' शक्ति नहीं , सत्य ही विजित होता है | '
असुरों ने अपने पराक्रम व बुद्धिकौशल से 21 बार देवताओं को हराया , इंद्रासन पर बैठे , पर देर तक वहां स्थिर न रह सके | हर बार उन्हें स्वर्ग छोड़ना पड़ा |
देवर्षि नारद ने पिता ब्रह्मा से कारण पूछा तो उनने कहा -- " वत्स ! बल द्वारा सामयिक रूप से ऐश्वर्य प्राप्त तो किया जा सकता , पर उसका उपभोग केवल संयमी ही कर पाते हैं | संयम की सतत उपेक्षा कर बल का दुरूपयोग करते रहने वाले असुर जीतने पर भी इंद्रासन का उपभोग कैसे कर सकते हैं | "
एक बार सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंदी बनाकर उसे बंदीगृह में डाल दिया | वहां उसे कोई यातना नहीं दी गई , सम्मानपूर्वक रखा गया | अहंकारी रावण को यह सम्मान भी चुभता था |महर्षि पुलस्त्य रावण को लेने राजदरबार गये | सहस्त्रार्जुन ने बंदीगृह से रावण को बुलवाया और उसे महर्षि पुलस्त्य के बराबर स्थान दिया | इसके बाद रावण को संबोधित करते हुए कहा ----
" रावण ! ध्यान रखना , दुराचारी कितना ही बलवान , शक्तिवान क्यों न हो , एक दिन उसका दर्दनाक अंत होना सुनिश्चित है | शक्ति का दम भी तब तक है , जब तक पुण्य शेष हैं | पुण्य के क्षीण हो जाने पर सारा दंभ गुब्बारे की हवा की तरह निकल जाता है और बच जाता है शक्ति के बल पर किया गया घोर पाप | तुम्हे अपनी शक्ति का बड़ा दंभ है , परंतु यह तुम्हारे पुण्य के होने तक की बात है | तुम अपने नीच कर्म के द्वारा अपने ही पुण्य के भंडार को समाप्त कर रहे हो | "
उनने आगे कहा --" रावण ! यहाँ कोई अजेय नहीं है | काल किसी को क्षमा नहीं करता | मैं तुम्हारी विद्वता का कायल हूँ , परंतु तुम्हारे नीच कर्म पर मुझे दया आती है | मैं तुम्हे मुक्त नहीं कर रहा , काल के हवाले कर रहा हूँ | मर्यादा और सत्य की कोई अवतारी सत्ता तुम्हारा विनाश करेगी | ध्यान रखना ! शक्ति नहीं , सत्य ही जीतता है |
असुरों ने अपने पराक्रम व बुद्धिकौशल से 21 बार देवताओं को हराया , इंद्रासन पर बैठे , पर देर तक वहां स्थिर न रह सके | हर बार उन्हें स्वर्ग छोड़ना पड़ा |
देवर्षि नारद ने पिता ब्रह्मा से कारण पूछा तो उनने कहा -- " वत्स ! बल द्वारा सामयिक रूप से ऐश्वर्य प्राप्त तो किया जा सकता , पर उसका उपभोग केवल संयमी ही कर पाते हैं | संयम की सतत उपेक्षा कर बल का दुरूपयोग करते रहने वाले असुर जीतने पर भी इंद्रासन का उपभोग कैसे कर सकते हैं | "
एक बार सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंदी बनाकर उसे बंदीगृह में डाल दिया | वहां उसे कोई यातना नहीं दी गई , सम्मानपूर्वक रखा गया | अहंकारी रावण को यह सम्मान भी चुभता था |महर्षि पुलस्त्य रावण को लेने राजदरबार गये | सहस्त्रार्जुन ने बंदीगृह से रावण को बुलवाया और उसे महर्षि पुलस्त्य के बराबर स्थान दिया | इसके बाद रावण को संबोधित करते हुए कहा ----
" रावण ! ध्यान रखना , दुराचारी कितना ही बलवान , शक्तिवान क्यों न हो , एक दिन उसका दर्दनाक अंत होना सुनिश्चित है | शक्ति का दम भी तब तक है , जब तक पुण्य शेष हैं | पुण्य के क्षीण हो जाने पर सारा दंभ गुब्बारे की हवा की तरह निकल जाता है और बच जाता है शक्ति के बल पर किया गया घोर पाप | तुम्हे अपनी शक्ति का बड़ा दंभ है , परंतु यह तुम्हारे पुण्य के होने तक की बात है | तुम अपने नीच कर्म के द्वारा अपने ही पुण्य के भंडार को समाप्त कर रहे हो | "
उनने आगे कहा --" रावण ! यहाँ कोई अजेय नहीं है | काल किसी को क्षमा नहीं करता | मैं तुम्हारी विद्वता का कायल हूँ , परंतु तुम्हारे नीच कर्म पर मुझे दया आती है | मैं तुम्हे मुक्त नहीं कर रहा , काल के हवाले कर रहा हूँ | मर्यादा और सत्य की कोई अवतारी सत्ता तुम्हारा विनाश करेगी | ध्यान रखना ! शक्ति नहीं , सत्य ही जीतता है |