मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि नहीं मिली कि वह सुखमय जीवन जी सके l वह आज भी उसी तरह भटक रहा है और परोपकार करने के बजाय एक दूसरे को परेशान करने में लगा है l समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ ? " देवर्षि ने कहा --- " आपने पुराणों में ज्ञान -विज्ञान की बातें तो लिखी हैं , किन्तु भक्तिरस से परिपूर्ण साहित्य नहीं लिखा l अत: आप भक्तिरस की रचना कीजिए , जिससे जनता का कल्याण होगा और आपको भी शांति मिलेगी l " तब व्यास जी ने भगवान के समस्त अवतारों की लीला का वर्णन करते हुए श्रीमद् भागवत पुराण की रचना की l आज अनेक कथावाचक हैं जो श्रीमद् भागवत की कथा सुनाते हैं और लाखों की संख्या में लोग उन कथा को सुनते भी हैं लेकिन किसी के जीवन पर उस कथा का कोई असर नहीं पड़ता l सब भौतिक सुख की ओर भाग रहे हैं l लेकिन शांति कहीं नहीं है l सब कुछ होते हुए भी लोग क्यों परेशान है ? इसका प्रमुख कारण है ---- दुर्बुद्धि l लोगों का विवेक और सद्बुद्धि जाग्रत हो इसके लिए पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ' प्रज्ञा -पुराण ' की रचना की और उसमे लघु कथाओं के माध्यम से हमें जीवन जीने की कला सिखाई है l सभी के जीवन में एक न एक समस्या अवश्य ही रहती है , परेशानियों का अंत नहीं है , लेकिन यदि सद्बुद्धि है तो मनुष्य विभिन्न समस्याओं से घिरा होने पर भी तनाव रहित शांत जीवन जी सकता है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-27177465754258430252024-03-06T22:54:00.006+05:302024-03-06T22:54:38.235+05:30 WISDOM ------<p> प्रकृति के नियम सब के लिए एक समान हैं , उनमें जाति , धर्म , ऊँच -नीच , अमीर -गरीब किसी का कोई भेदभाव नहीं है l स्रष्टि के सञ्चालन के लिए जो नियम ईश्वर ने बनाए , उनका पालन भगवान स्वयं भी करते हैं l प्रकृति का नियम है कि जो इस संसार में आया है , उसे एक न एक दिन जाना है , मृत्यु अटल सत्य है l इसके साथ ही एक नियम यह भी है कि जिसे धरती पर आना है , निश्चित समय तक इस धरती पर रहना है , उस विधान को कोई बदल नहीं सकता l ----- महाभारत के युद्ध में सात योद्धाओं ने अन्याय पूर्ण तरीके से अभिमन्यु का वध कर दिया l भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था अभिमन्यु l सुभद्रा का विवाह भगवान के प्रिय सखा अर्जुन से हुआ था l अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर सुभद्रा ने रोते हुए श्रीकृष्ण से कहा --- तुम तो स्वयं भगवान हो , अपने प्राणों से भी प्रिय भानजे की मृत्यु हो गई , और तुम रोक न सके l ' भगवान श्रीकृष्ण ने सुभद्रा को समझाया कि मैं भगवान अवश्य हूँ , लेकिन प्रकृति के नियम को मैं नहीं बदल सकता l अभिमन्यु इस धरती पर 17 वर्ष के लिए ही आया था l वक्त पूरा हो गया , फिर उसे कोई नहीं रोक सकता लेकिन इतनी कम आयु में भी उसने अपनी वीरता से महाराथियों के छक्के छुड़ा दिए , वीरता का कीर्तिमान स्थापित किया l मृत्यु और जन्म दोनों ही निश्चित है , उनमे फेर -बदल करना मनुष्य के हाथ में नही है l अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा गर्भवती थी , तब अश्वत्थामा ने पांडव वंश को समाप्त करने के लिए एक तिनके को अभिमंत्रित कर के उत्तर के गर्भ को नष्ट करने के लिए हवा में छोड़ दिया , मन्त्र बल से वह तिनका अस्त्र बन गया और उत्तरा की कोख में जा पहुंचा लेकिन गर्भ में पल रहे इस पुत्र को धरती पर आना ही था , निश्चित जीवन जी कर शुकदेव मुनि से श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण करना ही था , इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गर्भस्थ शिशु की रक्षा की l अश्वत्थामा के छोड़े हुए अस्त्र के प्रहार को उन्होंने सुदर्शन