सिकन्दर और अरस्तु साथ - साथ जा रहे थे , रास्ते में नदी मिली । अरस्तु पहले पार जाना चाहते थे , पर सिकन्दर न माना और वही पहले उतरा , अरस्तु बाद में उतरे । पार जाने पर अरस्तु ने सिकंदर से कहना न मानने का कारण पूछा । सिकन्दर ने जवाब दिया कि यदि सिकन्दर डूब जाता तो अरस्तु ऐसे दस सिकन्दर बना सकते थे , पर अगर अरस्तु डूब जाते तो दस सिकन्दर मिलकर भी एक अरस्तु नहीं बना सकते थे ।
27 October 2015
25 October 2015
ऊँच - नीच की भावनाओं के विरोधी ----- महाकवि कम्बन
' जो विद्वान अपने ज्ञान भण्डार और परिश्रम पूर्वक अर्जित किये अनुभव को जन - साधारण के हितार्थ प्रस्तुत करते हैं वे वास्तव में समाज के बहुत बड़े हितकारी हैं | सद्गुणों और सत्कार्यों की प्रशंसा पढ़कर मनुष्य का चित उनकी तरफ आकर्षित होता है और वह भी उनका अनुकरण करके वैसा ही यश और प्रशंसा प्राप्त करने की अभिलाषा करने लगता है । इस प्रकार सत्कर्मो की श्रंखला आगे बढ़ती है और समाज अधिक सुसंस्कृत बनता जाता है । '
तामिल - भाषा के महाकवि कम्बन ( जन्म 1200 के लगभग ) इसी तथ्य के उदाहरण थे ।
ये बचपन में ही अनाथ हो गये थे । इनके रिश्तेदार इन्हें नल्लूर गाँव में एक किसान के घर के पास छोड़ आये , उसी के घर इनकी परवरिश हुई | ये बचपन से ही प्रतिभाशाली थे और काव्य - रचना करने लगे । इनकी काव्य - प्रतिभा से चोल - राजा बहुत खुश हुए और उन्हें राजकवि बना दिया | कुछ समय बद राज ने उनसे तमिल - भाषा में वाल्मीकि - रामायण की तरह रामचरित्र लिखने का आग्रह किया । उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया ।
कुछ वर्ष बाद बारह हजार पदों का सुन्दर ग्रन्थ लिखकर तैयार हो गया । यह ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हुआ | जैसे उत्तर भारत में तुलसीदासजी की रामचरितमानस घर - घर पढ़ी जाती है उसी तरह दक्षिण भारत में ' कम्ब रामायण ' का सर्वत्र सम्मान के साथ पाठ किया जाता है । उनकी महान कृति पर मुग्ध होकर विद्वानों व महाराजाओं ने उन्हें ' कवि - सम्राट ' की पदवी दे दी ।
' कम्ब रामायण ' में उन्होंने राम -वनवास में उनके सर्वप्रथम सहायक निषादराजगुह जो कि नीची जाति के शूद्र थे , का वर्णन बहुत उच्च और उदात्त रूप में किया है । कम्बन ने उसको एक स्वाभिमानी और बहादुर सरदार के रूप में चित्रित किया है |
कम्बन ने निषाद जैसी नीच कहलाने वाली जाति के व्यक्ति को ऊँचा उठाकर , उसे राम का प्रिय मित्र बनाकर ऊँची - नीची जाति के मिथ्या अहंकार की जड़ पर कुठाराघात किया है । उनके इस काव्य - प्रवाह का पाठक के अंतर्मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है और वह जाति के बजाय चरित्र की उच्चता के सिद्धांत का कायल हो जाता है ।
कम्बन ने अपनी रचना द्वारा हर तरह से सदभावों को अपनाने एवं उनकी वृद्धि की प्रेरणा की है , जो एक सच्चे साहित्यकार का धर्म है |
तामिल - भाषा के महाकवि कम्बन ( जन्म 1200 के लगभग ) इसी तथ्य के उदाहरण थे ।
ये बचपन में ही अनाथ हो गये थे । इनके रिश्तेदार इन्हें नल्लूर गाँव में एक किसान के घर के पास छोड़ आये , उसी के घर इनकी परवरिश हुई | ये बचपन से ही प्रतिभाशाली थे और काव्य - रचना करने लगे । इनकी काव्य - प्रतिभा से चोल - राजा बहुत खुश हुए और उन्हें राजकवि बना दिया | कुछ समय बद राज ने उनसे तमिल - भाषा में वाल्मीकि - रामायण की तरह रामचरित्र लिखने का आग्रह किया । उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया ।
कुछ वर्ष बाद बारह हजार पदों का सुन्दर ग्रन्थ लिखकर तैयार हो गया । यह ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हुआ | जैसे उत्तर भारत में तुलसीदासजी की रामचरितमानस घर - घर पढ़ी जाती है उसी तरह दक्षिण भारत में ' कम्ब रामायण ' का सर्वत्र सम्मान के साथ पाठ किया जाता है । उनकी महान कृति पर मुग्ध होकर विद्वानों व महाराजाओं ने उन्हें ' कवि - सम्राट ' की पदवी दे दी ।
' कम्ब रामायण ' में उन्होंने राम -वनवास में उनके सर्वप्रथम सहायक निषादराजगुह जो कि नीची जाति के शूद्र थे , का वर्णन बहुत उच्च और उदात्त रूप में किया है । कम्बन ने उसको एक स्वाभिमानी और बहादुर सरदार के रूप में चित्रित किया है |
कम्बन ने निषाद जैसी नीच कहलाने वाली जाति के व्यक्ति को ऊँचा उठाकर , उसे राम का प्रिय मित्र बनाकर ऊँची - नीची जाति के मिथ्या अहंकार की जड़ पर कुठाराघात किया है । उनके इस काव्य - प्रवाह का पाठक के अंतर्मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है और वह जाति के बजाय चरित्र की उच्चता के सिद्धांत का कायल हो जाता है ।
कम्बन ने अपनी रचना द्वारा हर तरह से सदभावों को अपनाने एवं उनकी वृद्धि की प्रेरणा की है , जो एक सच्चे साहित्यकार का धर्म है |
23 October 2015
मानवता के अमर - गायक ---- एलेक्जेंडर पुश्किन
कवि , मानवता का प्रतिनिधि होता है । जो कला मानवता के श्रंगार में प्रयुक्त हो उसी को सार्थक माना जा सकता है | रूस के महाकवि एलेक्जेंडर पुश्किन ऐसे ही कलाकार थे , उन्होंने अपने युग की पीड़ा को छंद बद्ध करके मानवीय अंत:करण तक पहुँचाने का प्रयत्न किया ।
पुश्किन ,कवि माने जाते हैं और उन्हें किसी क्रांति का ही प्रेरक नहीं वरन अनैतिकता के विरुद्ध छेड़े गये विश्व - युद्ध का अग्रणी नेता समझा जाता है ।
उन्होंने छोटे बड़े दर्जनों महाकाव्य और साधारण कविता की पुस्तकें लिखीं , नाटक और उपन्यास भी कई लिखे , इस सभी रचनाओं में वह ओज , आदर्श और प्रभाव मौजूद है जो अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने और मानवीय पुण्यो की स्थापना में आवश्यक स्फूर्ति व प्रेरणा दे सके | वे कुलीन कहलाने वाले घराने में जन्मे थे किन्तु उनकी रचनाओं में पीड़ित और शोषित जनता का दर्द था , उनकी कवितायेँ गायी जाने लगीं जनता ने उनसे आवश्यक प्रेरणा प्राप्त की । ' रोड टू लिबर्टी , ' दी विलेज ' उनके दो काव्य बहुत लोकप्रिय हुए जिनमे राजनीतिक उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को संघर्ष करने की प्रेरणा दी गई थी |
पुश्किन ,कवि माने जाते हैं और उन्हें किसी क्रांति का ही प्रेरक नहीं वरन अनैतिकता के विरुद्ध छेड़े गये विश्व - युद्ध का अग्रणी नेता समझा जाता है ।
उन्होंने छोटे बड़े दर्जनों महाकाव्य और साधारण कविता की पुस्तकें लिखीं , नाटक और उपन्यास भी कई लिखे , इस सभी रचनाओं में वह ओज , आदर्श और प्रभाव मौजूद है जो अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने और मानवीय पुण्यो की स्थापना में आवश्यक स्फूर्ति व प्रेरणा दे सके | वे कुलीन कहलाने वाले घराने में जन्मे थे किन्तु उनकी रचनाओं में पीड़ित और शोषित जनता का दर्द था , उनकी कवितायेँ गायी जाने लगीं जनता ने उनसे आवश्यक प्रेरणा प्राप्त की । ' रोड टू लिबर्टी , ' दी विलेज ' उनके दो काव्य बहुत लोकप्रिय हुए जिनमे राजनीतिक उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को संघर्ष करने की प्रेरणा दी गई थी |
22 October 2015
हिंसा और अहिंसा का अदभुत समन्वय करने वाले ------- भगवान् परशुराम
'अन्याय और अधर्म को यदि सहन करते रहा जायेगा तो इससे अनीति बढ़ेगी और इस सुन्दर संसार में अशांति उत्पन्न होगी । अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापन एक ही रथ के दो पहिये होते हैं | '
परशुराम जी ने कहा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जब अहिंसा समर्थ न हो तो हिंसा भी अपनायी जा सकती है । अनाचार को समाप्त करने की उदात्त भावना से प्रेरित होकर यदि हिंसात्मक नीति अपनानी पड़े तो उसे परशुराम जी ने अनुचित नहीं समझा ।
शान्ति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुई अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता ।
परशुराम जी शास्त्र और धर्म के गूढ़ तत्वों को भली - भांति समझते थे इसलिए आवश्यकता पड़ने पर काँटे से काँटा निकालने , विष से विष मारने की नीति के अनुसार ऋषि होते हुए भी उन्होंने धर्म रक्षा के लिए सशस्त्र अभियान आरम्भ करने में तनिक भी संकोच न किया ।
नम्रता और ज्ञान से सज्जनों को और दण्ड से दुष्टों को जीता जा सकता है ।
परशुराम जी ने कहा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जब अहिंसा समर्थ न हो तो हिंसा भी अपनायी जा सकती है । अनाचार को समाप्त करने की उदात्त भावना से प्रेरित होकर यदि हिंसात्मक नीति अपनानी पड़े तो उसे परशुराम जी ने अनुचित नहीं समझा ।
शान्ति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुई अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता ।
परशुराम जी शास्त्र और धर्म के गूढ़ तत्वों को भली - भांति समझते थे इसलिए आवश्यकता पड़ने पर काँटे से काँटा निकालने , विष से विष मारने की नीति के अनुसार ऋषि होते हुए भी उन्होंने धर्म रक्षा के लिए सशस्त्र अभियान आरम्भ करने में तनिक भी संकोच न किया ।
