श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --- अहिंसा आत्मा का नैसर्गिक स्वभाव है l यदि दूसरों को पीड़ा देने का भाव अंत:करण में नहीं है तो यह अहिंसा है l गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी को धर्म का आधार मानते हुए कहा है कि --- परहित सरिस धर्म नहिं भाई l पर पीड़ा सम नहिं अधमाई l ' यदि दूसरे को दुःख देने का , पीड़ा पहुँचाने का भाव हमारे मन से विदा हो जाता है तो सच्ची अहिंसा जन्म लेती है l संत एकनाथ के जीवन की घटना है --- वे काशी से गंगाजल लेकर रामेश्वरम् को निकले l महीनों लम्बी यात्रा थी l बीच मार्ग में भगवान शिव एक गधे का रूप धारण कर आ बैठे l कराहने लगे l उनको कष्ट पाता देखकर एकनाथ का ह्रदय करुणा से भर उठा l अपने साथ कांवड़ का जल जो वे लेकर चल रहे थे . उसे उन्होंने पीड़ित गधे के मुख में डाल दिया l साथ चल रहे अन्य तीर्थ यात्री यह देखकर कुपित हो उठे और बोले --- " यह तुमने कैसा अपवित्र कार्य किया l " एकनाथ बोले --- " उसका कष्ट मुझसे देखा नहीं गया l यदि कष्ट के समय किसी को सहायता न कर सके तो कैसा धर्म ? " साथ के लोग यह सुनकर और कुपित हुए l इतनी देर में गधा फिर पीड़ा से कराहने लगा तो संत एकनाथ ने दूसरे कलश का गंगाजल भी उसके मुख में डाल दिया l साथ के यात्री यह देखकर उन्हें भला -बुरा कहते हुए चले गए l उनके जाने के बाद भगवान शिव जो गधे के रूप में लेटे हुए थे , अपने असली रूप में आ गए और एकनाथ से बोले --- " पुत्र ! तुमने ही धर्म का अर्थ समझा है l दूसरे के दुःख को देखकर जिसे स्वयं दुःख का अनुभव हो , वही सच्चा अहिंसक है , वही दैवी गुणों से युक्त है l "