पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने वाङ्मय पृष्ठ १. १ ४ पर लिखा है ---- ' हम निश्चित रूप से इन दिनों विषम परिस्थितियों के बीच रह रहे हैं l पौराणिक विवेचन के अनुसार इसे असुरता के हाथों देवत्व का पराभव होना कहा जा सकता है l कभी हिरण्याक्ष , हिरण्यकश्यपु , वृत्तासुर , भस्मासुर , रावण , कंस आदि ने आतंक उत्पन्न किये थे और देवताओं को खदेड़ दिया था l उन दिनों शासक वर्ग का ही आतंक था , पर आज तो राजा - रंक , धनी - निर्धन , शिक्षित - अशिक्षित सभी एक राह पर चल रहे हैं l छद्म और अनाचार ही सबका इष्टदेव बन चला है l नीति और मर्यादा का पक्ष दिनों दिन दुर्बल होता जाता है l उपाय दो ही हैं --- एक यह कि शुतुरमुर्ग की तरह आँख बंद कर के भवितव्यता के सामने सिर झुका दिया जाये , जो होना है उसे होने दिया जाये l दूसरा यह कि जो सामर्थ्य के अंतर्गत है , उसे करने में कुछ न उठा रखा जाये l '
19 December 2019
WISDOM ------
मनुष्य की दिखावे की प्रवृति होती है , वह स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता है लेकिन सत्य तो सत्य ही होता है -----
एक था बन्दर और एक था सियार l दोनों में बड़ी मैत्री थी l एक दिन दोनों वन विहार के लिए निकले l उस रास्ते पर एक कब्रिस्तान पड़ता था l एक कब्र के पास पहुंचकर बन्दर ने उसे साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आँख मूंदकर कुछ स्तुति सी गाने लगा l उसे ख्याल था कि उसे ऐसा करते देख सियार उसकी विद्व्ता से बहुत प्रभावित होगा l लेकिन सियार ने कुछ और ही समझा , उसे लगा कि बन्दर को कोई बीमारी हो गई l सियार ने पूछा ---- ' तुम यहाँ खड़े - खड़े क्या कर रहे हो ? ' बन्दर ने कहा ---- ' तुझे मालूम नहीं यह समाधि मेरे पितामह की है l मैं उनके उत्कृष्ट ज्ञान , बल - पौरुष और कला - कौशल का गुणानुवाद कर रहा हूँ जिससे मैं भी वैसा ही बनूँ l '
बन्दर सोच रहा था कि इस बार सियार उसकी श्रद्धा , भक्ति की दाद देगा , पर सियार ने हँसते हुए कहा ---- " जो जी में आये , कहो मित्र ! तुम्हारे पितामह तो यहाँ कोई बैठे नहीं हैं , जो सत्य - असत्य का निर्णय दे सकें l '
बन्दर को अपने दिखावे पर बड़ा दुःख हुआ और उसने फिर कभी वैसा प्रपंच न रचने का संकल्प लिया l
एक था बन्दर और एक था सियार l दोनों में बड़ी मैत्री थी l एक दिन दोनों वन विहार के लिए निकले l उस रास्ते पर एक कब्रिस्तान पड़ता था l एक कब्र के पास पहुंचकर बन्दर ने उसे साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आँख मूंदकर कुछ स्तुति सी गाने लगा l उसे ख्याल था कि उसे ऐसा करते देख सियार उसकी विद्व्ता से बहुत प्रभावित होगा l लेकिन सियार ने कुछ और ही समझा , उसे लगा कि बन्दर को कोई बीमारी हो गई l सियार ने पूछा ---- ' तुम यहाँ खड़े - खड़े क्या कर रहे हो ? ' बन्दर ने कहा ---- ' तुझे मालूम नहीं यह समाधि मेरे पितामह की है l मैं उनके उत्कृष्ट ज्ञान , बल - पौरुष और कला - कौशल का गुणानुवाद कर रहा हूँ जिससे मैं भी वैसा ही बनूँ l '
बन्दर सोच रहा था कि इस बार सियार उसकी श्रद्धा , भक्ति की दाद देगा , पर सियार ने हँसते हुए कहा ---- " जो जी में आये , कहो मित्र ! तुम्हारे पितामह तो यहाँ कोई बैठे नहीं हैं , जो सत्य - असत्य का निर्णय दे सकें l '
बन्दर को अपने दिखावे पर बड़ा दुःख हुआ और उसने फिर कभी वैसा प्रपंच न रचने का संकल्प लिया l
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