1 March 2024

WISDOM -----

   पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- ' हम  क्या  करते  हैं   इसका  महत्त्व  कम  है   किन्तु  उसे  हम  किस  भाव  से  करते  हैं   उसका  बहुत  अधिक  महत्त्व  है  l  यदि  हम  अपने  अहं  और  अपने  कहलाने  वाले   कुछ  व्यक्तियों  को   सुख  पहुँचाने   तथा  दूसरों  को  दुःख  पहुँचाने  की  भावना  से  कर्म  करते  हैं   तो  हम  कभी  सफल  नहीं  हो  सकते  l   यदि  हमारी  भावनाएं  कलुषित  हैं  तथा  हमारे  कर्मों  के  मूल  में   अपना  लाभ  तथा  दूसरों  की  हानि  करने  की  वृत्ति  छिपी  हुई  है   तो  हम  दिखावे  के  लिए   कितने  ही  व्यवस्थित   और  कठिन  कार्य  करें   , मनवांछित  परिणाम   नहीं  पा  सकते  l  मात्र  क्रिया  ही  सब  कुछ  नहीं  है    उसके  मूल  में  छिपी  भावना   और  विचारणा   का  भी  महत्त्व  है  l "                                                                                                                    श्रीमद् भागवत  में  शुकदेव जी   राजा  परीक्षित  से  कहते  हैं -----" परीक्षित  ! देखो   देवता  और  दैत्य   दोनों  ने  एक  ही  समय , एक  स्थान  पर , एक  प्रयोजन  तथा  एक  वस्तु  के  लिए  ,  एक  विचार  से  , एक  ही  कर्म --  समुद्र मंथन    किया  था  , परन्तु  फल  में  बड़ा  भेद  हो  गया  l  उसमें  से  देवताओं  ने   अपने  परिश्रम  का  फल  --- अमृत  प्राप्त   कर  लिया   क्योंकि  उन्होंने  भगवान  के  चरणकमलों   का  आश्रय  लिया  था  l  परन्तु  उससे  विमुख  होने  के  कारण   परिश्रम  करने  पर  भी   असुर गण   अमृत  से  वंचित  ही  रहे  l  "        देवताओं  में  लोक कल्याण  की  भावना  होती  है   लेकिन  असुर    तपस्या   से   शक्ति  प्राप्त  कर  के  निरंकुश  और  अत्याचारी  हो  जाते  हैं   , उनमें  स्वार्थ  और  अहंकार  होता  है  l  उनकी  तपस्या  के  पीछे  उनकी  भावना  पवित्र  नहीं  है   इसलिए  वे  अमृत फल  से  वंचित  रह  गए  l    ईश्वर  हम  सबके  ह्रदय  में  विराजमान  हैं  , हम  जो  भी  अच्छा -बुरा  कार्य  कर  रहे  हैं  , उसमें  छिपी  हमारी  भावना  क्या  है   उसी  के  अनुसार  हमें  कर्मफल  मिलता  है  l    श्रीमद्  भागवत  में  विष्णु  दूतों  और  यमदूत  की  चर्चा   के  प्रसंग  में  कहा  गया  है  ------- '  जीव  शरीर    या  मनोवृत्ति  से   जितने  कर्म  करता  है  ,  उसके  साक्षी  रहते  हैं ----  सूर्य , अग्नि , आकाश , वायु , इन्द्रियां , चंद्रमा , संध्या , रात , दिन , दिशाएं , जल ,  पृथ्वी , काल  और  धर्म  l  इनके  द्वारा  अधर्म  का  पता  चल  जाता  है   और  तब  पाप कर्म  करने  वाले   सभी  अपने -अपने   कर्मों  के  अनुसार  दंडनीय  होते  हैं  l  "    आचार्य श्री  ' संस्कृति -संजीवनी  श्रीमद् भागवत एवं  गीता  ' में    लिखते  हैं  --- " इतने  गवाहों  के  होते  हुए  भी  क्या   हम  अपने  जुर्म  से  इनकार  कर  सकते  हैं  ?   जब  हमारी  इन्द्रियां  जिनके  माध्यम  से  हम  दुष्कर्म  करते  हैं  , वही  हमारे  विपक्ष  में  गवाही  देने  को  तैयार  हैं   तब  हम  कैसे  बच  सकते  हैं  ?   सबसे  शक्तिशाली  रावण   जिसने  इन  सब  गवाहों  पर   अपना  रोब  जमा  रखा  था  , काल   को    पाटी  से  बाँध  रखा  था  , वह  भी  कर्मफल  से  नहीं  बच  सका  , उसका  अंत  हो  गया    तो  हम  किस  खेत  की  मूली  हैं   कि  बच  जाएंगे   l "