11 March 2019

WISDOM ----- ईर्ष्या एक घुन के समान है जो आंतरिक विकास के सारे द्वार बंद कर देती है

 मानव  मन के  मर्मज्ञ   मानते  हैं  कि  ईर्ष्या  का  प्रादुर्भाव   एक  समान  स्तर  पर  होता  है  l  ईर्ष्या  एक  ही  कक्षा में  पढ़ने  वाले  छात्र - छात्राओं  के  बीच  पैदा  होती  है  l  ईर्ष्या  अपने  स्तरीय वर्ग  के  पारिवारिक  सदस्यों  के  बीच  , विभिन्न  संस्थाओं  में  कार्य  करने  वालों  के  मध्य  पैदा  होती  है  l
   आखिर  ईर्ष्या  क्यों  पैदा  होती  है  ?    इसके  पीछे  जो  मनोविज्ञान  है  उसी  को  स्पष्ट  करते  हुए   पं.  श्रीराम  शर्मा  आचार्य  जी  ने  'अखंड  ज्योति '  में  एक  लेख  में  लिखा  है -----   मनुष्य  जिससे  ईर्ष्या  करता  है  ,  वास्तव  में   वह  उसके  जैसा  बनना  चाहता  है   और  ऐसा  न  बन  पाने  की  अतृप्ति  उसे  ईर्ष्यान्वित  कर  देती  है   l 
 ईष्यालु    उस  व्यक्ति  की  विशिष्टता  को  सम्मान  नहीं  दे  पाता  l   आमने - सामने  उसकी  कटु  आलोचना  करता  है ,  अपने  कुतर्कों  से  उसे   अयोग्य    सिद्ध  करता  है   परन्तु  अन्दर - ही - अन्दर   उसे  बड़ी  हसरत  भरी  निगाहों  से  निहारता  है  ,  सोचता  है , काश!  हम  भी  उस  जैसे  होते   l  पर  ऐसा  न  हो  पाने  की  स्थिति  में ईर्ष्या  पैदा  होती  है   l  ईर्ष्या  की  भावदशा  में  ही  प्रारम्भ  होता  है  --- निंदा  और   षड्यंत्र  का  अंतहीन  सिलसिला  l  ईष्यालु  व्यक्ति  चाहता  है  की  वह जिससे  ईर्ष्या  करता  है  ,  उसकी  सब  उपेक्षा  करें   प्रताड़ित  करें  l  ऐसा  होने  पर  ईर्ष्यालु  प्रसन्न  होता  है  l 
  ईर्ष्या  व्यक्ति  को  मूल्यहीन   बनाती   है ,  पतन  की  राह  पर  धकेलती  है   l