नम्रता और ज्ञान से सज्जनों को और दण्ड से दुष्टों को जीता जा सकता है ।
21 October 2015
न्यायशील नौशेरवां
पारसियों के इतिहास में नौशेरवां एक बहुत प्रसिद्ध और न्यायशील बादशाह हुआ है । उसके पिता ' कोबाद ' के समय में फारस में ' मजदक ' नाम के एक ढोंगी धर्म प्रचारक ने एक नया सम्प्रदाय अपने नाम से चलाया था , इसका सिद्धांत था कि सब चीजें भगवान की देन हैं , इसलिए किसी की चीज को ले लेने में कोई दोष नहीं है । मजदक बड़ा धूर्त था उसने चालाकी से बादशाह कोबाद को अपना अनुयायी बना लिया इससे राज्य में स्वार्थी और चालाक व्यक्तियों का जोर बढ़ गया ।
जब नौशेरवां बादशाह बना तो सबसे पहले उसने मजदक के अनुयायिओं पर पाबन्दी लगाने का निश्चय किया मजदक तब तक राजगुरु की पदवी पर बैठा था , उसे इस बात का अहंकार था की मेरे सामने कोई सिर नहीं उठा सकता ।,।
एक दिन एक म्व्यक्ति रोता हुआ दरबार में आया और नौशेरवां से शिकायत की कि---- "इसके एक चेले ने मेरी स्त्री को छीन लिया है और मांगने पर उलटी धमकी देता है । मेरा न्याय किया जाये । मजदक उस समय दरबार में उपस्थित था | नौशेरवां ने क्रोधपूर्वक कहा ----
" मजदक ! अब ऐसा अंधेर नहीं चलेगा , इसी समय अपने चेले से इसकी स्त्री को वापस कराओ और अपने धर्म का प्रचार बंद करो l "
अभिमान के कारण मजदक ने राजा की न्याययुक्त बात नहीं मानी और यह कहकर दरबार से चला गया कि " बादशाह के बाद पुत्र को मुझे हुक्म देने का कोई अधिकार नहीं है ।"
जब नौशेरवां ने देखा कि ये लोग सीधी तरह नहीं मानेंगे और सख्ती न की जायेगी तो राज्य में विद्रोह खड़ा कर देंगे , तो नौशेरवां ने मजदक और उसके सब चेलों को तुरंत पकड़ लेने की आज्ञा दी । उन सबको जेल में बंद कर दिया गया और उन्होंने जिन लोगों की सम्पति छीनी थी वह सब वापस करा दी गई । मजदक को नौशेरवां ने प्राणदंड की आज्ञा दी , जिससे फिर कोई उसके शासन में अन्याय करने का साहस न करे ।
जब नौशेरवां बादशाह बना तो सबसे पहले उसने मजदक के अनुयायिओं पर पाबन्दी लगाने का निश्चय किया मजदक तब तक राजगुरु की पदवी पर बैठा था , उसे इस बात का अहंकार था की मेरे सामने कोई सिर नहीं उठा सकता ।,।
एक दिन एक म्व्यक्ति रोता हुआ दरबार में आया और नौशेरवां से शिकायत की कि---- "इसके एक चेले ने मेरी स्त्री को छीन लिया है और मांगने पर उलटी धमकी देता है । मेरा न्याय किया जाये । मजदक उस समय दरबार में उपस्थित था | नौशेरवां ने क्रोधपूर्वक कहा ----
" मजदक ! अब ऐसा अंधेर नहीं चलेगा , इसी समय अपने चेले से इसकी स्त्री को वापस कराओ और अपने धर्म का प्रचार बंद करो l "
अभिमान के कारण मजदक ने राजा की न्याययुक्त बात नहीं मानी और यह कहकर दरबार से चला गया कि " बादशाह के बाद पुत्र को मुझे हुक्म देने का कोई अधिकार नहीं है ।"
जब नौशेरवां ने देखा कि ये लोग सीधी तरह नहीं मानेंगे और सख्ती न की जायेगी तो राज्य में विद्रोह खड़ा कर देंगे , तो नौशेरवां ने मजदक और उसके सब चेलों को तुरंत पकड़ लेने की आज्ञा दी । उन सबको जेल में बंद कर दिया गया और उन्होंने जिन लोगों की सम्पति छीनी थी वह सब वापस करा दी गई । मजदक को नौशेरवां ने प्राणदंड की आज्ञा दी , जिससे फिर कोई उसके शासन में अन्याय करने का साहस न करे ।
20 October 2015
नर - केहरी हो तो नलवा जैसा -------- हरीसिंह नलवा
' बलवान और शक्तिशाली व्यक्ति यदि संस्कारवान भी होगा तो अनीति और अन्याय की घटनाएँ सुनकर उसका खून खौल ही उठेगा । 'हरीसिंह नलवा का जन्म 1791 में हुआ था । उनके पिता अमृतसर के निवासी थे और सुक्रयकिया रियासत के सेनापति थे ।
उस समय भारत पर मुगलों का शासन था , विधर्मियों और आततायी शासकों के अत्याचार की कहानियाँ घर - घर सुनी जाती थीं । दस वर्षीय बालक नलवा के बाल - मन में देश को शत्रुओं के पंजे से मुक्त करने की , अन्याय का प्रतिकार करने की भावना जाग्रत हो गई । जब वे सात वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई , उनके मामा वीरता और बहादुरी में क्षेत्र में अनूठे थे । उनके संरक्षण में बालक ने अपने आपको शक्ति संपन्न बनाना शुरू किया जिससे अत्याचार के प्रतिकार का सपना पूरा कर सके ।
उन्होंने अपने शरीर को बलिष्ठ बनाया , तलवार चलाने, घुड़सवारी करने , तीर चलाने तथा युद्ध कला में उसने पूरी निपुणता प्राप्त कर ली । अपनी योग्यता और वीरता के बलबूते तेरह वर्ष की आयु में हरीसिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गया । बचपन में रक्त में जो उबाल आया था उससे आततायियों से संघर्ष करने की इतनी सामर्थ्य बालक ने पा ली थी कि विदेशी आक्रमणकारी उसके नाम से कांपते थे ।
1819 में नलवा कश्मीर के सूबेदार गवर्नर बने । उसके पूर्व वहां मुहम्मद जब्बार खां का शासन था उसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये थे । महाराज की अनुमति से तीस हजार सिख सैनिकों को लेकर वे कश्मीर विजय के लिए चल दिए । सिख सैनिकों की उस समय इतनी धाक जमी हुई थी कि जब्बार खां उनका नाम सुनते ही भाग गया । कश्मीर का सूबेदार बनने के बाद नलवा ने वहां के नागरिकों को इतना स्वस्थ व सुन्दर शासन दिया कि जब वह 1821 में महाराज के बुलाने पर वहां से विदा होने लगे तो कश्मीर के लोग बिलख -विलख कर रोने लगे । हिन्दू - मुस्लिम दोनों ही वर्गों की जो भेदभाव रहित सेवा और व्यवस्था उन्होंने की उसे कश्मीर वासी बाद में भी याद करते रहे ।
उनके शासन में नागरिक सुख की नींद सोते थे । मातृ शक्ति का अपमान करने का साहस कोई नर - पशु नहीं कर पाता था । एक सच्चे क्षत्रिय के रूप में शक्ति का सदुपयोग करके हरीसिंह नलवा ने बलवानो के सामने आदर्श प्रस्तुत किया । नलवा चाहता था व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और शक्ति पर अंकुश रखे , उसे सन्मार्गगामी बनाये , पतन की राह पर न चलने दे ।
यदि कोई कुमार्ग पर चल पड़ा है तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति - सामर्थ्य बढ़ाकर उसे दंड दे ताकि भविष्य में कोई इस प्रकार का दुस्साहस न करे , समाज में अन्ध व्यवस्था न फैलाये |
मिचनी के नवाब ने कामांध होकर रास्ते में जाती हुई एक डोली को लूट लिया और उसमे बैठी नवविवाहिता को वह अपनी वासना की भेंट चढ़ाना चाहता था कि इसकी सूचना हरीसिंह को मिल गई । उसने नवाब पर आक्रमण करके उसे पकड़ लिया और तोप से उड़ा दिया ।
अपनी शक्ति का सदुपयोग करके वीरवर सदा के लिए अमर हो गया ।
उस समय भारत पर मुगलों का शासन था , विधर्मियों और आततायी शासकों के अत्याचार की कहानियाँ घर - घर सुनी जाती थीं । दस वर्षीय बालक नलवा के बाल - मन में देश को शत्रुओं के पंजे से मुक्त करने की , अन्याय का प्रतिकार करने की भावना जाग्रत हो गई । जब वे सात वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई , उनके मामा वीरता और बहादुरी में क्षेत्र में अनूठे थे । उनके संरक्षण में बालक ने अपने आपको शक्ति संपन्न बनाना शुरू किया जिससे अत्याचार के प्रतिकार का सपना पूरा कर सके ।
उन्होंने अपने शरीर को बलिष्ठ बनाया , तलवार चलाने, घुड़सवारी करने , तीर चलाने तथा युद्ध कला में उसने पूरी निपुणता प्राप्त कर ली । अपनी योग्यता और वीरता के बलबूते तेरह वर्ष की आयु में हरीसिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गया । बचपन में रक्त में जो उबाल आया था उससे आततायियों से संघर्ष करने की इतनी सामर्थ्य बालक ने पा ली थी कि विदेशी आक्रमणकारी उसके नाम से कांपते थे ।
1819 में नलवा कश्मीर के सूबेदार गवर्नर बने । उसके पूर्व वहां मुहम्मद जब्बार खां का शासन था उसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये थे । महाराज की अनुमति से तीस हजार सिख सैनिकों को लेकर वे कश्मीर विजय के लिए चल दिए । सिख सैनिकों की उस समय इतनी धाक जमी हुई थी कि जब्बार खां उनका नाम सुनते ही भाग गया । कश्मीर का सूबेदार बनने के बाद नलवा ने वहां के नागरिकों को इतना स्वस्थ व सुन्दर शासन दिया कि जब वह 1821 में महाराज के बुलाने पर वहां से विदा होने लगे तो कश्मीर के लोग बिलख -विलख कर रोने लगे । हिन्दू - मुस्लिम दोनों ही वर्गों की जो भेदभाव रहित सेवा और व्यवस्था उन्होंने की उसे कश्मीर वासी बाद में भी याद करते रहे ।
उनके शासन में नागरिक सुख की नींद सोते थे । मातृ शक्ति का अपमान करने का साहस कोई नर - पशु नहीं कर पाता था । एक सच्चे क्षत्रिय के रूप में शक्ति का सदुपयोग करके हरीसिंह नलवा ने बलवानो के सामने आदर्श प्रस्तुत किया । नलवा चाहता था व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और शक्ति पर अंकुश रखे , उसे सन्मार्गगामी बनाये , पतन की राह पर न चलने दे ।
यदि कोई कुमार्ग पर चल पड़ा है तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति - सामर्थ्य बढ़ाकर उसे दंड दे ताकि भविष्य में कोई इस प्रकार का दुस्साहस न करे , समाज में अन्ध व्यवस्था न फैलाये |
