25 December 2019

WISDOM ------ धर्मप्राण - महामना पं. मदनमोहन मालवीय

    मालवीय  जी  एक  प्रसिद्ध   सनातन धर्मी  माने  जाते  थे  l   वे  धर्म भक्त , देशभक्त  और  समाज - भक्त  होने  के  साथ   ही  सुधारक  भी  थे  l   पर  उनके  सुधार  कार्यों  में  अन्य  लोगों  से  कुछ  अंतर  था  l  अन्य  सुधारक  जहाँ   समाज  से  विद्रोह , संघर्ष  करने  लग  जाते  हैं   वहां  मालवीय जी  समाज  से  मिलकर  चलने  के  पक्षपाती  थे  l   वे  सुधार  अवश्य  करते  थे  जैसे  उन्होंने   स्वयं  काशी   में  गंगातट  पर  बैठकर   चारों  वर्णों  के  लोगों  को  ---- यहाँ  तक  कि   चाण्डालों  को  भी   मन्त्रों  की  दीक्षा  दी  l   जब  वे  नासिक  गए  तो  गोदावरी  के  तट   पर  हरिजनों  को  दीक्षा  दी  l   -- पर  उन्होंने  यह  कार्य  लोगों  को  समझा - बुझा   कर  और  राजी  कर  के   ही   किया   l
 मालवीय जी  का  मत  था   कि  समाज  से  विद्रोह  कर  के  अथवा  उससे  पृथक  होकर  अपने  नए  रास्ते  पर  चलने  से    कोई  ठोस  कार्य  नहीं  कर  सकते   l   उस  अवस्था  में  समाज  हमारी  बात  पर  ध्यान  ही  नहीं  देगा   वरन  उल्टा  उसका  विरोध  ही  करेगा  l   जिससे  सुधार  का  उद्देश्य  कुछ  भी  पूरा  न   हो  सकेगा  l 
  यही  बात  उन्होंने  अपने   भतीजे  कृष्णकांत  मालवीय  को  लिखी  थी  ,  जब  उन्होंने  विधवाओं  की  समस्या  पर  एक  लेख  ' अभ्युदय '  में  लिखा  l   उसकी  कई  बातें  मालवीय जी  को  अपने  सिद्धांतों  के  विपरीत  जान  पड़ीं   और  उन्होंने  कृष्णकांत जी  को  एक  पत्र   द्वारा  उनकी  भर्त्सना   करते  हुए  लिखा  ----    " तुम  समाज  का  हित   करना  चाहते  हो ,  समाज  की  सेवा  करना  चाहते  हो  ,  किन्तु  समाज  कभी  तुम्हारी  सेवा  स्वीकार  नहीं  करेगा  --- तुमको  सेवा  का  अवसर  ही  नहीं  देगा  l   यदि  तुम  मर्म  की  बातों  में   समाज  की  मर्यादा  का  पालन  नहीं  करोगे   और  समाज  को  मर्मवेधी  वचन  प्रकट  रूप  में  कहकर  दुखित  और  लज्जित  करोगे  l ------ सत्कार्य  का  उत्साह  प्रशंसनीय  है  ,  किन्तु  तभी  जब  वह  मर्यादा   के  भीतर  रहे   l   यदि  उत्साह  की  बाढ़  में   विवेक  और  विचार   को  बह   जाने  दोगे   तो  समाज  का   कुछ  भी  उपकार  न  कर  सकोगे   l   "
  यही   कारण  था  कि   मालवीय  जी  ने  सुधार  के  कार्यों  में  कभी  जल्दबाजी  नहीं  की   l   उनका  कहना  था   कि   जब  हम  समाज  का  सुधार  करना  चाहते  हैं  ,  उसके  कल्याण  के  लिए  प्रयत्न  कर  रहे  हैं   तो  उसके  साथ  रहकर  ही  वैसा  किया  जा  सकता  है   l   समाज  से  लड़कर ,  उसकी  निंदा  , बुराई  कर  के   तो  और  भी  बिगाड़  होगा  ,  सुधार  की  आशा  कैसे  की  जा  सकती  है   ?