श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठतम कर्म कहा है l मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म से तो मुख मोड़ सकता है , परन्तु कर्मों के फल से नहीं बच सकता l यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान की ओर बढ़ते हैं तो वह सत्कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है , परन्तु जिस कर्म के द्वारा हम पतित होते हैं वह हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " देश -काल -पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य बदल जाते हैं और सबसे श्रेष्ठ कर्म तो यह है कि जिस विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो , उसी को हम भली -भांति निभाएं l पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए और उसे कर चुकने के बाद , सामाजिक जीवन में हमारे ' पद ' के अनुसार जो कर्तव्य हो , उसे संपन्न करना चाहिए l आचार्य श्री लिखते हैं --- ' प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का चयन करती है , उसका विरोध करना व्यर्थ है l यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे , तो उसके कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता l कर्तव्य के मात्र बाहरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता का निर्णय करना उचित नहीं है , देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है l सबसे श्रेष्ठ कार्य तो तभी होता है , जब उसके पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ न हो और उस व्यक्ति ने अपना कर्तव्य पूर्ण मनोयोग के साथ पूर्ण किया हो l " एक कथा है ---- एक संन्यासी ने कठोर तप किया , उनके पास कुछ ऐसी शक्ति आ गई कि क्रोध आने पर द्रष्टि मात्र से ही वे किसी को भी भस्म कर सकते थे l उन्हें अपनी शक्ति का बड़ा अहंकार हो गया l ईश्वर किसी के अहंकार को सहन नहीं करते , उस समय आकाशवाणी हुई कि तुमसे भी बड़ा तपस्वी अमुक व्याध है l संन्यासी उस व्याध से मिलने गए तो देखा कि वह व्याध अपना काम लगातार कर रहा है और जब काम पूरा कर चुका तो उसने अपने रूपये -पैसे समेटे और संन्यासी से कहा --- " चलिए महाराज ! घर चलिए l " घर पहुंचकर व्याध ने उन्हें आसन दिया और कहा ---' आप यहाँ थोडा ठहरिये l " इतना कहकर वह व्याध अन्दर चला गया l वहां उसने अपने वृद्ध माता -पिता को स्नान कराया , भोजन कराया और फिर उन संन्यासी के पास आया और कहा ---' अब बताइए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? ' संन्यासी ने उससे आत्मा -परमात्मा सम्बन्धी प्रश्न किए , उनके उत्तर में व्याध ने जो उपदेश दिया वह महाभारत में वर्णित है l जब व्याध अपना उपदेश समाप्त कर चुका तो संन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा ---- " इतने ज्ञानी होते हुए भी आप इतना निन्दित और कुत्सित कार्य क्यों करते हैं ? " व्याध ने कहा ---- " महाराज ! कोई भी कार्य निंदित अथवा अपवित्र नहीं है l मैं जन्म से ही इस परिस्थिति में हूँ , यही मेरा प्रारब्धजन्य कर्म है l मेरी इसमें कोई आसक्ति नहीं है , कर्तव्य होने के नाते मैं इसे उत्तम रूप से करता हूँ l मैं गृहस्थ होने के नाते अपना कर्तव्य करता हूँ और अपने माता -पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करता हूँ l मैं कोई योग नहीं जानता , संन्यासी नहीं हूँ , संसार को छोड़कर कभी वन भी नहीं गया , परन्तु फिर भी आपने मुझसे जो सुना व देखा वह सब मुझे अनासक्त भाव से अपनी अवस्था के अनुरूप कर्तव्य का पालन करने से ही प्राप्त हुआ है l " आचार्य श्री लिखते हैं --- " कर्तव्य आत्मा को मुक्त कर देने के लिए शक्तिशाली साधन हैं , इसलिए जब भी हम कोई कार्य करें तो उसे एक उपासना के रूप में करना चाहिए , कार्य को पूजा समझकर करें l "