मिचनी के नवाब ने कामांध होकर रास्ते में जाती हुई एक डोली को लूट लिया और उसमे बैठी नवविवाहिता को वह अपनी वासना की भेंट चढ़ाना चाहता था कि इसकी सूचना हरीसिंह को मिल गई । उसने नवाब पर आक्रमण करके उसे पकड़ लिया और तोप से उड़ा दिया ।
अपनी शक्ति का सदुपयोग करके वीरवर सदा के लिए अमर हो गया ।
19 October 2015
जिनकी अध्यात्म साधना सार्थक रही ------ सुभाषचंद्र बोस
' परिवार में रहकर , कर्तव्यों का पालन करते हुए भी आत्मा का ज्योर्तिमय प्रकाश पाया जा सकता
है । ' सुभाषचंद्र बोस गीता को सदैव अपने पास रखते थे , विश्वासपूर्वक कई अवसरों पर उन्होंने कहा कि मेरी प्रेरणा और शक्ति इस ग्रन्थ से नि:सृत होकर मुझ तक पहुंचती है ।
आजाद हिन्द फौज के संगठन के लिए वे एक बार बैंकाक गये , इसके लिए उन्हें धन की सख्त जरुरत थी किन्तु कैसे कहें ? कुछ महिलाओं ने नेताजी के इस संकोच को समझ लिया और मंच पर आकर अपने आभूषण दान देने आरम्भ किये और भीने स्वर में अपनी यह श्रद्धांजलि अर्पित की । फिर तो महिलाओं में गहने देने की होड़ लग गई , यहाँ तक कि बैंकाक की महिलाओं ने भी अपने गहने देने आरम्भ कर दिए । यह देखकर नेताजी भावाभिभूत हो गये और रुधे हुए कंठ से बोले ---------- " पुत्र कुपुत्र हो सकता है , माता कुमाता नहीं हो सकती । मुझे यहाँ निराश , दुःखी और लाचार देखकर सैकड़ों रूपों में मेरी माँ मेरी लाज छिपाने के लिए यहाँ भी आ गईं । माँ के दो हाथों से ही मैंने अभी तक दुलार पाया था किन्तु आज तो माँ का ऐसा ऐसा प्रेम मुझ पर उमड़ा है कि हजार हाथों से मेरी माँ मुझे दुलारते मेरा रूप संवारने के लिए आ गईं हैं । भारत देश की आजादी के दर्शन मेरे भाग्य में बदे हैं या नहीं , मैं नहीं जानता । किन्तु आजादी के इस अभियान में मुझे
माँ की महिमा के दर्शन हो गये , मैं सचमुच कृतार्थ हो गया । "
माँ की ऐसी महिमा को सुनकर वहां उपस्थित प्रत्येक श्रोता की आँखे श्रद्धा से सजल हो उठीं ।
है । ' सुभाषचंद्र बोस गीता को सदैव अपने पास रखते थे , विश्वासपूर्वक कई अवसरों पर उन्होंने कहा कि मेरी प्रेरणा और शक्ति इस ग्रन्थ से नि:सृत होकर मुझ तक पहुंचती है ।
आजाद हिन्द फौज के संगठन के लिए वे एक बार बैंकाक गये , इसके लिए उन्हें धन की सख्त जरुरत थी किन्तु कैसे कहें ? कुछ महिलाओं ने नेताजी के इस संकोच को समझ लिया और मंच पर आकर अपने आभूषण दान देने आरम्भ किये और भीने स्वर में अपनी यह श्रद्धांजलि अर्पित की । फिर तो महिलाओं में गहने देने की होड़ लग गई , यहाँ तक कि बैंकाक की महिलाओं ने भी अपने गहने देने आरम्भ कर दिए । यह देखकर नेताजी भावाभिभूत हो गये और रुधे हुए कंठ से बोले ---------- " पुत्र कुपुत्र हो सकता है , माता कुमाता नहीं हो सकती । मुझे यहाँ निराश , दुःखी और लाचार देखकर सैकड़ों रूपों में मेरी माँ मेरी लाज छिपाने के लिए यहाँ भी आ गईं । माँ के दो हाथों से ही मैंने अभी तक दुलार पाया था किन्तु आज तो माँ का ऐसा ऐसा प्रेम मुझ पर उमड़ा है कि हजार हाथों से मेरी माँ मुझे दुलारते मेरा रूप संवारने के लिए आ गईं हैं । भारत देश की आजादी के दर्शन मेरे भाग्य में बदे हैं या नहीं , मैं नहीं जानता । किन्तु आजादी के इस अभियान में मुझे
माँ की महिमा के दर्शन हो गये , मैं सचमुच कृतार्थ हो गया । "
माँ की ऐसी महिमा को सुनकर वहां उपस्थित प्रत्येक श्रोता की आँखे श्रद्धा से सजल हो उठीं ।
17 October 2015
WISDOM------ श्रेष्ठ संतान के लिए माता - पिता का चरित्र श्रेष्ठ होना चाहिए
जैसे माता - पिता होंगे , वैसी ही उनकी संताने होंगी । इस सन्दर्भ में एक प्रसंग है ---- जब राम जी वनवास हेतु वन गये हुए थे तब राम ने लक्ष्मण जी के चरित्र की परीक्षा लेनी चाही । उन्होंने लक्ष्मण से प्रश्न किया ----- " हे लक्ष्मण ! सुन्दर पुष्प , पके हुए फल और मदमस्त यौवन देखकर ऐसा कौन है जिसका मन विचलित न हो जाये ? "
इस पर लक्ष्मण ने उत्तर दिया ---- " आर्य श्रेष्ठ ! जिसके पिता का आचरण सदैव से पवित्र रहा हो , जिसकी माता पतिव्रता रही हो , उनसे उत्पन्न बालकों के मन कभी चंचल नहीं हुआ करते | "
लक्ष्मण का यह उपदेश प्रत्येक माता - पिता के लिए है कि श्रेष्ठ संतान के लिए स्वयं का चरित्र श्रेष्ठ बनाना चाहिए ।
अपने बच्चे को संस्कारवान बनाने के लिए एक महिला ने संत ईसा से प्रश्न किया ---- " आप हमें बताइए कि बच्चे की शिक्षा - दीक्षा कबसे प्रारंभ की जानी चाहिए । " ईसा मसीह ने उत्तर दिया ----
" गर्भ में आने के 100 वर्ष पहले से । " ईसा मसीह ने इस बात को समझाया कि यद्दपि सौ वर्ष पूर्व बच्चे का अस्तित्व नहीं होता , लेकिन उसकी जड़ उसके बाबा या परबाबा के रूप में सुनिश्चित होती है | उसकी मन: स्थिति , उसके आचार , उसके संस्कार पिता के माध्यम से बच्चे के अन्दर आते हैं ।
इसी तरह माता - पिता के विचार , उनके रहन - सहन , आहार - विहार से भी बच्चे का निर्माण होता
है ।
सुसंस्कारित बच्चे पैदा होना और उनकी विकास यात्रा में योगदान देना माता - पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ।
इस पर लक्ष्मण ने उत्तर दिया ---- " आर्य श्रेष्ठ ! जिसके पिता का आचरण सदैव से पवित्र रहा हो , जिसकी माता पतिव्रता रही हो , उनसे उत्पन्न बालकों के मन कभी चंचल नहीं हुआ करते | "
लक्ष्मण का यह उपदेश प्रत्येक माता - पिता के लिए है कि श्रेष्ठ संतान के लिए स्वयं का चरित्र श्रेष्ठ बनाना चाहिए ।
अपने बच्चे को संस्कारवान बनाने के लिए एक महिला ने संत ईसा से प्रश्न किया ---- " आप हमें बताइए कि बच्चे की शिक्षा - दीक्षा कबसे प्रारंभ की जानी चाहिए । " ईसा मसीह ने उत्तर दिया ----
" गर्भ में आने के 100 वर्ष पहले से । " ईसा मसीह ने इस बात को समझाया कि यद्दपि सौ वर्ष पूर्व बच्चे का अस्तित्व नहीं होता , लेकिन उसकी जड़ उसके बाबा या परबाबा के रूप में सुनिश्चित होती है | उसकी मन: स्थिति , उसके आचार , उसके संस्कार पिता के माध्यम से बच्चे के अन्दर आते हैं ।
इसी तरह माता - पिता के विचार , उनके रहन - सहन , आहार - विहार से भी बच्चे का निर्माण होता
है ।
सुसंस्कारित बच्चे पैदा होना और उनकी विकास यात्रा में योगदान देना माता - पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ।
16 October 2015
आधुनिक युग के ऋषि साहित्यकार ------ विष्णु सखाराम खांडेकर
' लेखन की सार्थकता तो तभी है जब सामान्य से सामान्य व्यक्ति को भी वह जीवन संघर्ष और विकारों को पराजित करने की प्रेरणा दे ' खांडेकर जी ने इस कसौटी पर खरा उतरने वाला विशाल साहित्य प्रस्तुत किया ।
64 वर्ष की आयु में जब शरीर साथ देने से इन्कार करने लगता है तो खांडेकर जी ने अपनी उन कृतियों को कलम का स्पर्श दिया , जो अधूरी पड़ी थीं l साहित्यकार कभी बूढ़ा नहीं होता क्योंकि लेखनी और शब्द ही तो उसके शरीर और प्राण हैं l इस वृद्धावस्था में ही खांडेकर जी ने पंद्रह उपन्यास , दो सौ निबंध , चार सौ से अधिक लघु कथाएं तथा सौ -डेढ़ सौ काव्य के ग्रंथों का प्रणयन किया l साहित्य के साथ वे जन सेवा की ओर प्रेरित हुए l
चिंतन - मनन द्वारा उन्होंने यह जाना कि सभी समस्याओं और विकारों को सुलझाने का एकमात्र उपाय है ---- जनमानस के स्तर को ऊँचा उठाया जाये , इसके लिए उन्होंने माध्यम चुना ----- रंगमंच , फिल्म , और साहित्य l उन्होंने शिक्षक पद से त्यागपत्र दे दिया और हंस पिक्चर्स में आ गये , इस फिल्म कंपनी के लिए उन्होंने कई चित्र कथाओं का निर्माण किया l उनकी सभी फिल्म कथाएं समाज सुधार के उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखी गईं थीं
उनका पहला कथा चित्र ' छाया ' के नाम से रिलीज हुआ , इस फिल्म को उत्कृष्ट सिने कथानक का स्वर्ण पदक मिला , अच्छे स्तर की मराठी फिल्मों के निर्माण में उनका अपूर्व योगदान रहा l
'ययाति ' पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया l उन्हें ' ज्ञानपीठ पुरस्कार ' भी मिला l
64 वर्ष की आयु में जब शरीर साथ देने से इन्कार करने लगता है तो खांडेकर जी ने अपनी उन कृतियों को कलम का स्पर्श दिया , जो अधूरी पड़ी थीं l साहित्यकार कभी बूढ़ा नहीं होता क्योंकि लेखनी और शब्द ही तो उसके शरीर और प्राण हैं l इस वृद्धावस्था में ही खांडेकर जी ने पंद्रह उपन्यास , दो सौ निबंध , चार सौ से अधिक लघु कथाएं तथा सौ -डेढ़ सौ काव्य के ग्रंथों का प्रणयन किया l साहित्य के साथ वे जन सेवा की ओर प्रेरित हुए l
चिंतन - मनन द्वारा उन्होंने यह जाना कि सभी समस्याओं और विकारों को सुलझाने का एकमात्र उपाय है ---- जनमानस के स्तर को ऊँचा उठाया जाये , इसके लिए उन्होंने माध्यम चुना ----- रंगमंच , फिल्म , और साहित्य l उन्होंने शिक्षक पद से त्यागपत्र दे दिया और हंस पिक्चर्स में आ गये , इस फिल्म कंपनी के लिए उन्होंने कई चित्र कथाओं का निर्माण किया l उनकी सभी फिल्म कथाएं समाज सुधार के उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखी गईं थीं
