भगवान बुद्ध ने कहा था --- " जिस तरह दुष्कर्म का दंड भुगतने के लिए हर प्राणी प्रकृति का दास है , उसी तरह सत्कर्म के पारितोषिक का भी अधिकार हर प्राणी को है , फिर चाहे वह किसी भी वर्ण का हो l न तो उपनयन धारण करने से कोई संत और सज्जन हो सकता है , न अग्निहोत्र से ------- यदि मन स्वच्छ है , अंत:करण पवित्र है तो ही व्यक्ति संत , सज्जन , त्यागी , तपस्वी और उदार हो सकता है l यह उत्तराधिकार नहीं साधना है l इसलिए आत्मोन्नति का अधिकार हर प्राणी को है l "