चक्र से रोके रखा लेकिन जिस पल पुत्र का जन्म हुआ उस एक क्षण के लिए सुदर्शन चक्र को हटना पड़ा , इसलिए जन्म होते ही पुत्र की मृत्यु हो गई l तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने संकल्प बल से , धर्म बल से प्रकृति से शिशु के जीवित होने के लिए प्रार्थना की l पुत्र ने तुरंत आँखें खोल दीं , उसका नाम परीक्षित रखा गया l जाको राखे साइयां , मार सके न कोय l बाल न बांका करि सके , जो जग बैरी होय l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-84887644787222939072024-03-06T13:09:00.000+05:302024-03-06T13:09:09.122+05:30 WISDOM ----<p> पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' इस स्रष्टि की रचना के बाद भगवान ने इस विशाल ब्रह्माण्ड के सुव्यवस्थित सञ्चालन हेतु कुछ नियम व मर्यादायें स्थापित कीं तथा कर्मानुसार फल प्राप्ति का दृढ सिद्धांत बनाया ताकि सारा ब्रह्माण्ड और सभी जीवधारी एक निश्चित विधि -विधान के अनुसार चल सकें l आदर्श नियम वही है जिसका बनाने वाला भी उसका पालन करे l भगवान ने कर्मफल व्यवस्था बनाई और स्वयं ही न्यायधीश का पद सम्हाला l जिस तरह बीज बोने के तुरंत बाद फल की प्राप्ति नहीं होती , उसी प्रकार इस व्यवस्था की यह विशेषता है कि कर्मफल तत्काल नहीं मिलता l समयानुसार हमें अपने कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है l ' जो व्यक्ति पाप कर्म करते हैं , उन्हें तुरंत उसका परिणाम परिणाम नहीं भोगना पड़ता l यह काल निश्चित करता है कि उन्हें अपने कर्मों का फल कब और किस रूप में भोगना पड़ेगा l तुरंत फल न मिलने के कारण लोग कर्म फल व्यवस्था की गंभीरता को नहीं समझते और शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिए दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं l कर्मफल व्यवस्था की उपयोगिता बताते हुए श्रीमद् भागवत में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा उद्धव से कहते हैं ----- " इतनी सशक्त व्यवस्था के होते हुए भी जरा देर से दंड प्राप्त होने के कारण जब इतनी अव्यवस्था फ़ैल जाती है तब यदि यह दंड विधान बिलकुल ही न रहा होता तब तो यह संसार चल ही न सका होता l " आदर्श नियम वही है जिसका बनाने वाला भी उसका पालन करे l संसार में अव्यवस्था तभी फैलती है जब नियम , आदर्श और उपदेश लोग दूसरों को देते हैं , स्वयं उसका पालन नहीं करते l मुखौटा लगाकर सारा ज्ञान -बखान दूसरों के लिए होता है l परदे के पीछे का सच केवल ईश्वर ही जानते हैं l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-59422243830409556092024-03-05T17:36:00.001+05:302024-03-05T17:36:16.060+05:30 WISDOM ----<p> एक बार लक्ष्मी जी भगवान विष्णु जी से कहने लगीं ---- " प्रभो ! आप रूप -गुण से परे हैं , फिर भी संसार के हित के लिए आप देह धारण कर के अवतार लेते हैं l क्या कारण है कि अवतार लेने के लिए आप बार -बार मनुष्य शरीर मनुष्य शरीर ही चुनते हैं ? " भगवान ने उत्तर दिया ---- " देवी ! मनुष्य शरीर के साथ जो विभूतियाँ जुड़ी हैं उनके माध्यम से मेरा कार्य सुगमता से पूरा हो जाता है इसलिए मैं मनुष्य शरीर में ही बार -बार अवतरित होता हूँ l " भगवान के इस कथन से मनुष्य शरीर की महत्ता का बोध होता है l चौरासी लाख योनियों में से मनुष्य -शरीर ही ऐसा है जिसके पास यह सुविधा है कि यदि वह चाहे तो संकल्प और साधना से अपने विचार और बुद्धि को परिष्कृत कर चेतना के उच्च से उच्चतर स्तर तक पहुँच सकता है l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- " ज्ञान और विवेक होने पर ही चेतना का परिष्कार संभव है l ज्ञान के अभाव में अज्ञानी व्यक्ति अहंकारी हो जाता है , शोक , मोह , हिंसा , कामना , तृष्णा आदि दुर्गुणों