27 May 2013

'भगवान पत्र -पुष्पों के बदले नहीं ,भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं और वे भावनाएं आवेश ,उन्माद या कल्पना जैसी नहीं ,वरन सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिये | उनकी सच्चाई की परीक्षा मनुष्य के त्याग ,बलिदान ,संयम ,सदाचार एवं व्यवहार से होती है | 

Feelings + Morality = Dharmacharan

'धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था होने का तात्पर्य है --जीवन की गरिमा और उसकी श्रेष्ठता पर सुद्रढ़ विश्वास | '
   मनीषियों ने जीवन जीने की कला को धर्म का नाम दिया है | ऐसी कला जिसको सीखकर जीवन की सारी विकृतियों ,कुरूपताओं का निवारण कर इसे सर्वांग सुंदर और सुरुचिपूर्ण बनाया जा सकता है |
    मनीषियों के अनुसार भावनामय नैतिकता जीवन जीने की परिष्कृत द्रष्टि है | जब नैतिकता एक ऊँचे और शुभ स्तर तक पहुँचती है ,तब उसका योग भाव -संवेदनाओं से होता है | इस स्थिति में यह धर्म बन जाती है | यही जीवन जीने का परिष्कृत द्रष्टिकोण है |
      इसके आधार पर जिंदगी व्यतीत करने पर मानवी मूल्योंका  संरक्षण और प्रसार होता है | धार्मिक होने का अर्थ है --अन्तराल में पवित्रता ,ह्रदय में सबके प्रति मैत्री भाव ,मन में शांति ,अपने पास उपलब्ध साधनों में संतोष करने की प्रवृति का होना | यही नहीं व्यक्ति को कर्मनिष्ठ ,श्रमशील एवं सहनशील होना चाहिए इसी को सही अर्थों में धर्माचरण का पर्याय समझा जाता है |
   इसके लिये न तो देश ,जाति ,काल का कोई बंधन है ,और न ही किसी प्रकार की बाहरी योग्यता जरुरी है प्रत्येक व्य|क्ति जिस समय जो काम कर रहा है उसी में भावनामय नैतिकता को मिला देने से वह धर्माचरण बन जाता है  |
विवेकयुक्त व्यवहार ही नैतिकता है ,सच्ची धार्मिकता है |