पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " तप और वरदान की उपयोगिता तभी है , जब सद्बुद्धि का साथ में समावेश हो l आत्म परिष्कार और पात्रता के अभाव में सदा मस्तिष्क पर दुर्बुद्धि छाई रहती है l यदि अनायास ही कोई सुयोग आ टपके तो वही मांग बैठती है जो अंततः आत्मघाती सिद्ध होता है l " ----- पुराण की एक कथा है ---- राजा नहुष को पुण्यफल के बदले इन्द्रासन प्राप्त हुआ l वे स्वर्ग में राज करने लगे l प्रभुता पाकर किसे मद नहीं होता ? ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे ऐसे कोई विरले ही होते हैं l नहुष भी सत्तामद से प्रभावित हुए बिना न रह सके l उनकी द्रष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी , वे उन्हें अपने अंत:पुर में लाने का विचार करने लगे कि जब इन्द्रासन मिल गया तो इन्द्राणी भी उनके साथ हों l ऐसा प्रस्ताव उन्होंने इन्द्राणी के पास भेज दिया l इन्द्राणी बहुत दुःखी हुईं l राजा की आज्ञा का विरोध शक्ति से तो संभव न था , उन्होंने विवेक से काम लिया l ' सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे l उन्होंने नहुष के पास सन्देश भिजवाया कि मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है लेकिन मेरी एक शर्त है कि आप पालकी में चढ़कर मेरे पास आयें और उस पालकी को सप्त ऋषि जोतें , अन्य कोई उसमें मदद न करे l अब सत्ता के मद में नहुष पर तो दुर्बुद्धि सवार थी , उन्होंने सप्त ऋषि पकड़ बुलाये , उन्हें पालकी में जोता गया l नहुष पालकी पर चढ़ बैठे l नहुष बहुत आतुर थे इसलिए ऋषियों से बार -बार कहने लगे ' जल्दी चलो -जल्दी चलो ' l ऋषियों की दुर्बल काया , इतनी दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके l ऐसा घोर अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे l एक ने कुपित होकर शाप दे डाला --- ' दुष्ट ! तू स्वर्ग से पतित होकर , पुन: धरती पर जा गिर l " शाप सार्थक हुआ l नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीनहीन की तरह विचरण करने लगे l