पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " यश - प्रतिष्ठा।, मान - सम्मान , ऐश्वर्य - वैभव उन्हें अच्छे लगते हैं , जिनका अंतर खोखला एवं शून्य हो l समाज में इन सब के माध्यम से ये अपने खोखलेपन को भरने का व्यर्थ प्रयास करने में संलग्न रहते हैं l अध्यात्म जीवन को पवित्रता से भर देता है l यह पवित्रता यदि व्यवहार में उतर आए तो उसे समाज में नैतिकता का नाम दिया जाता है , परन्तु जब यह पवित्रता , विचार , भाव एवं संस्कार में समाहित हो जाती है , तो उसे अध्यात्म कहते हैं अर्थात अध्यात्म आंतरिक पवित्रता का पर्याय है , जिसमें विचारों , भावनाओं एवं संस्कारों को परिष्कृत किया जाता है l " आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---- ' वास्तविक अध्यात्म जब आंतरिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है तो ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति की प्रकृति उदार , उदात्त एवं संवेदनशील हो जाती है l आध्यात्मिक व्यक्ति बाहरी संपन्नता को नहीं बल्कि आत्मिक समृद्धि को वरीयता एवं प्राथमिकता प्रदान करता है l " एक बार महात्मा गांधी से उनके साथ कार्यरत एक स्वयंसेवक ने पूछा ---- " आप अंग्रेजों से इतनी निर्भीकता से लोहा ले लेते हैं , क्या आपको कभी भय नहीं लगता ? क्या कभी आपको ऐसा नहीं लगता कि जिस मार्ग पर आप चल रहे हैं वह गलत भी हो सकता है ? " महात्मा गांधी बोले ---- " मित्र ! मुझे आनंदित जीवन का रास्ता मालूम है l वह तंग जरूर है , परन्तु सीधा है l वह तलवार की धार के समान है , परन्तु उस पर चलने में मुझे आनंद आता है l यदि कभी उस पर चलते हुए मैं फिसल भी जाता हूँ तो मैं हृदय से भगवान को पुकारता हूँ l भगवान का वचन है कल्याण - पथ पर चलने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती l धर्म का पथ लेने वाले की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं l भगवान के इस आश्वासन पर मेरी अटूट श्रद्धा है l " स्वयंसेवक ने पुन: पूछा ---- " यदि इस पथ पर चलते - चलते आप अपना जीवन गँवा बैठे तो ? " गाँधी जी बोले ---- " मित्र ! इस संसार में अमरता लिखाकर तो कोई आया नहीं है , पर यदि सन्मार्ग पर चलते हुए सदुद्देश्य के लिए यह शरीर नष्ट भी हो जाए तो उसकी मुझे परवाह नहीं है l जीवन सही कार्यों में गया तो मेरी अंतरात्मा इसी से संतुष्ट होगी l "