उनका पहला कथा चित्र ' छाया ' के नाम से रिलीज हुआ , इस फिल्म को उत्कृष्ट सिने कथानक का स्वर्ण पदक मिला , अच्छे स्तर की मराठी फिल्मों के निर्माण में उनका अपूर्व योगदान रहा l
'ययाति ' पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया l उन्हें ' ज्ञानपीठ पुरस्कार ' भी मिला l
15 October 2015
मलयालम के क्रांतिदूत ------ कुमारन आशान
वे जानते थे कि साहित्य की शक्ति अपरिमित होती है , साहित्य जन - जन के पास जाकर उनके मन - मंदिर के द्वार खटखटाने में जितना सक्षम व स्थायी साधन हो सकता है उतना कोई दूसरा साधन नहीं ।
महाकवि कुमारन आशान का जन्म 1873 में केरल के एक संपन्न कुलीन परिवार में हुआ था । शिक्षा पूर्ण करके वे समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करने लगे । समाज सेवा के दौरान उन्होंने यह देखा कि भारतीय समाज में महिलाएं और अछूत ये दो वर्ग ऐसे हैं जिन्हें समानता के अधिकार प्राप्त नहीं हैं । पचास प्रतिशत महिलाएं व तीस प्रतिशत अछूतों को निकाल दिया जाये तो समाज में रह ही क्या जायेगा । अत: उन्होंने साहित्य सृजन के माध्यम से इन्हें समानता का अधिकार दिलाने का प्रयत्न किया । अपने सदुद्देश्य काव्य सृजन के कारण वे अविस्मरणीय बन गये हैं ।
उनके दो काव्य बहुत ही प्रभावशाली हुए ---- एक है ' विचार मग्न सीता ' और दूसरा है ' चाण्डाल भिक्षुकि ' ।
' चाण्डाल भिक्षुकि ' में उन्होंने एक कथा द्वारा यह बताया कि मानवीय संबंध सर्वोच्च हैं , जाति-पांति के भेद मनुष्यों द्वारा बनाये हुए हैं । उन्हें तोड़ा जा सकता है । अपने इस काव्य में उन्होंने विप्लव के समय माता-पिता द्वारा अरक्षित छोड़ी गई ब्राह्मण कन्या सावित्री का विवाह हरिजन युवक चातन से कराया है जिसने निस्स्वार्थ भाव से उसकी सेवा की थी ।
इस काव्य की व्यापक प्रतिक्रिया केरल में हुई । 1939 में वहां के मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोल दिए गये । महात्मा जी के अछूतोद्धार आन्दोलन की पृष्ठभूमि का काम भी इसी प्रतिक्रिया ने किया ।
' विचार मग्न सीता ' की नायिका सीता रामायण की सीता से भिन्न परम्पराओं को तोड़ने वाली सीता है ,
राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हुए भी आदर्श पति मानने को तैयार नहीं ।
संस्कृत कवियों की परंपरा के अनुसार कोई अठारह सर्गों का महाकाव्य रचने के बाद ही महाकवि कहलाने का अधिकारी होता है किन्तु उन्होंने बिना एक भी महाकाव्य रचे मलयालम के महाकवि होने का सौभाग्य पाया । जो प्रेरणाएं एक महाकाव्य में भरी जा सकती थीं वे ही उन्होंने अपने 41 छंदों के ' वीण पुवु ' ( पतित कुसुम ) काव्य में भरकर दिखा दीं ।
उनका यह काव्य मलयालम साहित्य में अमर हो गया ।
महाकवि कुमारन आशान का जन्म 1873 में केरल के एक संपन्न कुलीन परिवार में हुआ था । शिक्षा पूर्ण करके वे समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करने लगे । समाज सेवा के दौरान उन्होंने यह देखा कि भारतीय समाज में महिलाएं और अछूत ये दो वर्ग ऐसे हैं जिन्हें समानता के अधिकार प्राप्त नहीं हैं । पचास प्रतिशत महिलाएं व तीस प्रतिशत अछूतों को निकाल दिया जाये तो समाज में रह ही क्या जायेगा । अत: उन्होंने साहित्य सृजन के माध्यम से इन्हें समानता का अधिकार दिलाने का प्रयत्न किया । अपने सदुद्देश्य काव्य सृजन के कारण वे अविस्मरणीय बन गये हैं ।
उनके दो काव्य बहुत ही प्रभावशाली हुए ---- एक है ' विचार मग्न सीता ' और दूसरा है ' चाण्डाल भिक्षुकि ' ।
' चाण्डाल भिक्षुकि ' में उन्होंने एक कथा द्वारा यह बताया कि मानवीय संबंध सर्वोच्च हैं , जाति-पांति के भेद मनुष्यों द्वारा बनाये हुए हैं । उन्हें तोड़ा जा सकता है । अपने इस काव्य में उन्होंने विप्लव के समय माता-पिता द्वारा अरक्षित छोड़ी गई ब्राह्मण कन्या सावित्री का विवाह हरिजन युवक चातन से कराया है जिसने निस्स्वार्थ भाव से उसकी सेवा की थी ।
इस काव्य की व्यापक प्रतिक्रिया केरल में हुई । 1939 में वहां के मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोल दिए गये । महात्मा जी के अछूतोद्धार आन्दोलन की पृष्ठभूमि का काम भी इसी प्रतिक्रिया ने किया ।
' विचार मग्न सीता ' की नायिका सीता रामायण की सीता से भिन्न परम्पराओं को तोड़ने वाली सीता है ,
राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हुए भी आदर्श पति मानने को तैयार नहीं ।
संस्कृत कवियों की परंपरा के अनुसार कोई अठारह सर्गों का महाकाव्य रचने के बाद ही महाकवि कहलाने का अधिकारी होता है किन्तु उन्होंने बिना एक भी महाकाव्य रचे मलयालम के महाकवि होने का सौभाग्य पाया । जो प्रेरणाएं एक महाकाव्य में भरी जा सकती थीं वे ही उन्होंने अपने 41 छंदों के ' वीण पुवु ' ( पतित कुसुम ) काव्य में भरकर दिखा दीं ।
उनका यह काव्य मलयालम साहित्य में अमर हो गया ।
14 October 2015
संकल्प के धनी ---------- श्री एच . जी . वेल्स
'आगे बढ़ने की अदम्य-आकांक्षा , आंतरिक उत्साह , ध्येय के प्रति अविचल निष्ठा मनुष्य को क्या से क्या बना डालते हैं , इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं ---- एच . जी . वेल्स ।
बचपन में एक दुर्घटना में उनकी एक टांग टूट गई थी , काफी इलाज के बाद भी ठीक नहीं हुई इस कारण उन्हें बहुत समय बिस्तर पर गुजारना पड़ता था । लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता का कभी रोना नहीं रोया , निराश नहीं हुए | दिल बहलाने के लिए अच्छी -अच्छी पुस्तकें पढ़ना आरम्भ
किया , साहित्य के प्रति उनकी रूचि बढ़ती गई , उनने अपनी भावनाओं को लेखनी का सहारा दिया
और एक दिन वह अंग्रेजी - साहित्य के विश्व - विख्यात लेखक बन गये ।
उनकी माँ गरीब थीं , अत: छोटी उम्र में वे एक कपड़े की दुकान पर काम करने लगे । काम करते
समय वे सोचते रहते थे कि कठिन से कठिन श्रम करूँगा और दुनिया को दिखा दूंगा कि भाग्य नहीं मनुष्य की कर्म निष्ठा प्रबल है । उनके ह्रदय में एक ऐसा व्यक्ति बनने की महत्वाकांक्षा थी
जो संसार प्रसिद्ध हो ---- जिसे सब आदर तथा श्रद्धा के साथ स्मरण करें और जो काल के भाल
पर अपने अमिट पद चिन्ह छोड़ जाये ।
इस दिशा में उन्होंने अपने प्रयत्न शुरू किये । सुबह से शाम तक वे दुकान पर काम करते शेष समय घर पर अध्ययन करते , दुकान पर भी पुस्तकें ले जाते , जितने समय ग्राहक नहीं आता वे अध्ययन करते । धीरे - धीरे उनने कहानियां लिखनी आरम्भ की ।
जब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि उनकी कहानियां लोगों को मनोरंजन एवं उल्लास देने के साथ उन्हें जीवन की एक दिशा देने में समर्थ हैं तब उन्होंने कहानियों का प्रकाशन आरम्भ कर दिया ।
जनता में उनकी कहानियों का भरपूर स्वागत हुआ इससे उनका उत्साह बढ़ा, अब उन्होंने उपन्यास लिखना आरम्भ किया इसमें भी उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई ।
अपने अदम्य साहस, प्रबल मनोकामना , महत्वाकांक्षा , लगन , उत्साह , कठिन श्रम तथा आत्मविश्वास के बल पर वे सफलता प्राप्त कर सके ।
बचपन में एक दुर्घटना में उनकी एक टांग टूट गई थी , काफी इलाज के बाद भी ठीक नहीं हुई इस कारण उन्हें बहुत समय बिस्तर पर गुजारना पड़ता था । लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता का कभी रोना नहीं रोया , निराश नहीं हुए | दिल बहलाने के लिए अच्छी -अच्छी पुस्तकें पढ़ना आरम्भ
किया , साहित्य के प्रति उनकी रूचि बढ़ती गई , उनने अपनी भावनाओं को लेखनी का सहारा दिया
और एक दिन वह अंग्रेजी - साहित्य के विश्व - विख्यात लेखक बन गये ।
उनकी माँ गरीब थीं , अत: छोटी उम्र में वे एक कपड़े की दुकान पर काम करने लगे । काम करते
समय वे सोचते रहते थे कि कठिन से कठिन श्रम करूँगा और दुनिया को दिखा दूंगा कि भाग्य नहीं मनुष्य की कर्म निष्ठा प्रबल है । उनके ह्रदय में एक ऐसा व्यक्ति बनने की महत्वाकांक्षा थी
जो संसार प्रसिद्ध हो ---- जिसे सब आदर तथा श्रद्धा के साथ स्मरण करें और जो काल के भाल
पर अपने अमिट पद चिन्ह छोड़ जाये ।
इस दिशा में उन्होंने अपने प्रयत्न शुरू किये । सुबह से शाम तक वे दुकान पर काम करते शेष समय घर पर अध्ययन करते , दुकान पर भी पुस्तकें ले जाते , जितने समय ग्राहक नहीं आता वे अध्ययन करते । धीरे - धीरे उनने कहानियां लिखनी आरम्भ की ।
जब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि उनकी कहानियां लोगों को मनोरंजन एवं उल्लास देने के साथ उन्हें जीवन की एक दिशा देने में समर्थ हैं तब उन्होंने कहानियों का प्रकाशन आरम्भ कर दिया ।
जनता में उनकी कहानियों का भरपूर स्वागत हुआ इससे उनका उत्साह बढ़ा, अब उन्होंने उपन्यास लिखना आरम्भ किया इसमें भी उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई ।
