2 March 2013

मन एक दर्पण है जो हमारे भले -बुरे कर्मो का साक्षी होता है | जब कोई व्यक्ति कोई अपराध या गलती करता है तो उस समय वह भले ही इसे कितना ही छिपाए या इस पर तर्क का परदा डाले ,लेकिन उसका मन इसका साथी अवश्य होता है | हिंसा हमें पशु बनाती है और दया हमें सच्चा इन्सान बनाती है | यह हमें ही चयन करना है कि हमें क्या बनना है और किस ओर बढ़ना है | पशु बनना आसान है ,सरल है परन्तु इन्सान बनना कठिन और समय साध्य प्रक्रिया है | यदि हमें देवत्व की ओर बढ़ना है तो धैर्य और संयमपूर्वक अपने अंदर की हिंसक वृति को काबू में लाना होगा | संकल्पपूर्वक हिंसा की राह छोड़कर दया और करुणा के पथ पर अग्रसर होना होगा |
ऊँचा व्यक्तित्व लम्बाई से नहीं होता ,अहिंसा ,त्याग ,परोपकार ,श्रम निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है | एक ईश्वर विश्वासी ने अपनी सारी धन -दौलत लोक -कल्याण के कार्यों में लगा दी और संयम का जीवन व्यतीत करना शुरु कर दिया | अब तो उनके सत्कार्यों की सर्वत्र चर्चा होने लगी | जनता के कुछ प्रतिनिधियों ने उनसे निवेदन किया -"आपका त्याग प्रशंसनीय है | आपकी सेवाओं से समाज ऋणी है | हम सब सार्वजनिक रुप से आपका अभिनन्दन करना चाहते हैं | उन्होंने मुस्कराते हुए कहा -"मैंने कोई त्याग नहीं किया ,लाभ लिया है | दुकानदार ग्राहक को वस्तु देकर कोई त्याग नहीं करता ,वह तो बदले में उसकी कीमत लेकर लाभ कमाता है | उसी प्रकार क्रोध ,लोभ मोह आदि को छोड़कर अपने स्वभाव में अहिंसा ,परोपकार और क्षमा आदि को स्थान देना ,वास्तव में त्याग  नहीं ,ये तो लाभ का सौदा है | इन सद्गुणों की पूंजी पर ही दैवी अनुदान मिलते हैं औरजीवन सफल होता है | '