के वशीभूत हो जाता है और संसार -चक्र में भटकता हुआ सुख -दुःख भोगता है l --------- एक राजा था चित्रकेतु l अपनी तपस्या के प्रभाव से उसे एक सिद्धि मिल गई जिसके प्रभाव से वह विमान में बैठकर तीनों लोकों में विचरण करता रहता था l उसे अपनी तपस्या और ज्ञान का बड़ा घमंड था l एक दिन महर्षियों की सभा में पार्वती जी को शिवजी के साथ बैठी देखकर उसने अहंकार वश शिव की निंदा की l इसका परिणाम यह हुआ कि पार्वती जी के श्राप के कारण उसे वृत्तासुर राक्षस बनना पड़ा l --- इस कथा से पता चलता है कि देव पद पा लेने के बाद भी यदि अज्ञान से पिंड नहीं छूटा तो हमें पतन के गर्त में गिरना पड़ेगा l आचार्य श्री लिखते हैं --- मनुष्य को उसके गौरव से गिराने वाले शत्रु --- काम , क्रोध लोभ आदि हैं l ईश्वर ने मनुष्य को समर्थ साधन देकर भेजा है , वह विवेक और ज्ञान की तलवार से इन सब शत्रुओं को परास्त कर सकता है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-30947428988773491802024-03-03T22:40:00.000+05:302024-03-03T22:40:19.844+05:30 WISDOM -----<p> हमारे धर्म ग्रंथों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो यह बताते हैं कि हम सब के जीवन में कोई सुअवसर , सौभाग्य के पल आते हैं l यदि हमारे पास विवेक होता है तो हम उन अवसर का स्वागत कर उसका सदुपयोग कर लेते हैं और यदि विवेक नहीं है तो उन सौभाग्य के पल को गँवा देते हैं l यह विवेक किसी बाजार में पैसा खर्च कर के नहीं मिलता और न ही किसी संस्था से मिलता है l ' विवेक ' ईश्वरीय अनुदान है जो सरल ह्रदय से ईश्वर का स्मरण करने पर , सत्कर्म करने और सन्मार्ग पर चलने से ईश्वरीय कृपा से मिलता है l रामायण का एक प्रसंग है ------ जब भगवान श्रीराम को वनवास मिला l अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को चल दिए l इस मार्ग पर गंगा नदी पार करनी थी l कैसे उस पार जाएँ ? स्रष्टि में कभी -कभी ऐसे पल आते हैं जब भगवान को भी अपने कार्य के लिए इनसान की जरुरत पड़ती है l एक केवट था , उसे बुलाया गया l भगवान श्रीराम ने उससे निवेदन किया कि हमें अपनी नाव से नदी पार करा दो l केवट बहुत सरल ह्रदय और भगवान का भक्त था , वह समझ गया कि ये तो भगवान हैं , उसके पास आए हैं , ऐसा मौका फिर दोबारा नहीं मिलेगा l केवट कहने लगा ---- ' मेरी छोटी सी है नाव , तेरे जादूगर पाँव , मोहे डर लगे राम , कैसे बिठाऊं तुम्हे नाव में l ' भगवान ने कहा --- भाई ! डर किस बात का ? केवट कहने लगा --- यह नाव ही मेरी रोजी -रोटी का साधन है , मेरे परिवार का जीवनयापन इसी से होता है l आपके पैरों के स्पर्श से पत्थर की शिला अहिल्या बन गई , मेरी नाव का कुछ हला -भला हो गया तो मैं कैसे अपने परिवार का पालन -पोषण करूँगा ? केवट कहने लगा ---मेरी एक शर्त है --- जब आपके पैर धो लूँगा , तभी आप नाव में बैठ सकेंगे l " भगवान श्रीराम को तो नदी पार करनी थी अत: उसकी शर्त मान ली l केवट की पत्नी जल्दी से कठौता ले आई , केवट ने खूब मल कर भगवान के पैर धोये l हजारों वर्षों की तपस्या के बाद भी जो सुख बड़े -बड़े ऋषि -मुनियों को नहीं मिलता , वह केवट को मिल गया l नदी पार हो गई l अब समस्या थी कि केवट को उसके श्रम की क्या कीमत दें l भगवान तो वनवासी थे , उनके पास तो कोई रुपया -पैसा था नहीं , न ही बहुमूल्य वस्त्र थे तो अब क्या दें ? भगवान बड़ी दुविधा में थे तब केवट ने बड़ी सरलता से कहा --- ' प्रभु ! आप परेशान न हों , मैंने आपको पार किया , आप मुझको पार लगा देना l ' कितना विवेक था केवट में 1 उसने यह नहीं कहा कि जब आप वापस अयोध्या लौटे तो मुझे कोई धन -दौलत या कोई पद दे देना l उसने कहा ---- आप मुझे इस संसार रूपी भवसागर से पार लगा देना