अपने अदम्य साहस, प्रबल मनोकामना , महत्वाकांक्षा , लगन , उत्साह , कठिन श्रम तथा आत्मविश्वास के बल पर वे सफलता प्राप्त कर सके ।
13 October 2015
प्रगति पथ के सफल पथिक ------- सिंक्लेयर लुईस
' पुरुषार्थ और साधना के बल पर इस दुनिया में सब कुछ साध्य है । भगवान की इस स्रष्टि में ऐसी कोई वस्तु या विशेषता नहीं है जो अलभ्य हो ' ।
कट रही पेड़ की डाली पर ही खड़े होकर कुल्हाड़ी चलाने वाले कालिदास संसार के महान विद्वान और नाटककार बन सकते हैं तो यह भी संभव है कि निष्ठापूर्वक प्रयत्न से बचपन के दब्बू , मूर्ख, साथियों से अपमान, तिरस्कार और उपहास झेलने वाले कुरूप हैरी संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार तथा प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता बन जाएँ ।
सिंक्लेयर लुईस का जन्म 1885 में हुआ था , इनके बचपन का नाम हैरी था ये दुबले पतले , व दब्बू थे , साथी इनका उपहास कर मजा लिया करते थे , इस कारण ये कुण्ठित होने लगे व सुस्त रहने लगे ।, इनके पिता भी इन्हें निकम्मा और कामचोर कहकर दुत्कारा करते थे । इस उपेक्षा से घबड़ाकर वे 10 वर्ष की उम्र में एक पत्र लिखकर घर छोड़कर भाग निकले , संयोग से पिता को वह पत्र मिल गया उनकी ममता जगी और वे प्यार से समझाकर पुत्र को वापस ले आये ।
परिवार का विश्वास और रचनात्मक दिशा पाकर वे पुस्तकें पढने लगे और जर्मन तथा हिब्रू भाषा सीख ली । इनके पिता धनवान थे , किन्तु व्यस्क होने पर इन्होने अपने खर्च का स्वयं प्रबंध करने के लिए काम तलाशने का निश्चय किया ।
सिंक्लेयर ने सबसे पहला काम किया लकड़ी चीरने का , फिर घास भी काटी , एक होटल में क्लर्क रहे , प्रेस में भी काम किया , इस प्रकार आत्म निर्भरता की ओर बढ़ने लगे ।
सिंक्लेयर ने कवितायेँ लिखकर पत्र-पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया , शुरू में कई वर्षों तक उनकी रचनाएँ लौटकर आती रहीं लेकिन वे निराश नहीं हुए , उन्होंने अपनी डायरी में लिखा ---- " यदि मैं हार मान लेता हूँ तो कुछ नहीं कर सकूँगा , निष्ठापूर्वक प्रयत्न करते रहना ही तो सफलता का राज है "
चार , छह वर्षों के अनवरत प्रयास के बाद उनकी पहली रचना स्वीकृत हुई , इसके बाद लगातार सफलताएँ मिलने लगीं । उनकी पहली कहानी अमेरिका के विख्यात पत्र में छपी , इस एक कहानी से ही वे लोकप्रिय कथाकार बन गये , फिर उन्होंने कई रचनाएँ , कहानियां व उपन्यास लिखे जो काफी प्रसिद्ध हुए , देखी और अनुभव की गई बातों को कल्पना का रंग देकर यथार्थ में चित्रित करने की कला उन्हें आ गई । अपने प्रारंभिक जीवन में वर्षों तक उपेक्षित रहने वाले सिंक्लेयर लुईस सफलता के सर्वोच्च शिखरं पर पहुंचे ।
कट रही पेड़ की डाली पर ही खड़े होकर कुल्हाड़ी चलाने वाले कालिदास संसार के महान विद्वान और नाटककार बन सकते हैं तो यह भी संभव है कि निष्ठापूर्वक प्रयत्न से बचपन के दब्बू , मूर्ख, साथियों से अपमान, तिरस्कार और उपहास झेलने वाले कुरूप हैरी संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार तथा प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता बन जाएँ ।
सिंक्लेयर लुईस का जन्म 1885 में हुआ था , इनके बचपन का नाम हैरी था ये दुबले पतले , व दब्बू थे , साथी इनका उपहास कर मजा लिया करते थे , इस कारण ये कुण्ठित होने लगे व सुस्त रहने लगे ।, इनके पिता भी इन्हें निकम्मा और कामचोर कहकर दुत्कारा करते थे । इस उपेक्षा से घबड़ाकर वे 10 वर्ष की उम्र में एक पत्र लिखकर घर छोड़कर भाग निकले , संयोग से पिता को वह पत्र मिल गया उनकी ममता जगी और वे प्यार से समझाकर पुत्र को वापस ले आये ।
परिवार का विश्वास और रचनात्मक दिशा पाकर वे पुस्तकें पढने लगे और जर्मन तथा हिब्रू भाषा सीख ली । इनके पिता धनवान थे , किन्तु व्यस्क होने पर इन्होने अपने खर्च का स्वयं प्रबंध करने के लिए काम तलाशने का निश्चय किया ।
सिंक्लेयर ने सबसे पहला काम किया लकड़ी चीरने का , फिर घास भी काटी , एक होटल में क्लर्क रहे , प्रेस में भी काम किया , इस प्रकार आत्म निर्भरता की ओर बढ़ने लगे ।
सिंक्लेयर ने कवितायेँ लिखकर पत्र-पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया , शुरू में कई वर्षों तक उनकी रचनाएँ लौटकर आती रहीं लेकिन वे निराश नहीं हुए , उन्होंने अपनी डायरी में लिखा ---- " यदि मैं हार मान लेता हूँ तो कुछ नहीं कर सकूँगा , निष्ठापूर्वक प्रयत्न करते रहना ही तो सफलता का राज है "
चार , छह वर्षों के अनवरत प्रयास के बाद उनकी पहली रचना स्वीकृत हुई , इसके बाद लगातार सफलताएँ मिलने लगीं । उनकी पहली कहानी अमेरिका के विख्यात पत्र में छपी , इस एक कहानी से ही वे लोकप्रिय कथाकार बन गये , फिर उन्होंने कई रचनाएँ , कहानियां व उपन्यास लिखे जो काफी प्रसिद्ध हुए , देखी और अनुभव की गई बातों को कल्पना का रंग देकर यथार्थ में चित्रित करने की कला उन्हें आ गई । अपने प्रारंभिक जीवन में वर्षों तक उपेक्षित रहने वाले सिंक्लेयर लुईस सफलता के सर्वोच्च शिखरं पर पहुंचे ।
12 October 2015
केवल गणित के विशेषज्ञ ही नहीं एक सर्वांगीण विचारक एवं तत्व - ज्ञानी ------- पाइथागोरस
पाइथागोरस का जीवन भर यही प्रयास रहा कि चित से अज्ञान हटे और शरीर से रोग मिटे । उनका कहना था कि सत्य , प्रेम और करुणा के पथ पर चलने से अज्ञान हट जाता है तथा सरल और प्रमाणिक जीवन जीने एवं प्राणी मात्र की सेवा करने से शरीर के रोग मिट जाते हैं ।
पाइथागोरस गणित , विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करते थे ।
उनकी करुणा केवल मानव तक सीमित नहीं थी बल्कि प्राणिमात्र के लिए उनका ह्रदय करुणा बरसाता था । वे कहते थे पशु - पक्षी मानव के छोटे भाई हैं , किसी भी प्रकार की हिंसा का वे समर्थन नहीं करते थे । कसाई की दुकान उनके लिए सर्वथा वर्जित थी । उन दिनों यूनान में
पशु -- बलि की प्रथा प्रचलित थी लेकिन पाइथागोरस की पूजा वेदी पर पशु का बलिदान करने से नहीं फल फूल अर्पित करने से होती थी ।
उन दिनों यूनान में गुलाम रखने की प्रथा थी , पाइथागोरस धनी परिवार के थे किन्तु उन्होंने धनी परिवार से विरासत में मिले सभी गुलामों को मुक्त कर दिया ।
उनका कहना था ----- मनुष्य को हमेशा भलाई करने की आदत डालनी चाहिए | इससे आत्म विकास के द्वारा आप उस मार्ग पर पहुंचेंगे जो आपको मानवीय कमजोरियों से दूर ले जायेगा ।
सच्चा आनंद औरों की सेवा करने में तथा उनके जीवन में सुख लाने में है ।
9 October 2015
मनुष्य की संकल्प शक्ति का अनोखा उदाहरण------ स्टीफेनकेन
एक व्यक्ति जिसने शिक्षा भी पूरी न पायी हो---- जिसका शरीर भी उसका पूरा साथ नहीं देता हो , अपने संकल्प और परिश्रम के बल पर किस प्रकार अपने ध्येय में सफल हो जाता है स्टीफेन केन उसका एक अनुपम उदाहरण हैं । इनका जन्म न्यूजर्सी न्यूयार्क में 18 7 1 में हुआ था ।
स्टीफेन केन की यह विशेषता थी कि वे जो कुछ लिखते थे वह उनकी गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती थी ।
उनका पहला उपन्यास ' मेगी -- ए गर्ल ऑफ द स्ट्रीट ' 1891 में पूरा हो गया । इसमें वैभवशाली अमेरिका-वासियों की उस छटपटाहट का अंकन है जो भौतिक उपलब्धियों के प्राप्त होने के बाद भी बनी रहती है । इस उपन्यास को लोकप्रियता नहीं मिली , भौतिकता प्रेमी समाज से उपेक्षा मिली लेकिन वह निराश नहीं हुए ' उन्होंने पूरे उत्साह और मनोयोग से अपना लेखन -क्रम जारी रखा । और एक दिन उन्होंने ऐसा उपन्यास लिखा जिसने उनका नाम साहि त्य - जगत में चमका दिया इस उपन्यास का नाम है ' ,The Red Badge Of Courage ' --- युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह मार्मिक उपन्यास युद्ध के प्रति मनुष्य के मन में तीव्र घ्रणा तो उपजाता ही है साथ ही प्रेम व मानवता का स्वर्गीय सन्देश भी देता है ।
1897 में वे फ्लोरिडा चले गये , वहां उनका जहाज नष्ट हो गया और कुछ यात्रियों के साथ एक खुली नाव में चार दिन बहने के बाद बचाया जा सका । मृत्यु से पूर्व मनुष्य की क्या मन: स्थिति हो जाती है , वह किस प्रकार अपने शुभ कर्मों का स्मरण कर हर्षित तथा दुष्कर्मों को याद कर दुखित होता है । इसका सुन्दर वर्णन उन्होंने इस दुर्घटना का आधार लेकर लिखी ' दि ओपन बोट '
नामक कहानी संग्रह में किया है । यह अंग्रेजी भाषा की छोटी कहानियों की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक मानी
जाती है ।
स्टीफेन केन केवल उनतीस वर्ष जिये, उन्हें क्षय रोग हो गया था । उनतीस वर्षों में उन्होंने जो कुछ कर दिखाया वह मनुष्य की संकल्प शक्ति का अनोखा उदाहरण है ।
स्टीफेन केन की यह विशेषता थी कि वे जो कुछ लिखते थे वह उनकी गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती थी ।
