16 June 2013

स्वामी विवेकानंद कश्मीर के क्षीर भवानी मंदिर गये | देखा मंदिर टूटा हुआ था | मन ही मन निश्चय किया कि इतना सुंदर मंदिर ,इतना पुराना भव्य शिल्प ,मैं इस मंदिर को बनवाऊंगा | कहा जाता है कि भगवती साक्षात प्रकट हुईं और बोलीं -"मैंने त्रिभुवन का निर्माण किया है ,तू मेरे लिये क्या बनायेगा !भगवान के लिये कुछ बनाना है ,तो घर -घर में ईश्वरीय प्रेरणा फैला | सब घरों को आदर्श ,स्वर्ग जैसा अनुपम बना | "
स्वामी जी माँ का आदेश शिरोधार्य  किया एवं वही कार्य जीवन भर किया | विवेकानन्द ने कहा था -"न मुझे भक्ति की परवाह है न मुक्ति की | मैं ऐसा वासंती जीवन जीना चाहता हूँ जिससे हर ओर प्रसन्नता और खुशहाली का वातावरण बने | 

RITUALS

'फूल को किसी भी नाम से पुकारने पर उसकी सुगंध में अंतर नहीं पड़ता | भगवान को किसी भी नाम से पुकारो इससे फर्क क्या पड़ता है | '
                                        "आप माला के दाने बाहर की ओर फेरते हैं और हम अंदर की ओर | बताइये इन दोनों में से कौन सा तरीका श्रेष्ठ है ?"पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह जी ने सिख साम्राज्य के विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन से पूछा | फकीर ने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक इस प्रश्न का उत्तर इन शब्दों में दिया --
"महाराज !मुसलमान माला के दाने बाहर की ओर फेरकर दोष निकालने का प्रयास करते हैं ,जबकि हिंदु अंदर की ओर फेरकर गुण ग्रहण करने का यत्न करते हैं | "उनके उत्तर से प्रसन्न होकर महाराज ने उनकी प्रशंसा भरे दरबार में की |