' विश्व के सभी धर्म शास्त्रों ने ह्रदय की पवित्रता को अनिवार्य बताया है और धर्म एवं पवित्रता दोनों को पर्याय माना है | '
अध्यात्म में जिन तत्वों को प्रधानता दी जाती है वह हैं-- अंत:करण की पवित्रता और मन की एकाग्रता | ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं , इतने पर भी श्रेष्ठ और सर्वोपरि पवित्रता ही है |
मानसिक एकाग्रता से शक्तियाँ तो जरुर मिल जाती हैं लेकिन अपवित्र ह्रदय वाले उनका गलत दिशा में उपयोग करने लगते हैं |उनके लिये इन शक्तियों का मिलना बंदर के हाथ में तलवार जैसा है जो अपना गला स्वयं ही काट लेता है |इसी प्रकार इनकी जग हँसाई होती है और नष्ट हो जाते हैं |
रशियन गुह्यवेत्ता रासपुतिन ठीक ऐसा ही व्यक्ति था | उसने पवित्रता अर्जित करने की परवाह किये बिना तरह-तरह की कठिन साधनाएं कीं | पर अंत:करण की शुद्धि के अभाव के कारण उसने सारे काम गलत किये | जार तथा उसकी पत्नी को भी प्रभावित किया | गलत कार्यों के कारण उसे जहर दिया गया , गोलियाँ मारी गईं , गले में पत्थर बधकर बोल्गा में फेंका गया | उसका अंत दुर्गति एवं असम्मान से हुआ |
जबकि महर्षि रमण , गुरजिएफ , बुद्ध , महावीर अपनी पवित्रता के कारण जन-जन की श्रद्धा के पात्र बने | महत्वपूर्ण शक्तिअर्जन नहीं , वरन उसका उपयोग है | एक ही शक्ति बुरे व भले अंत:करण के अनुसार अपना प्रभाव दिखलाती है |
एक ही परमात्म शक्ति राम के माध्यम से भी अभिव्यक्त होती है , और रावण के माध्यम से भी |शुद्ध अन्तराल में वही शक्ति निर्माण करने वाली , सृजन करने वाली हो जाती है , जबकि अशुद्ध अंत:करण में वही विनाशक सिद्ध होती है |
यह तथ्य स्वाति की बूँद की तरह है | यह बूंद सांप के मुँह में पड़कर जहर , केले में कपूर व सीप में मोती बन जाती है , परिणामो में यह विभिन्नता आधारों में भेद के कारण है | यही कारण है सभी ने ह्रदय की पवित्रता , आचरण की पवित्रता को अनिवार्य बताया | आध्यात्मिक बनने का अर्थ है -- मन -कर्म -वचन से पवित्र बनना |
अध्यात्म में जिन तत्वों को प्रधानता दी जाती है वह हैं-- अंत:करण की पवित्रता और मन की एकाग्रता | ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं , इतने पर भी श्रेष्ठ और सर्वोपरि पवित्रता ही है |
मानसिक एकाग्रता से शक्तियाँ तो जरुर मिल जाती हैं लेकिन अपवित्र ह्रदय वाले उनका गलत दिशा में उपयोग करने लगते हैं |उनके लिये इन शक्तियों का मिलना बंदर के हाथ में तलवार जैसा है जो अपना गला स्वयं ही काट लेता है |इसी प्रकार इनकी जग हँसाई होती है और नष्ट हो जाते हैं |
रशियन गुह्यवेत्ता रासपुतिन ठीक ऐसा ही व्यक्ति था | उसने पवित्रता अर्जित करने की परवाह किये बिना तरह-तरह की कठिन साधनाएं कीं | पर अंत:करण की शुद्धि के अभाव के कारण उसने सारे काम गलत किये | जार तथा उसकी पत्नी को भी प्रभावित किया | गलत कार्यों के कारण उसे जहर दिया गया , गोलियाँ मारी गईं , गले में पत्थर बधकर बोल्गा में फेंका गया | उसका अंत दुर्गति एवं असम्मान से हुआ |
जबकि महर्षि रमण , गुरजिएफ , बुद्ध , महावीर अपनी पवित्रता के कारण जन-जन की श्रद्धा के पात्र बने | महत्वपूर्ण शक्तिअर्जन नहीं , वरन उसका उपयोग है | एक ही शक्ति बुरे व भले अंत:करण के अनुसार अपना प्रभाव दिखलाती है |
एक ही परमात्म शक्ति राम के माध्यम से भी अभिव्यक्त होती है , और रावण के माध्यम से भी |शुद्ध अन्तराल में वही शक्ति निर्माण करने वाली , सृजन करने वाली हो जाती है , जबकि अशुद्ध अंत:करण में वही विनाशक सिद्ध होती है |
यह तथ्य स्वाति की बूँद की तरह है | यह बूंद सांप के मुँह में पड़कर जहर , केले में कपूर व सीप में मोती बन जाती है , परिणामो में यह विभिन्नता आधारों में भेद के कारण है | यही कारण है सभी ने ह्रदय की पवित्रता , आचरण की पवित्रता को अनिवार्य बताया | आध्यात्मिक बनने का अर्थ है -- मन -कर्म -वचन से पवित्र बनना |