l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- हमें ईश्वर से माँगना भी आना चाहिए l धन -दौलत मांगने पर मिल भी जाये , लेकिन यदि सद्बुद्धि नहीं होगी तो वह दौलत सुख नहीं देगी , कष्ट का कारण होगी l हम ईश्वर से सद्बुद्धि मांगे l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-45140071855930468882024-03-03T17:34:00.000+05:302024-03-03T17:34:05.304+05:30WISDOM ------<p> धरती पर अत्याचार और अन्याय का अंत करने के लिए , दुष्टता का उन्मूलन करने के लिए ही भगवान धरती पर अवतरित होते हैं l जिस समय भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उन दिनों कुछ ऐसी स्थिति थी जैसे आसुरी शक्तियों ने राजाओं में प्रवेश कर लिया था , उनके अत्याचार से प्रजा बहुत दुःखी थी l मगध नरेश जरासंध ने उस समय के 86 प्रतिशत राजाओं को कैद कर लिया था l केवल 14 प्रतिशत शेष बचे राजाओं को कैद कर के वह उनकी बलि देना चाहता था l वह इस मनमानी को ही धर्म कहता था l इस क्रूर नर संहार को रोकना ही सबसे बड़ा धर्म था l जरासंध ने इतनी विशाल शक्ति अर्जित कर ली थी कि सामने से युद्ध कर के उसे पराजित करना संभव नहीं था l इसलिए श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा --- आप भीम और अर्जुन को मुझे सौंप दीजिए , हम युक्तिपूर्वक जरासंध का वध करेंगे l श्रीकृष्ण , अर्जुन और भीम ब्राह्मण का वेश बनाकर मगध की राजधानी पहुंचे l उन्होंने परकोटे के दरवाजे से प्रवेश न करके चैतक्य पर्वत का शिखर तोड़कर जरासंध के महल जा पहुंचे l श्रीकृष्ण का कहना था कि शत्रु के घर में इसी तरह प्रवेश किया जाता है l जरासंध समझ गया कि ये लोग क्षत्रिय है l तब श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम बंदी बनाए गए राजाओं को छोड़ दो या फिर हम तुम्हे युद्ध के लिए ललकारते हैं l जरासंध भी अहंकारी था श्रीकृष्ण को तो वह ग्वाला समझता था और अर्जुन को बालक l वह भीम से युद्ध करने को राजी हो गया l कहते हैं तेरह दिन और तेरह रात बिना विश्राम किए भीम और जरासंध लगातार लड़ते रहे l चौदहवें दिन जब जरासंध कुछ थक सा गया तब भीम ने श्रीकृष्ण का नीतियुक्त इशारा पाकर जरासंध का वध कर दिया l इसके बाद जरासंध द्वारा कैद किए गए सभी राजाओं को मुक्त कर दिया गया l भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा --- वैभव और अधिकार को समाज या ईश्वर की धरोहर मानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए l अपनी संपत्ति और वैभव का कभी अहंकार न करना क्योंकि अहंकार ही पतन का कारण होता है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-81303326250305094952024-03-02T22:30:00.000+05:302024-03-02T22:30:33.332+05:30 WISDOM -----<p> महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं ---- जीव अकेले जन्म लेता है , अकेले मरता है तथा अकेले ही पाप , पुण्य का फल भोगता है l भगवान कहते हैं --- मनुष्य बहुत बड़े भ्रम में है कि हमारे कुटुम्बी और साथी सदा हमारे साथ रहेंगे तथा पाप , पुण्य के फल भोग में हमारा साथ देंगे l किन्तु यह संभव नहीं है l डाकू रत्नाकर को भी यह भ्रम हो गया था l वह अपने कुटुम्बियों को सुख पहुँचाने के लिए डाके डाला करता था और सोचता था कि इस पाप में मेरे परिवार वाले भी साझीदार बनेंगे l एक बार नारद जी के कहने पर उसने अपने परिवार वालों से पूछा किन्तु उन्होंने पाप कर्मों और उसके परिणामों में अपनी हिस्सेदारी से इनकार कर दिया , तब कहीं रत्नाकर का मोह भंग हुआ l वह दुष्कर्मों से विरत होकर सत्कर्मों द्वारा डाकू से महर्षि वाल्मीकि बन गया l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-73891687471096734702024-03-02T18:55:00.005+05:302024-03-02T18:55:55.764+05:30 WISDOM -----<p> लघु -कथा -----1 , एक व्यक्ति एक ज्योतिषी के पास गया और अपने भविष्य के बारे में पूछने लगा l ज्योतिषी ने कहा ---- " तुम्हारे सभी संबंधी तुम्हारे देखते -देखते मर जाएंगे और तुम अकेले ही रह जाओगे l " यह सुनकर वह मनुष्य बहुत गुस्से में हो गया l ज्योतिषी पिटाई से तो बच गया लेकिन दक्षिणा भी गई l यही व्यक्ति फिर दूसरे ज्योतिषी के पास गया l उस ज्योतिषी ने बताया ---- " भाई ! , आपकी उम्र बहुत है l आप बहुत समय तक जियेंगे , आप अपने नाती -पोतों को भी पढ़ा -लिखा सकेंगे और उनकी शादी करेंगे l " वह मनुष्य बहुत खुश हुआ और पर्याप्त दक्षिणा भी ज्योतिषी को दी l कटुवचन सबके लिए हानिकारक होता है l इस ज्योतिषी ने वही बात को सुलझे हुए ढंग से कहा l </p><p>2. एक राजा ने दो मालियों को एक -एक बगीचा सौंप दिया l उनकी रखवाली सुरक्षा का भार उन पर डालकर निश्चिन्त हो गया l उनमें से एक राजा को भगवान मानकर पूजा किया करता था l उसने बगीचे में एक कुटी बनाकर राजा की मूर्ति की पूजा करना शुरू कर दिया , वह दिन -रात इसी में व्यस्त रहता l दूसरा माली अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को समझकर दिन -रात बगीचे की देखभाल में लगा रहता l बहुत समय बाद राजा आया , उसने देखा कि एक बगीचा सूखा पड़ा है और दूसरा हरा -भरा है l राजा ने दूसरे माली को राज्य के सभी बगीचों और उत्पादन केन्द्रों का संचालक बना दिया और पहले वाले माली को देश निकाला दे दिया l इस कथा की शिक्षा यही है कि ईश्वर को नाम -स्मरण के साथ उसके कार्यों के प्रति लगनशील रहकर , अपने दायित्व का ईमानदारी से पालन कर के ही प्रसन्न किया जा सकता है l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-65398325709873055912024-03-01T22:33:00.000+05:302024-03-01T22:33:47.714+05:30 WISDOM -----<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' हम क्या करते हैं इसका महत्त्व कम है किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं उसका बहुत अधिक महत्त्व है l यदि हम अपने अहं और अपने कहलाने वाले कुछ व्यक्तियों को सुख पहुँचाने तथा दूसरों को दुःख पहुँचाने की भावना से कर्म करते हैं तो हम कभी सफल नहीं हो सकते l यदि हमारी भावनाएं कलुषित हैं तथा हमारे कर्मों के मूल में अपना लाभ तथा दूसरों की हानि करने की वृत्ति छिपी हुई है तो हम दिखावे के लिए कितने ही व्यवस्थित और कठिन कार्य करें , मनवांछित परिणाम नहीं पा सकते l मात्र क्रिया ही सब कुछ नहीं है उसके मूल में छिपी भावना और विचारणा का भी महत्त्व है l " श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं -----" परीक्षित ! देखो देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय , एक स्थान पर , एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिए , एक विचार से , एक ही कर्म -- समुद्र मंथन किया था , परन्तु फल में बड़ा भेद हो गया l उसमें से देवताओं ने अपने परिश्रम का फल --- अमृत प्राप्त कर लिया क्योंकि उन्होंने भगवान के चरणकमलों का आश्रय लिया था l परन्तु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुर गण अमृत से वंचित ही रहे l " देवताओं में लोक कल्याण की भावना होती है लेकिन असुर तपस्या से शक्ति प्राप्त कर के निरंकुश और अत्याचारी हो जाते हैं , उनमें स्वार्थ और अहंकार होता है l उनकी तपस्या के पीछे उनकी भावना पवित्र नहीं है इसलिए वे अमृत फल से वंचित रह गए l ईश्वर हम सबके ह्रदय में विराजमान हैं , हम जो भी अच्छा -बुरा कार्य कर रहे हैं , उसमें छिपी हमारी भावना क्या है उसी के अनुसार हमें कर्मफल मिलता है l श्रीमद् भागवत में विष्णु दूतों और यमदूत की चर्चा के प्रसंग में कहा गया है ------- ' जीव शरीर या मनोवृत्ति से जितने कर्म