उनका पहला उपन्यास ' मेगी -- ए गर्ल ऑफ द स्ट्रीट ' 1891 में पूरा हो गया । इसमें वैभवशाली अमेरिका-वासियों की उस छटपटाहट का अंकन है जो भौतिक उपलब्धियों के प्राप्त होने के बाद भी बनी रहती है । इस उपन्यास को लोकप्रियता नहीं मिली , भौतिकता प्रेमी समाज से उपेक्षा मिली लेकिन वह निराश नहीं हुए ' उन्होंने पूरे उत्साह और मनोयोग से अपना लेखन -क्रम जारी रखा । और एक दिन उन्होंने ऐसा उपन्यास लिखा जिसने उनका नाम साहि त्य - जगत में चमका दिया इस उपन्यास का नाम है ' ,The Red Badge Of Courage ' --- युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह मार्मिक उपन्यास युद्ध के प्रति मनुष्य के मन में तीव्र घ्रणा तो उपजाता ही है साथ ही प्रेम व मानवता का स्वर्गीय सन्देश भी देता है ।
1897 में वे फ्लोरिडा चले गये , वहां उनका जहाज नष्ट हो गया और कुछ यात्रियों के साथ एक खुली नाव में चार दिन बहने के बाद बचाया जा सका । मृत्यु से पूर्व मनुष्य की क्या मन: स्थिति हो जाती है , वह किस प्रकार अपने शुभ कर्मों का स्मरण कर हर्षित तथा दुष्कर्मों को याद कर दुखित होता है । इसका सुन्दर वर्णन उन्होंने इस दुर्घटना का आधार लेकर लिखी ' दि ओपन बोट '
नामक कहानी संग्रह में किया है । यह अंग्रेजी भाषा की छोटी कहानियों की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक मानी
जाती है ।
स्टीफेन केन केवल उनतीस वर्ष जिये, उन्हें क्षय रोग हो गया था । उनतीस वर्षों में उन्होंने जो कुछ कर दिखाया वह मनुष्य की संकल्प शक्ति का अनोखा उदाहरण है ।
8 October 2015
संसार के सारे प्राणियों कों अपना सहोदर समझने वाले ----- महात्मा फ्रांसिस
महात्मा फ्रांसिस जैसे सन्त कहीं भी हों वे मानव मात्र की वंदना के पात्र है ।
एक दिन वे धर्म प्रचार करते घूम रहे थे कि उनकी द्रष्टि एक बूढ़े पर पड़ी । सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए वह बाजार में बेचने के लिए जा रहा था , बहुत कमजोर व गरीब था । महात्मा फ्रांसिस तुरंत उस बूढ़े के पास गये और उसका बोझ अपने कंधे पर रखकर गंतव्य तक पहुँचा आये । उनके अनुयायियों में से ने चाहा कि बोझ उनके कन्धों पर रख दिया जाये , पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए । उन्होंने स्पष्ट कह दिया ----- पुण्य, परमार्थ और सेवा का जो अवसर उन्हें मिला है वे इसमें किसी को भागीदार नहीं बनायेंगे | लोग अपने लिए राह चलते इस प्रकार के अवसर खोजें और पुण्य लाभ करें । संसार में सेवा करने के अवसर कदम - कदम पर मिल सकते हैं ।
महात्मा फ्रांसिस में दया का भाव बचपन से था वह जनसेवा से पराकाष्ठा पर पहुंचकर आध्यात्मिक आनंद बन गया था ।
एक दिन उनने देखा एक लड़का बहुत से पक्षी एक पिंजरे में बंद कर बेचने जा रहा था ।
संत फ्रांसिस उसके पास गये तो लड़के ने कहा कि इन पक्षियों की कीमत से उसका तीन दिन का भोजन चल जायेगा । महात्मा फ्रांसिस ने कहा ----- " मैं तुम्हे छ दिन तक अपने पास से एक समय का भोजन दिया करूँगा ये पक्षी मुझे दे दो । " लड़का देने को तैयार हो गया । महात्मा फ्रांसिस ने सारे पक्षी लेकर अपने हाथ से उड़ा दिए और उन्हें देख बड़ी देर तक आनंदित होते रहे । अपने वचन के अनुसार छ: दिन तक अपना भोजन लड़के को देते रहे और स्वयं भूखे रहे ।
यह कठोर उपवास करते हुए भी उनके चेहरे पर प्रसन्नता और ताजगी बनी रहती थी । परोपकार
के लिए कष्ट उठाने में उन्हें अपार आनंद आता था ।
एक दिन वे धर्म प्रचार करते घूम रहे थे कि उनकी द्रष्टि एक बूढ़े पर पड़ी । सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए वह बाजार में बेचने के लिए जा रहा था , बहुत कमजोर व गरीब था । महात्मा फ्रांसिस तुरंत उस बूढ़े के पास गये और उसका बोझ अपने कंधे पर रखकर गंतव्य तक पहुँचा आये । उनके अनुयायियों में से ने चाहा कि बोझ उनके कन्धों पर रख दिया जाये , पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए । उन्होंने स्पष्ट कह दिया ----- पुण्य, परमार्थ और सेवा का जो अवसर उन्हें मिला है वे इसमें किसी को भागीदार नहीं बनायेंगे | लोग अपने लिए राह चलते इस प्रकार के अवसर खोजें और पुण्य लाभ करें । संसार में सेवा करने के अवसर कदम - कदम पर मिल सकते हैं ।
महात्मा फ्रांसिस में दया का भाव बचपन से था वह जनसेवा से पराकाष्ठा पर पहुंचकर आध्यात्मिक आनंद बन गया था ।
एक दिन उनने देखा एक लड़का बहुत से पक्षी एक पिंजरे में बंद कर बेचने जा रहा था ।
संत फ्रांसिस उसके पास गये तो लड़के ने कहा कि इन पक्षियों की कीमत से उसका तीन दिन का भोजन चल जायेगा । महात्मा फ्रांसिस ने कहा ----- " मैं तुम्हे छ दिन तक अपने पास से एक समय का भोजन दिया करूँगा ये पक्षी मुझे दे दो । " लड़का देने को तैयार हो गया । महात्मा फ्रांसिस ने सारे पक्षी लेकर अपने हाथ से उड़ा दिए और उन्हें देख बड़ी देर तक आनंदित होते रहे । अपने वचन के अनुसार छ: दिन तक अपना भोजन लड़के को देते रहे और स्वयं भूखे रहे ।
यह कठोर उपवास करते हुए भी उनके चेहरे पर प्रसन्नता और ताजगी बनी रहती थी । परोपकार
के लिए कष्ट उठाने में उन्हें अपार आनंद आता था ।
7 October 2015
धार्मिक क्रांति के सूत्र संचालक ------- मार्टिन लूथर
मार्टिन लूथर का जीवन वृत ईसाई मतावलम्बियों के लिए ही नहीं सब धर्मावलम्बियों को यह दिग्दर्शन कराने के लिए पर्याप्त है कि धार्मिक आस्था तो अनिवार्य है किन्तु अंध श्रद्धा , अन्धविश्वास नहीं । धर्म पर जब भी स्वार्थी तत्व छाने लगे तब उसमे सुधार -क्रांति भी आवश्यक है । उनकी रूचि धर्म -प्रचारक बनने की थी , अत: अध्ययन सम प्त करने के बाद वे जर्मनी के आगस्टिनन साधु संघ में प्रविष्ट हो गये ।
वे गांवों के गिरजाघरों में उपदेश देने जाते , कई साधु-संस्थानों की भोजन व प्रार्थना आदि की देखरेख भी करते थे, छोटे पादरियों को पढ़ाने का काम भी उन्हें करना पड़ता था । साधु होने का अर्थ वे अकर्मण्य होना नहीं वरन नि:स्वार्थ भाव से दिन -रात काम करना मानते थे इतना काम करने के बाद भी वे अपनी नियमित दिनचर्या में से लेखन के लिए समय निकाल लेते थे । उन्होंने पुस्तकाकार के कोई 300 0 0 पत्र अपने जीवन काल में लिखे ।
बाइबिल तथा अन्य धर्म ग्रंथों के गूढ़ अध्ययन तथा साधु का संयमित जीवन जीते हुए
वे धर्म की उस शक्ति से परिचित हो चुके थे जो मनुष्य को सन्मार्ग पर चलाती है जिससे धरती पर सुख शान्ति की अभिवृद्धि होती है । किन्तु वे देख रहे थे कि ईसाई जगत में धर्म के नाम पर धर्माचार्य आशीर्वाद और वरदानो की दुकाने लगाये बैठे थे और दोनों हाथों से सोना -चांदी लूट रहे थे ।
मार्टिन लूथर ने जनता को इस धार्मिक अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने का संकल्प ले लिया । उन्हें विश्वास था कि सत्य की शक्ति सर्वोपरि है , उसके आगे बड़ी -बड़ी ताकतों को भी झुकना पड़ता है ।
उन्होंने अपने प्रवचनों उपदेशों में जोरदार शब्दों में यह बात कहनी आरम्भ की --- " व्यक्ति के कर्म प्रमुख हैं , कर्मों के अनुसार ही दयालु और न्यायकारी ईश्वर दंड और उपहार देता है । स्वर्ग तथा पापों से मुक्ति शुभ कर्मों द्वारा ही मिल सकती है , पैसों से खरीदी गई ' ईश्वर की कृपा ' व ' पापों से मुक्ति ' कुछ काम देने वाली नहीं हैं ।
लूथर ने यूरोप में एक नयी विचारधारा को जन्म दिया , उन्होंने ' प्रोटेस्टेन्ट ' सम्प्रदाय की नींव डाली । उनकी उत्पन्न की हुई धार्मिक क्रांति आग की तरह ईसाई-जगत में फ़ैल गई । इस क्रांति से करोडो पददलित व्यक्तियों का उद्धार हुआ । वे लोग जो अपने को सदा पापग्रस्त तथा दीन-हीन मानते थे , उन्हें भी अपने मोक्ष का मार्ग दि खाई देने लगा ।
वे गांवों के गिरजाघरों में उपदेश देने जाते , कई साधु-संस्थानों की भोजन व प्रार्थना आदि की देखरेख भी करते थे, छोटे पादरियों को पढ़ाने का काम भी उन्हें करना पड़ता था । साधु होने का अर्थ वे अकर्मण्य होना नहीं वरन नि:स्वार्थ भाव से दिन -रात काम करना मानते थे इतना काम करने के बाद भी वे अपनी नियमित दिनचर्या में से लेखन के लिए समय निकाल लेते थे । उन्होंने पुस्तकाकार के कोई 300 0 0 पत्र अपने जीवन काल में लिखे ।
बाइबिल तथा अन्य धर्म ग्रंथों के गूढ़ अध्ययन तथा साधु का संयमित जीवन जीते हुए
वे धर्म की उस शक्ति से परिचित हो चुके थे जो मनुष्य को सन्मार्ग पर चलाती है जिससे धरती पर सुख शान्ति की अभिवृद्धि होती है । किन्तु वे देख रहे थे कि ईसाई जगत में धर्म के नाम पर धर्माचार्य आशीर्वाद और वरदानो की दुकाने लगाये बैठे थे और दोनों हाथों से सोना -चांदी लूट रहे थे ।
मार्टिन लूथर ने जनता को इस धार्मिक अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने का संकल्प ले लिया । उन्हें विश्वास था कि सत्य की शक्ति सर्वोपरि है , उसके आगे बड़ी -बड़ी ताकतों को भी झुकना पड़ता है ।
