प्राचीन काल में हमारे ऋषियों ने समाज में संतुलन बनाये रखने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया था , वह था ----- आश्रम व्यवस्था l इसके पीछे उद्देश्य यही था कि 65 -70 वर्ष की आयु तक व्यक्ति सांसारिक जीवन जी लेता है , इसके बाद स्थान खाली करो और नई पीढ़ी को खिलने का मौका दो l इसी विचार को ध्यान में रखकर निश्चित आयु पूर्ण कर लेने पर रिटायर करने की व्यवस्था की गई है l इसके मूल में एक कारण और भी था कि सांसारिक प्राणी होने के कारण लोभ , लालच , कामना , वासना , तृष्णा , महत्वाकांक्षा , अहंकार आदि सभी में कम या ज्यादा होते हैं l अब यदि व्यक्ति की सन्मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति नहीं है , नैतिक मूल्यों का ज्ञान नहीं है तो यही भावनाएं आयु बढ़ने के साथ -साथ विकृत रूप ले लेती हैं जिसके दुष्परिणाम सारे समाज को भोगने पड़ते हैं l युद्ध , दंगे , बड़े अपराध , अनैतिक , गैर क़ानूनी कार्य आदि के प्रमुख परिपक्व आयु के ही लोग होते हैं l संसार की आसुरी तत्वों से रक्षा के लिए ही ऋषियों ने कहा था कि एक आयु के बाद ईश्वर का नाम लो , अपने मन को विकारों से मुक्त करने का प्रयास करो ताकि आगे की यात्रा शांतिपूर्ण हो सके l कलियुग में दुर्बुद्धि का प्रकोप है इस कारण सभी क्षेत्रों में संतुलन बिगाड़ गया है l
26 September 2022
WISDOM -----
हमारे आचार्य और ऋषियों का कहना है कि -- धन मानव जीवन के लिए आवश्यक है किन्तु धर्म से रहित धन व्यर्थ है , हानिकारक है , रोग -शोक को आमंत्रित करता है l ' इस कथन की सत्यता को आज संसार में देखा जा सकता है l भ्रष्टाचार , बेईमानी , शोषण करना , दूसरों का हक छीनना , अनैतिक साधनों से धन कमाना ये सब आसुरी प्रवृत्ति के लक्षण हैं l जब देवत्व की तुलना में असुरता बलशाली हो जाती है तब उसका परिणाम युद्ध , दंगे , तनाव , बीमारी , महामारी , आत्महत्या , अकाल मृत्यु आदि नकारात्मक घटनाओं में वृद्धि के रूप में देखने को मिलता है l पुराणों में एक कथा है ----- एक बार ऋषि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने उनसे कुछ आभूषण की मांग की l ऋषि ने कहा उनके कई शिष्य राजा हैं ,वे उनसे धन मांग कर लाएंगे लेकिन वही धन लाएंगे जो धर्म पूर्वक कमाया गया हो और जिससे राजकोष की हानि न हो l उस समय ईमानदारी बहुत थी , वे अनेक राजाओं के पास गए , उनके राजकोष में जो धन था वह तो धर्म पूर्वक अर्जित था , लेकिन ऋषि अगस्त्य उसमे से धन लेते तो राजकोष में घाटा आ जाता l अत: उन्होंने धन लेने से इनकार कर दिया और वापस लौटने लगे l रास्ते में उन्हें इल्वन नमक एक असुर मिला l उसने महर्षि का अभिप्राय जाना तो प्रार्थना की कि मेरे पास विपुल सम्पदा है , आप जितनी चाहे ले जा सकते हैं l ऋषि , इल्वन के महल में पहुंचे और हिसाब जांचना शुरू किया तो देखा वहां सम्पदा तो अपार थी लेकिन सब कुछ अनीति से , शोषण से , दूसरों को कष्ट देकर उपार्जित थी l ऋषि ने उसे लेने से मना कर दिया और खाली हाथ लौट आए और लोपामुद्रा से बोले --- " भद्रे ! धर्म से कमाई करने और उदारतापूर्वक उचित खर्च करने वालों के पास कुछ बचता नहीं l अनीति से कमाने वालों के पास ही विपुल धन पाया जाता है , लेकिन उसके लेने से हमारे ऋषि जीवन में बाधा पड़ेगी और अशांति होगी l " लोपामुद्रा ने इस सत्य को समझा और सादगी के साथ सुख पूर्वक जीवन जीने में ही गर्व का अनुभव किया l
WISDOM ----
उद्यान में भ्रमण करते -करते सहसा राजा विक्रमादित्य महाकवि कालिदास से बोले ,---" आप कितने प्रतिभाशाली , मेधावी हैं l साहित्य के क्षेत्र में आपकी विद्वता का कोई मुकाबला नहीं l भगवान ने आपका शरीर भी बुद्धि के अनुसार सुन्दर क्यों नहीं बनाया ? " कालिदास जी राजा के व्यंग्य को समझ गए l उस समय तो वे कुछ भी नहीं बोले l राजमहल आकर उन्होंने दो पात्र मंगवाए --- एक मिटटी का , एक सोने का l दोनों में जल भर दिया l कुछ देर बाद कालिदास ने राजा से पूछा --- " अब बताएं राजन ! किस पात्र का जल अधिक शीतल है ? " विक्रमादित्य ने उत्तर दिया --- " मिटटी के पात्र का l " तब कालिदास बोले --- " जिस प्रकार शीतलता पात्र के बाहरी आधार पर निर्भर नहीं है , उसी प्रकार प्रतिभा भी शरीर की आकृति पर निर्भर नहीं है l राजन ! बाहर के सौन्दर्य को नहीं , सद्गुणों को देखा जाना चाहिए l आत्मा का सौन्दर्य ही प्रधान होता है l विद्वता और महानता का संबंध शरीर से नहीं , आत्मा से है l "