करता है , उसके साक्षी रहते हैं ---- सूर्य , अग्नि , आकाश , वायु , इन्द्रियां , चंद्रमा , संध्या , रात , दिन , दिशाएं , जल , पृथ्वी , काल और धर्म l इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और तब पाप कर्म करने वाले सभी अपने -अपने कर्मों के अनुसार दंडनीय होते हैं l " आचार्य श्री ' संस्कृति -संजीवनी श्रीमद् भागवत एवं गीता ' में लिखते हैं --- " इतने गवाहों के होते हुए भी क्या हम अपने जुर्म से इनकार कर सकते हैं ? जब हमारी इन्द्रियां जिनके माध्यम से हम दुष्कर्म करते हैं , वही हमारे विपक्ष में गवाही देने को तैयार हैं तब हम कैसे बच सकते हैं ? सबसे शक्तिशाली रावण जिसने इन सब गवाहों पर अपना रोब जमा रखा था , काल को पाटी से बाँध रखा था , वह भी कर्मफल से नहीं बच सका , उसका अंत हो गया तो हम किस खेत की मूली हैं कि बच जाएंगे l " </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-31377915411391533152024-02-29T22:03:00.001+05:302024-02-29T22:03:08.778+05:30 WISDOM ----<p> पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी अपनी पुस्तक 'संस्कृति -संजीवनी श्रीमद् भागवत एवं गीता ' में लिखते हैं ---- "भगवान चाहते हैं कि हम ' जियो और जीने दो ' के सिद्धांत के अनुसार स्वयं भी सुख पूर्वक जीवन यापन करें और दूसरों को भी जीने दें l किन्तु जब हम मोहवश इस व्यवस्था को भंग कर अपने और दूसरों के लिए पतन और पीड़ा का सृजन करते हैं तब अपनी स्रष्टि व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने के लिए प्रभु अवतरित होते हैं l भगवान के अवतार कार्यों में दुष्टों को दंड देना एक प्रधान कार्य होता है l भगवान की द्रष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है l भगवान जो किसी को दंड देते हैं , वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिए ही होता है l " जब महाभारत समाप्त हो गया तब पांडव तो भगवान के निर्देश के अनुसार मर्यादित जीवन जीने लगे किन्तु भगवान कृष्ण का ही वंश ' यदुवंशियों ' में अहंकार तथा स्वच्छंदता पनपने लगी l श्रीकृष्ण ने सोचा कि मेरे रहते तो ये नियंत्रित हैं किन्तु बाद में ये सब स्वच्छंद होकर अनर्थ पैदा करेंगे l भगवान सोच रहे थे कि ये यदुवंशी मेरे आश्रित हैं और धनबल , जनबल आदि विशाल वैभव के कारण स्वच्छंद हो रहे हैं l अन्य किसी से इनकी पराजय नहीं हो सकती l जैसे बांस के वन परस्पर रगड़ से उत्पन्न अग्नि से ही जलकर समाप्त होते हैं , इसी तरह परस्पर संघर्ष से ही इन्हें समाप्त कर के ही शांति संभव है l श्रीमद् भागवत में लिखा है कि भगवान अपने कर्तव्यों का पालन बड़ी कठोरता से करते हैं l उनके अपने कहलाने वाले भी उनके आदर्शों की उपेक्षा करने का उचित दंड पाते हैं l भगवान श्रीकृष्ण के कृष्णावतार की अंतिम लीला शेष थी --- उन्होंने द्वारिकावासी स्त्री , बच्चों व बूढ़ों को शंखोद्वार क्षेत्र भेज दिया तथा अन्य सब को लेकर प्रभास क्षेत्र समुद्र तट पर गए l वहां उन्होंने सबको मंगल कृत्य एवं स्नान करने के लिए कहा l सबने उनकी आज्ञानुसार स्नान व पूजन किया l इसके बाद मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे l यह पीने में तो मीठी होती है परन्तु इसके नशे से बुद्धि भ्रष्ट और सर्वनाश करने वाली हो जाती है l शराब के नशे में वे यदुवंशी एक दूसरे से लड़ने लगे l रथ और अस्त्र -शस्त्र का प्रयोग करने लगे l श्रीकृष्ण और बलराम के रोकने पर भी नहीं रुके और उन्हें भी अपना शत्रु मानने लगे l गांधारी के शाप का फलित होने का समय आ गया था , वे सब समुद्र तट पर परस्पर लड़-कटकर मर गए l जब भगवान ने देखा कि समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका , तब उन्होंने यह सोचकर संतोष की साँस ली कि