उन्होंने अपने प्रवचनों उपदेशों में जोरदार शब्दों में यह बात कहनी आरम्भ की --- " व्यक्ति के कर्म प्रमुख हैं , कर्मों के अनुसार ही दयालु और न्यायकारी ईश्वर दंड और उपहार देता है । स्वर्ग तथा पापों से मुक्ति शुभ कर्मों द्वारा ही मिल सकती है , पैसों से खरीदी गई ' ईश्वर की कृपा ' व ' पापों से मुक्ति ' कुछ काम देने वाली नहीं हैं ।
लूथर ने यूरोप में एक नयी विचारधारा को जन्म दिया , उन्होंने ' प्रोटेस्टेन्ट ' सम्प्रदाय की नींव डाली । उनकी उत्पन्न की हुई धार्मिक क्रांति आग की तरह ईसाई-जगत में फ़ैल गई । इस क्रांति से करोडो पददलित व्यक्तियों का उद्धार हुआ । वे लोग जो अपने को सदा पापग्रस्त तथा दीन-हीन मानते थे , उन्हें भी अपने मोक्ष का मार्ग दि खाई देने लगा ।
5 October 2015
हिन्दू-जाति के जागरण कर्ता ------- स्वामी दयानन्द सरस्वती
स्वामीजी के जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य हिन्दू जाति में प्रचलित हानिकारक विश्वासों, कुरीतियों और रूढ़ियों को मिटा कर उनके स्थान पर समयोचित लाभकारी प्रथाओं का प्रचार करना था ।
धर्म-सुधार का कार्य करते हुए स्वामीजी के सम्मुख अनेक प्रलोभन आये, पर वे कभी अपने सिद्धांतो से टस से मस नहीं हुए । एक दिन एकान्त में उदयपुर के महाराणा उनसे मिले तो कहने लगे----
" स्वामीजी ! आप मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें तो उदयपुर के एकलिंग महादेव के मंदिर की गद्दी आपकी ही है । वैसे हमारा समस्त राज्य ही उस मंदिर में समर्पित है पर मंदिर में राज्य का जितना भाग लगा हुआ है उसको भी लाखों रूपये की आय है । इतना भारी ऐश्वर्य आपका हो जायेगा ओर समस्त राज्य के आप गुरु माने जायेंगे । "
यह सुनते ही स्वामीजी रोषपूर्वक बोले ----- " महराज ! आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्मा से विमुख करना चाहते हैं, उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं ? राणाजी ! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ वह मुझे अनन्त ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता । फिर मुझसे ऐसे शब्द मत कहियेगा । मेरी धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती । "
स्वामी दयानन्द जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिये गए । काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था ।
गुजरात के एक वकील ने उनसे कहा कि आप मूर्तिपूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकरजी का अवतार मानने लगें । और भी अनेक स्थानों में उनसे वैभवशाली मन्दिरों और मठों का अध्यक्ष बनकर रहने का आग्रह किया गया ।
स्वामीजी ने सदैव यही उत्तर दिया कि मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करके सुधार करना है न कि धन-सम्पति इकट्ठी करके सांसारिक भोगों में लिप्त रहना । मैं परमात्मा के दिखाये श्रेष्ठ मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता ।
धर्म-सुधार का कार्य करते हुए स्वामीजी के सम्मुख अनेक प्रलोभन आये, पर वे कभी अपने सिद्धांतो से टस से मस नहीं हुए । एक दिन एकान्त में उदयपुर के महाराणा उनसे मिले तो कहने लगे----
" स्वामीजी ! आप मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें तो उदयपुर के एकलिंग महादेव के मंदिर की गद्दी आपकी ही है । वैसे हमारा समस्त राज्य ही उस मंदिर में समर्पित है पर मंदिर में राज्य का जितना भाग लगा हुआ है उसको भी लाखों रूपये की आय है । इतना भारी ऐश्वर्य आपका हो जायेगा ओर समस्त राज्य के आप गुरु माने जायेंगे । "
यह सुनते ही स्वामीजी रोषपूर्वक बोले ----- " महराज ! आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्मा से विमुख करना चाहते हैं, उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं ? राणाजी ! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ वह मुझे अनन्त ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता । फिर मुझसे ऐसे शब्द मत कहियेगा । मेरी धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती । "
स्वामी दयानन्द जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिये गए । काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था ।
गुजरात के एक वकील ने उनसे कहा कि आप मूर्तिपूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकरजी का अवतार मानने लगें । और भी अनेक स्थानों में उनसे वैभवशाली मन्दिरों और मठों का अध्यक्ष बनकर रहने का आग्रह किया गया ।
स्वामीजी ने सदैव यही उत्तर दिया कि मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करके सुधार करना है न कि धन-सम्पति इकट्ठी करके सांसारिक भोगों में लिप्त रहना । मैं परमात्मा के दिखाये श्रेष्ठ मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता ।
3 October 2015
सच्चे जन-सेवक ------- बाबा राघवदास
बाबा राघवदास सच्चे जनसेवक थे । उनकी बातें केवल भाषण देने वालों की तरह श्रोताओं से तालियाँ पिटवाने की युक्ति मात्र नहीं थीं, वरन उन्होंने गरीब से गरीब लोगों के बीच रहकर कार्य किया ।
गोरखपुर क्षेत्र में तो वह देवता की तरह पूजे जाते थे ।
अनेक व्यक्तियों की तरह वे कुर्सीनशीन नेता न थे । जनता पर जहाँ कहीं भी संकट आया, वे भाषण देने के बजाय स्वयं सेवा के लिए दौड़े । 15 जनवरी 1934 को जब बिहार में भूकम्प आया तो राघवदास जी अपनी विशेष टोली के साथ टूटे हुए मकानों के मलबे को हटाक र उसमे से लाशों को निकालने, घायलों की चिकित्सा करने, भूख-प्यास से पीड़ित लोगों को खाद्य सामग्री और वस्त्र पहुँचाने का कार्य करने लगे । वे निरन्तर बचाव कार्य में लगे रहे औ र एक महीने के भीतर हजारों लोगों के कष्ट दूर किये |
बिहार का काम पूरा नहीं हुआ कि गोरखपुर में जल-प्रलय की स्थिति आ गई । 1938 की बाढ़ में 2250 गाँव बह गये , और भी हजारों गांवों में पानी भरा था । उस समय बाबा जी का सेवा कार्य देखने लायक था । बहते मनुष्यों और पशुओं को बचाने के लिए जल में कूद पड़े । वे स्वयं चना खा लेते थे पर बाढ़ पीड़ितों के लिए अक्षय भण्डार खोल दिया । उनकी अपील पर बर्मा, इन्डोचीन, श्याम, अराकान, फारस तक से प्रवासी भारतीयों ने सहायता भेजी । गाँधीजी ने उनको अहमदाबाद से 70 गाँठ कम्बल भिजवाया । मालवीयजी ने निराश्रित मवेशियों के लिए मिर्जापुर के जंगलों में आश्रय मिलने की व्यवस्था की ।
1935-36 चुनावों की घोषणा होने पर सवारी ने होने पर वे 'पैदल ' ही ' तुलसी दल ' बाँटने निकले और 800 मील की पैदल यात्रा की । नतीजा यह हुआ कि बड़े-बड़े राजाओं को इस लंगोटी वाले साधु के मुकाबले में हारना पड़ा । इस प्रकार उन्होंने यह दिखा दिया कि सच्चे सेवा भाव के सम्मुख धन-बल
ओर रौब-दाब की शक्ति प्रभाव रहित हो जाते हैं ।
गोरखपुर क्षेत्र में तो वह देवता की तरह पूजे जाते थे ।
अनेक व्यक्तियों की तरह वे कुर्सीनशीन नेता न थे । जनता पर जहाँ कहीं भी संकट आया, वे भाषण देने के बजाय स्वयं सेवा के लिए दौड़े । 15 जनवरी 1934 को जब बिहार में भूकम्प आया तो राघवदास जी अपनी विशेष टोली के साथ टूटे हुए मकानों के मलबे को हटाक र उसमे से लाशों को निकालने, घायलों की चिकित्सा करने, भूख-प्यास से पीड़ित लोगों को खाद्य सामग्री और वस्त्र पहुँचाने का कार्य करने लगे । वे निरन्तर बचाव कार्य में लगे रहे औ र एक महीने के भीतर हजारों लोगों के कष्ट दूर किये |
बिहार का काम पूरा नहीं हुआ कि गोरखपुर में जल-प्रलय की स्थिति आ गई । 1938 की बाढ़ में 2250 गाँव बह गये , और भी हजारों गांवों में पानी भरा था । उस समय बाबा जी का सेवा कार्य देखने लायक था । बहते मनुष्यों और पशुओं को बचाने के लिए जल में कूद पड़े । वे स्वयं चना खा लेते थे पर बाढ़ पीड़ितों के लिए अक्षय भण्डार खोल दिया । उनकी अपील पर बर्मा, इन्डोचीन, श्याम, अराकान, फारस तक से प्रवासी भारतीयों ने सहायता भेजी । गाँधीजी ने उनको अहमदाबाद से 70 गाँठ कम्बल भिजवाया । मालवीयजी ने निराश्रित मवेशियों के लिए मिर्जापुर के जंगलों में आश्रय मिलने की व्यवस्था की ।
1935-36 चुनावों की घोषणा होने पर सवारी ने होने पर वे 'पैदल ' ही ' तुलसी दल ' बाँटने निकले और 800 मील की पैदल यात्रा की । नतीजा यह हुआ कि बड़े-बड़े राजाओं को इस लंगोटी वाले साधु के मुकाबले में हारना पड़ा । इस प्रकार उन्होंने यह दिखा दिया कि सच्चे सेवा भाव के सम्मुख धन-बल
ओर रौब-दाब की शक्ति प्रभाव रहित हो जाते हैं ।
2 October 2015
महात्मा गाँधी को ' महात्मा ' की पदवी देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द
महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे, उन दिनों वहां भारतीयों के साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार किया जाता था । गाँधीजी ने इस अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए ' सत्याग्रह आन्दोलन '
किया । जब तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे तब उनको यहां के सामयिक पत्रों में ' कर्मवीर गाँधी '
