लियो टालस्टाय ने अपनी कृति ' समाज निर्माण ' में लिखा है --- ' समाज सुधार के लिए निश्चय ही संसार में संतों और महामानवों का समय - समय पर जन्म होता रहता है , पर वे भी व्यक्तियों द्वारा इस दिशा में प्रयास - पुरुषार्थ के अभाव में ज्यादा कुछ नहीं कर पाते l हाँ , यदि लोगों ने पराक्रम करना स्वीकार कर प्रयत्न पूर्वक एक कदम आगे बढ़ना अंगीकार कर लिया है , तो यह संभव है कि महापुरुष अपने आत्मबल द्वारा पीछे से धक्का देकर उन्हें दो कदम और आगे बढ़ा दें , किन्तु इसका शुभारम्भ उन्हें स्वयं से करना होगा , यह दायित्व उन्हें स्वयं निबाहना होगा , तभी ऐसा संभव है l ' वे आगे लिखते हैं --- ' संतों का उपदेश सुनकर कोई संत नहीं बन सकता l जब संत को अपने भीतर पैदा करेगा , तभी वह सज्जन कहला सकेगा l '
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' वर्तमान समय में टालस्टाय की यह बात अक्षरश; लागु होती है l लोग यह समझकर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि कोई समर्थ अवतार इस पृथ्वी पर आएगा और जादू की छड़ी घुमाकर इस संसार को बदल कर रख देगा l यह हमारा भ्रम है l यदि किसी ऐसी समर्थ सत्ता का अवतरण हुआ भी , तो यंत्र हमें ही बनना पड़ेगा , पुरुषार्थ हमें ही करना पड़ेगा , तभी समग्र परिवर्तन संभव हो सकेगा l l
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' वर्तमान समय में टालस्टाय की यह बात अक्षरश; लागु होती है l लोग यह समझकर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि कोई समर्थ अवतार इस पृथ्वी पर आएगा और जादू की छड़ी घुमाकर इस संसार को बदल कर रख देगा l यह हमारा भ्रम है l यदि किसी ऐसी समर्थ सत्ता का अवतरण हुआ भी , तो यंत्र हमें ही बनना पड़ेगा , पुरुषार्थ हमें ही करना पड़ेगा , तभी समग्र परिवर्तन संभव हो सकेगा l l