' जीवन - साधना का मर्म है - भक्ति । व्यक्ति के जीवनक्रम और चरित्र को श्रेष्ठ व समुन्नत बनाने के लिये आस्तिकता की ईश्वर भक्ति की आवश्यकता है । ईश्वर विश्वास - द्रढ़ विश्वास ही भक्ति है । संसार तो चलता है गणित से , संसार में बहुतेरा हिसाब -किताब है , संसार की हर एक व्यवस्था तर्कपूर्ण है । यदि संसार में रहकर शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना है तो हमें अपने समस्त सांसारिक दायित्वों को निभाते हुए ईश्वर का सच्चा भक्त बनना होगा । ईश्वर पर अटूट विश्वास करना होगा । जो सच्चा भक्त है , वह निंदा -स्तुति की परवाह नहीं करता ।
समाज ने स्तुति की भी तो क्या ? इससे अंतर्मन की प्यास तो न बुझेगी , गले में पड़ी फूलमालाओं से आंतरिक दरिद्रता तो न मिट सकेगी । सच तो यह है कि समाज की स्तुति . इसकी चिंता में व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों ही छोटे हो जाते हैं , एक अनजाना डर इन्हें घेर लेता है ।
समाज अपने द्वारा दिये गये सम्मान के बदले सब कुछ छीन लेता है , इससे न तो जीवन का अर्थ मिलता है और न ही तृप्ति मिलती है ।
इस लिये जो ईश्वर भक्त हैं उन्हें न तो प्रशंसा का लोभ होता है और न निंदा से भय । वह इस सच को गहरे से आत्मसात कर लेते हैं कि भीतर के आनंद के सामने कोई भी वरणीय नहीं है ।
भक्ति संसार से भागने का नहीं , संसार में रहकर कर्मयोगी की तरह जीवन जीने का नाम है
समाज ने स्तुति की भी तो क्या ? इससे अंतर्मन की प्यास तो न बुझेगी , गले में पड़ी फूलमालाओं से आंतरिक दरिद्रता तो न मिट सकेगी । सच तो यह है कि समाज की स्तुति . इसकी चिंता में व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों ही छोटे हो जाते हैं , एक अनजाना डर इन्हें घेर लेता है ।
समाज अपने द्वारा दिये गये सम्मान के बदले सब कुछ छीन लेता है , इससे न तो जीवन का अर्थ मिलता है और न ही तृप्ति मिलती है ।
इस लिये जो ईश्वर भक्त हैं उन्हें न तो प्रशंसा का लोभ होता है और न निंदा से भय । वह इस सच को गहरे से आत्मसात कर लेते हैं कि भीतर के आनंद के सामने कोई भी वरणीय नहीं है ।
भक्ति संसार से भागने का नहीं , संसार में रहकर कर्मयोगी की तरह जीवन जीने का नाम है