लिखा जाता था ।
उन्ही दिनों गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारियों ने अपने भोजन में से दूध का व्यवहार बन्द करके और एक बाँध पर मजदूरी द्वारा 1500 रुपये इकट्ठे करके सत्याग्रह आन्दोलन की सहायतार्थ अफ्रीका भेजे थे । यह रुपया गांधीजी को ऐसी आवश्यकता के अवसर पर मिला जबकि आन्दोलन का काम धन की कमी से अटक रहा था ।
यह सहायता पाकर उन्होंने स्वामीजी को पत्र भेजा कि--- आपके शिष्यों ने सत्याग्रहियों के लिए जो कार्य किया है उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ और आपके प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । '
1916 में जब गांधीजी भारत आये तो बिना सूचना दिए ही गुरुकुल कांगड़ी पहुंचे । जब वह श्रद्धानन्द जी की कुटिया में गए तो आदर और श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होने स्वामीजी के पैर छुये । जब स्वामीजी ने परिचय पूछा तो उत्तर मिला----- " मैं हूँ आपका छोटा भाई मोहनदास कर्मचन्द गाँधी । स्वामीजी ने पुलकित होकर गाँधीजी को गले लगा लिया और बड़े प्रेम से उनको
' महात्मा ' कहकर पुकारा । तब से गांधीजी ' महात्मा ' के नाम से प्रसिद्ध हो गये |
महात्मा गाँधी, स्वामी श्रद्धानन्द जी का सदा एक महापुरुष के समान आदर करते थे । स्वामीजी के बलिदान का समाचार पाकर गांधीजी ने कहा था ---- ' वे वीरता और साहस के मूर्तरूप थे । वे वीर के सामान जिये और वीर के समान मरे । उनकी समस्त जिन्दगी शानदार थी और अंत भी वैसा ही शानदार हुआ । काश ! मुझे भी स्वामी श्रद्धानन्द की तरह शानदार मौत नसीब हो । "
संयोग से गाँधीजी की यह अभिलाषा ठीक इसी रुप में पूरी हुई । गोडसे ने स्वयं अमिट कलंक
ग्रहण करके महात्मा गाँधी को परमपद का अधिकारी बना दिया ।
किया । जब तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे तब उनको यहां के सामयिक पत्रों में ' कर्मवीर गाँधी '
लिखा जाता था ।
उन्ही दिनों गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारियों ने अपने भोजन में से दूध का व्यवहार बन्द करके और एक बाँध पर मजदूरी द्वारा 1500 रुपये इकट्ठे करके सत्याग्रह आन्दोलन की सहायतार्थ अफ्रीका भेजे थे । यह रुपया गांधीजी को ऐसी आवश्यकता के अवसर पर मिला जबकि आन्दोलन का काम धन की कमी से अटक रहा था ।
यह सहायता पाकर उन्होंने स्वामीजी को पत्र भेजा कि--- आपके शिष्यों ने सत्याग्रहियों के लिए जो कार्य किया है उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ और आपके प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । '
1916 में जब गांधीजी भारत आये तो बिना सूचना दिए ही गुरुकुल कांगड़ी पहुंचे । जब वह श्रद्धानन्द जी की कुटिया में गए तो आदर और श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होने स्वामीजी के पैर छुये । जब स्वामीजी ने परिचय पूछा तो उत्तर मिला----- " मैं हूँ आपका छोटा भाई मोहनदास कर्मचन्द गाँधी । स्वामीजी ने पुलकित होकर गाँधीजी को गले लगा लिया और बड़े प्रेम से उनको
' महात्मा ' कहकर पुकारा । तब से गांधीजी ' महात्मा ' के नाम से प्रसिद्ध हो गये |
महात्मा गाँधी, स्वामी श्रद्धानन्द जी का सदा एक महापुरुष के समान आदर करते थे । स्वामीजी के बलिदान का समाचार पाकर गांधीजी ने कहा था ---- ' वे वीरता और साहस के मूर्तरूप थे । वे वीर के सामान जिये और वीर के समान मरे । उनकी समस्त जिन्दगी शानदार थी और अंत भी वैसा ही शानदार हुआ । काश ! मुझे भी स्वामी श्रद्धानन्द की तरह शानदार मौत नसीब हो । "
संयोग से गाँधीजी की यह अभिलाषा ठीक इसी रुप में पूरी हुई । गोडसे ने स्वयं अमिट कलंक
ग्रहण करके महात्मा गाँधी को परमपद का अधिकारी बना दिया ।
1 October 2015
हिन्दू धर्म के पंच महाव्रत ------ महात्मा गाँधी
अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य ------ इनको हिन्दू धर्म के पंच महाव्रत माना गया है----- इन्ही पांच स्तम्भों पर गाँधीजी का जीवन और दर्शन टिका हुआ था ।
पर वह उनकी उस व्याख्या को नहीं मानते थे जो कि पुरातन-पंथी किया करते हैं, वरन वे इन सब पर एक बुद्धिवादी वैज्ञानिक की द्रष्टि से विचार करते थे ।
ब्रह्मचर्य के विषय में उन्होंने ऐसा ही द्रष्टिकोण अपनाया था ------- गाँधीजी हर तरह से स्त्रियों से दूर रहकर, उनका ख्याल भी दिल में न उठे ऐसा वातावरण बनाकर, ब्रह्मचर्य के पालन करने को कुछ भी महत्व नहीं देते थे । उनका कहना था वर्तमान युग की सामाजिक व्यवस्था में तो यह सम्भव भी नहीं है और मूर्खतापूर्ण भी समझा जायेगा ।
उन्होंने देखा कि कितने ही यूरोपियन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, पर स्त्रियों से दूर रहने की बात को न तो वे जानते हैं और न ही उसे महत्व देते हैं ।
गाँधीजी तो कहते थे कि मनुष्य स्त्रियों में रहे, उनके कार्यों में उसी प्रकार सहयोग करता रहे, जैसे पुरुषों से करता है और फिर भी किसी प्रकार की वासना या दुर्भावना उसके मन से न उठे वही सच्चा ब्रह्मचारी है ।
गाँधीजी और बा का दाम्पत्य जीवन कितना उच्च कोटि का और भारत के प्राचीनतम धार्मिक आदर्शों के अनुकूल था, इसकी चर्चा करते हुए श्री विनोबा ने अपने संस्मरण में कहा है -------
" बा और बापू का जो संबंध था वह अवर्णनीय था । अपने यहां शास्त्रकारों ने विवाह के समय एक विधि बताई है ----- वशिष्ठ और अरुन्धती का दर्शन करना । आकाश में ये दो तारिकाएं हैं । भारत के अधिकांश ऋषि कुछ समय बाद सन्यास लेकर पत्नी से पृथक रहकर लोक-सेवा करते थे, पर वशिष्ठ और अरुन्धती सदैव एक साथ रहे । कारण यह कि वे एक दूसरे के पूरक थे, बाधक नहीं ।
अरुन्धती का अर्थ ही है--- जो मार्ग में बाधा खड़ी न करे ।
पति ऊँचा चढ़ने वाला हो तो वह भी उसके साथ ऊँचा चढ़ने को तैयार रहे । बा और बापू ऐसा ही करते थे । बापू जेल में जाते थे तो बा भी जेल मे, बापू सत्याग्रह करते तो बा भी सत्याग्रह करतीं, वह जो भी करें बा उसमे उनके साथ रहती थीं । उनके अच्छे कामों में वह रूकावट डालने वाली न थीं । इसी से हम उनको वर्तमान समय में वशिष्ठ और अरुन्धती का उदाहरण मान सकते हैं । "
बा के लिए गाँधीजी ने कहा था ---- " मेरी पत्नी मेरे अन्तर को जिस प्रकार हिलाती है, उस प्रकार दुनिया की कोई दूसरी-स्त्री नहीं हिला सकती । उसके लिए ममता के एक अटूट बन्धन की भावना दिन-रात मेरे अन्तर में जागृत रहती है । "
पर वह उनकी उस व्याख्या को नहीं मानते थे जो कि पुरातन-पंथी किया करते हैं, वरन वे इन सब पर एक बुद्धिवादी वैज्ञानिक की द्रष्टि से विचार करते थे ।
ब्रह्मचर्य के विषय में उन्होंने ऐसा ही द्रष्टिकोण अपनाया था ------- गाँधीजी हर तरह से स्त्रियों से दूर रहकर, उनका ख्याल भी दिल में न उठे ऐसा वातावरण बनाकर, ब्रह्मचर्य के पालन करने को कुछ भी महत्व नहीं देते थे । उनका कहना था वर्तमान युग की सामाजिक व्यवस्था में तो यह सम्भव भी नहीं है और मूर्खतापूर्ण भी समझा जायेगा ।
उन्होंने देखा कि कितने ही यूरोपियन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, पर स्त्रियों से दूर रहने की बात को न तो वे जानते हैं और न ही उसे महत्व देते हैं ।
गाँधीजी तो कहते थे कि मनुष्य स्त्रियों में रहे, उनके कार्यों में उसी प्रकार सहयोग करता रहे, जैसे पुरुषों से करता है और फिर भी किसी प्रकार की वासना या दुर्भावना उसके मन से न उठे वही सच्चा ब्रह्मचारी है ।
गाँधीजी और बा का दाम्पत्य जीवन कितना उच्च कोटि का और भारत के प्राचीनतम धार्मिक आदर्शों के अनुकूल था, इसकी चर्चा करते हुए श्री विनोबा ने अपने संस्मरण में कहा है -------
" बा और बापू का जो संबंध था वह अवर्णनीय था । अपने यहां शास्त्रकारों ने विवाह के समय एक विधि बताई है ----- वशिष्ठ और अरुन्धती का दर्शन करना । आकाश में ये दो तारिकाएं हैं । भारत के अधिकांश ऋषि कुछ समय बाद सन्यास लेकर पत्नी से पृथक रहकर लोक-सेवा करते थे, पर वशिष्ठ और अरुन्धती सदैव एक साथ रहे । कारण यह कि वे एक दूसरे के पूरक थे, बाधक नहीं ।
अरुन्धती का अर्थ ही है--- जो मार्ग में बाधा खड़ी न करे ।
पति ऊँचा चढ़ने वाला हो तो वह भी उसके साथ ऊँचा चढ़ने को तैयार रहे । बा और बापू ऐसा ही करते थे । बापू जेल में जाते थे तो बा भी जेल मे, बापू सत्याग्रह करते तो बा भी सत्याग्रह करतीं, वह जो भी करें बा उसमे उनके साथ रहती थीं । उनके अच्छे कामों में वह रूकावट डालने वाली न थीं । इसी से हम उनको वर्तमान समय में वशिष्ठ और अरुन्धती का उदाहरण मान सकते हैं । "
बा के लिए गाँधीजी ने कहा था ---- " मेरी पत्नी मेरे अन्तर को जिस प्रकार हिलाती है, उस प्रकार दुनिया की कोई दूसरी-स्त्री नहीं हिला सकती । उसके लिए ममता के एक अटूट बन्धन की भावना दिन-रात मेरे अन्तर में जागृत रहती है । "
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