पृथ्वी का बचा -खुचा भार भी उतर गया l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-59614188960824001512024-02-28T22:10:00.000+05:302024-02-28T22:10:14.744+05:30 WISDOM -----<p> हमारे धर्म ग्रंथों के विभिन्न प्रसंगों में मनुष्य के सुखी और सफल जीवन के लिए विभिन्न सूत्र हैं , लेकिन जब वातावरण में नकारात्मकता होती है , दुर्बुद्धि का प्रकोप होता है तब व्यक्ति अच्छाई को नहीं देखता , अच्छाई में से भी बुराई ढूंढ लेता है जैसे शिशुपाल और दुर्योधन को भगवान श्रीकृष्ण में कोई गुण नहीं दीखते थे , शिशुपाल ने तो भगवान को सौ गालियाँ दीं , दुर्योधन ने उन्हें बंदी बनाने का प्रयत्न किया l इसी तरह रावण कितना विद्वान् और शक्तिशाली था l रावण के गुणों को किसी ने नहीं सीखा l रावण ने जो पापकर्म किए वे ही लोगों के मन -मस्तिष्क पर हावी हो गए l कितनी ही पीढ़ियाँ गुजर गईं लेकिन आततायी , अत्याचारी , अहंकारी , ऋषियों को सताने वाला रावण लोगों के मन -मस्तिष्क पर से हटा नहीं , वह आज भी जिन्दा है l ईश्वर धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं और अपने आचरण से शिक्षा देते हैं l जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया , उसमें सबके लिए काम बांटे जा रहे थे l श्रीकृष्ण ने भी अपने लिए काम माँगा l लेकिन पांडवों ने कहा ---- " भगवन ! आपके लिए तो हमारे पास कोई काम नहीं है l " बहुत ज्यादा जोर देने पर उनसे कह दिया गया कि वे अपनी पसंद का काम स्वयं ढूंढ लें l सभी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण यज्ञ में आदि से अंत तक अतिथियों के चरण धोने , झूंठी पत्तलें उठाने तथा सफाई रखने का काम स्वयं करते रहे l भगवान ने कहा ---- कोई काम छोटा नहीं होता पर बड़ों को छोटे काम भी करने चाहिए ताकि उनमें अहंकार न हो और छोटों में हीनता की भावना उत्पन्न न होने पाए l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-82903481673985072792024-02-27T12:16:00.006+05:302024-02-27T12:16:52.106+05:30 WISDOM <p> लघु -कथा ----- 1 . एक दिन पंडित जी की कथा सुनने एक डाकू भी आया l पंडित जी समझा रहे थे ' क्षमा और अहिंसा ' मनुष्य के आभूषण हैं l इनका परित्याग नहीं करना चाहिए l कथा समाप्त हुई l पंडित जी दान -दक्षिणा लेकर गाँव की ओर चल पड़े l बीच में जंगल पड़ता था l जंगल में पहुँचते ही डाकू आ धमका और पंडित जी को सारा धन रख देने को कहा l पंडित जी निडर थे , पास में लाठी थी , उसे लेकर डाकू को मारने दौड़े l अचानक प्रहार से डाकू घबरा गया और विनय पूर्वक बोला ---" महाराज आप तो कह रहे थे ' क्षमा और अहिंसा ' मनुष्य के भूषण हैं , इन्हें नहीं त्यागना चाहिए l " पंडित जी बोले --- " वह तो सज्जनों के लिए था , तेरे जैसे दुष्टों के लिए यह लाठी ही उपयुक्त है l " पंडित जी का रौद्र रूप देखकर डाकू वहां से भाग गया l </p><p>2 . एक लकड़हारा अपनी योग्यता के कारण राजा का दोस्त बना और एक दिन वह राज्य मंत्री के पद पर जा पहुंचा l रिश्वत लेने वाले भ्रष्ट कर्मचारी उससे ईर्ष्या करते थे और राजा से उसकी शिकायत करते थे l किसी ने कहा कि उसके पास बहुत सा धन उसके एक बक्से में है l इस शिकायत के आधार पर राजा ने उससे वह संदूक दिखाने को कहा l राजा के आदेश से वह संदूक खोला गया तो उसमें थोड़े से मैले -कुचैले वस्त्र रखे थे l राजा ने पूछा --- 'यह क्या है ? मंत्री ने कहा ---- 'महाराज ! ये वह कपड़े हैं जिन्हें मैं आपकी मित्रता से पहले पहना करता था l इन्हें सुरक्षित इसलिए रखा है ताकि मुझे अपनी पूर्व स्थिति याद रहे , कभी अहंकार न आए और कभी किसी तरह का अन्याय मुझसे न हो l ईश्वर की कृपा से ही मुझे आपकी मित्रता और यह पद मिला , अपनी पूर्व स्थिति को याद रख मैं इसका सदुपयोग