' सूफी फकीर शेख सादी के वचन हैं-- " बहुत समय पहले दजला के किनारे एक मुरदे की खोपड़ी ने कुछ बातें एक राहगीर से कही थीं | वह बोली थी -- " ऐ मुसाफिर , जरा होश में चल ! मैं भी कभी भारी दबदबा रखती थी | मेरे सिर पर हीरों जड़ा ताज था | फतह मेरे पीछे-पीछे चली और मेरे पाँव कभी जमीन पर न पड़ते थे | होश ही न था कि एक दिन सब कुछ खत्म हो गया | कीड़े मुझे खा गये हैं और आज हर पाँव मुझे बेरहम ठोकर मारकर आगे निकल जाता है | तू भी अपने कानो से गफलत की रुई निकाल ले , ताकि तुझे मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत हासिल हो सके | "
मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत को जो सुन लेता है , वह जान लेता है कि जन्म के साथ मृत्यु भी जुड़ी है | इन दोनों के बीच जो जीवन है , उसे वह अनवरत तप और सतत निष्काम कर्म द्वारा सार्थक कर अमर हो जाता है |
मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत को जो सुन लेता है , वह जान लेता है कि जन्म के साथ मृत्यु भी जुड़ी है | इन दोनों के बीच जो जीवन है , उसे वह अनवरत तप और सतत निष्काम कर्म द्वारा सार्थक कर अमर हो जाता है |