रावण एक व्यक्ति नहीं, बल्कि जीवन व चिंतन की एक शैली है । एक संस्कृति है, जो जीवन के व्यापक स्वरुप के लिये शुभ व उचित नहीं है । रावण ने जो किया, उसके कार्य व विकास भले ही कुछ भी कहें, लेकिन वह जीवन के लिये प्रदूषण है । इसे रोकने के लिये रावण का मरण या विनाश पर्याप्त नहीं है । इसके लिये उसकी विचारधारा के विषाणुओं का विनाश आवश्यक है ।
रावण का आज स्थूल शरीर नहीं है, लेकिन भ्रष्टाचार, अन्याय जैसी विभिन्न कुरीतियाँ आज भी समाज में विद्दमान हैं । इन्हें समूल नष्ट करने के लिये जनचेतना को जाग्रत करना,
जनमानस की मानसिकता का परिष्कार कर उसे नवसृजन व नवीन संघर्ष के लिये तैयार करना अनिवार्य है ।
स्वभाव का, व्यक्तित्व का परिष्कार बहुत कठिन है । प्रत्येक मनुष्य साधना से सिद्धि का, सफलता प्राप्ति का सैद्धांतिक रूप जानता है लेकिन वह इस विधि को व्यवहार में नहीं ला पाता । एक चिकित्सक जानता है कि शराब पीना उसके लिये हानिकारक है, फिर भी वह शराब की लत लगा लेता है । जो हम जानते हैं, जरुरी नहीं कि वह व्यवहार में आये क्योंकि हम अपनी प्रकृति से बंधे हुए हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-- " सभी प्राणी अपनी प्रकृति, अपने स्वभाव के वशीभूत होकर कर्म करते हैं । "
यह प्रश्न है कि क्या व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं बन सकता ? सारे आध्यात्मिक उपचार ?
व्यक्तित्व का, स्वभाव का परिष्कार संभव है--- यह कार्य मात्र उपदेशों से नहीं, बहिरंग उपचार से नहीं, निर्देश से नहीं, यह कार्य होगा, तो विवेक जाग्रत करने से ।
और विवेक जाग्रत होगा---- गायत्री महाशक्ति की कृपा से । उनकी कृपा से ही हमें सद्बुद्धि मिलेगी, हम यह जान सकेंगे कि हमारे लिये क्या उचित है, भटकाव में उलझने के बजाय स्वयं को श्रेष्ठ कर्म में लगा सकेंगे । गायत्री साधना की सफलता के लिये व्यक्ति का सद्गुणी, सदाचारी और कर्तव्यपरायण होना अनिवार्य है ।
रावण का आज स्थूल शरीर नहीं है, लेकिन भ्रष्टाचार, अन्याय जैसी विभिन्न कुरीतियाँ आज भी समाज में विद्दमान हैं । इन्हें समूल नष्ट करने के लिये जनचेतना को जाग्रत करना,
जनमानस की मानसिकता का परिष्कार कर उसे नवसृजन व नवीन संघर्ष के लिये तैयार करना अनिवार्य है ।
स्वभाव का, व्यक्तित्व का परिष्कार बहुत कठिन है । प्रत्येक मनुष्य साधना से सिद्धि का, सफलता प्राप्ति का सैद्धांतिक रूप जानता है लेकिन वह इस विधि को व्यवहार में नहीं ला पाता । एक चिकित्सक जानता है कि शराब पीना उसके लिये हानिकारक है, फिर भी वह शराब की लत लगा लेता है । जो हम जानते हैं, जरुरी नहीं कि वह व्यवहार में आये क्योंकि हम अपनी प्रकृति से बंधे हुए हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-- " सभी प्राणी अपनी प्रकृति, अपने स्वभाव के वशीभूत होकर कर्म करते हैं । "
यह प्रश्न है कि क्या व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं बन सकता ? सारे आध्यात्मिक उपचार ?
व्यक्तित्व का, स्वभाव का परिष्कार संभव है--- यह कार्य मात्र उपदेशों से नहीं, बहिरंग उपचार से नहीं, निर्देश से नहीं, यह कार्य होगा, तो विवेक जाग्रत करने से ।
और विवेक जाग्रत होगा---- गायत्री महाशक्ति की कृपा से । उनकी कृपा से ही हमें सद्बुद्धि मिलेगी, हम यह जान सकेंगे कि हमारे लिये क्या उचित है, भटकाव में उलझने के बजाय स्वयं को श्रेष्ठ कर्म में लगा सकेंगे । गायत्री साधना की सफलता के लिये व्यक्ति का सद्गुणी, सदाचारी और कर्तव्यपरायण होना अनिवार्य है ।