करूँ l <br /><br /></p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-2473339374765396852024-02-26T21:49:00.001+05:302024-02-26T21:49:31.122+05:30 WISDOM -----<p> वर्तमान समय में संसार में जो भी विकट परिस्थितियां हैं उसके लिए हम कलियुग को दोष देते हैं लेकिन श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं ---- कलियुग में अनेक दोष हैं , फिर भी सब दोषों का मूल स्रोत हमारा अन्त:करण ही है l हमारे दोष -दुर्गुण ही कलियुग के रूप में हमें पीड़ा और पतन में झोंक देते हैं l लेकिन जिस समय हमारा मन , बुद्धि और इन्द्रिय सतोगुण में स्थित होकर अपना -अपना काम करने लगती हैं उस समय सतयुग समझना चाहिए l श्रीमद् भागवत में अपने भीतर सतयुग की स्थापना का रहस्य बताया गया है ---- यदि हम चाहते हैं कि हमारे अन्दर और बाहर सतयुग आ जाये तो हमें विवेकी बनना चाहिए l अपनी भावना , विचार और क्रियाओं को विवेक की कसौटी पर कसना चाहिए , जो सही हो उसे अपनाना और जो गलत हो उसे छोड़ देने का साहस करना चाहिए l ' पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " अविवेकी व्यक्ति थोड़े से काम में ढेरों शक्ति व समय लगा देता है किन्तु विवेक संपन्न व्यक्ति थोड़े का भी बड़ा सार्थक उपयोग कर लेते हैं l ढेरों संपत्ति के बीच लोग फूहड़ जिन्दगी जीते हैं और थोड़े साधनों में भी व्यक्ति व्यवस्थित और शानदार ढंग से रह लेता है l यह विवेक का ही अंतर है l जीवन भी एक संपदा है l निरर्थक कार्यों में सारा जीवन लगा देने से कुछ हाथ नहीं आता , किन्तु विवेकपूर्ण थोड़ा सा भी समय श्रेष्ठ कार्यों में लगता रहे तो मनुष्यों का यश चारों दिशाओं में फ़ैल जाता है l" पांडवों ने अपने वनवास के कष्टपूर्ण समय को नियम , संयम और शक्ति अर्जित करने में बिताया l अर्जुन ने तपस्या कर के शिवजी और देवराज इंद्र से दिव्य अस्त्र -शस्त्र प्राप्त किए l जबकि कौरवों ने अपना समय छल , कपट और षडयंत्र करने , पांडवों को हर समय नीचा दिखाने में ही गँवा दिया l </p>Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7616596658681074009.post-27247494153521004992024-02-25T22:23:00.000+05:302024-02-25T22:23:15.237+05:30 WISDOM ----- एक बार नारद जी मृत्यु लोक में भ्रमण को निकले तो यहाँ उन्होंने प्राणियों को बहुत कष्ट व दुःख में देखा l प्राणियों का यह कष्ट कैसे मिटे ? कष्ट के निवारण का उपाय पूछने वह विष्णु लोक जा पहुंचे l तब भगवान कहते हैं ----- " हे नारद ! संसार में लोग सत्य धर्म की उपेक्षा करने के कारण ही अत्यधिक कष्ट पा रहे हैं l जब मनुष्य अपने लिए निर्धारित सत्य पथ से विचलित हो जाते हैं तभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है l भगवान कहते हैं ---- " सत्य ही भगवान का सच्चा स्वरुप है l भगवान व्यक्ति रूप नहीं , भाव रूप हैं l यदि संसारी मनुष्य शब्दों से ही नहीं , आचरण से भी सत्य का पालन करने के लिए तत्पर हो जाए तो निश्चित रूप से दुःखों से छुटकारा पा सकते हैं l " पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति -संजीवनी श्रीमद् भागवत एवं गीता ' में लघु प्रसंगों के माध्यम से सत्याचरण की ताकत और उसका महत्त्व समझाया है ------ राजा दशरथ राम का बिछोह सह नहीं सकते थे l लोगों ने सलाह दी कि आपको अपना निर्णय बदलने का हक है l कैकेयी की बात मत मानिए l राजा दशरथ ने कहा --- मुझे राम का पिता बनने का सौभाग्य सत्याचरण के प्रभाव से ही मिला है , उसे त्याग कर मैं अपने स्तर से गिरना नहीं चाहता l मुझे वचन सोच -समझकर ही देना चाहिए , परन्तु अब सत्य की मर्यादा भंग कर के जीवन का मोह करना मुझे स्वीकार नहीं l Omkarhttp://www.blogger.com/profile/18371649977680168955noreply@blogger.com0