6 December 2019

WISDOM ------

    पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  का  कहना  है ---- ' आज  समाज  में  छाई   अनास्था   स्वयं  को  नास्तिक  कहने  वालों  की  वजह  से  नहीं  है   अपितु  उन  आस्तिकों  की  वजह  से  है   जो   बाहर  वैसा  ही  आडम्बर  रचते  हैं  ,  पर  उनके  जीवन  में   वह  कहीं  भी   लेशमात्र  भी  नजर  नहीं  आता   l  आस्तिकता  और  नैतिकता  दोनों  एक  दूसरे  से  घनिष्टता पूर्वक  सम्बंधित  हैं   l   उपासना गृहों   की  संख्या  व  उनमे  जाने  वालों  की  तादाद  बढ़ते  चले  जाने  के  बावजूद   नास्तिकता  तेजी  से  बढ़  रही  है  l   कर्मकाण्ड   के  आडम्बरों  में  उलझा  व्यक्ति  निजी  जीवन  में  अनैतिक   आचरण  करता  देखा  जाता  है  l "
 आचार्य श्री   का  कहना  है ---- ' व्यक्ति  बहिरंग  जीवन  में   धार्मिक   आचरण  करे ,  न  करे    किन्तु  उसके  मानस   का   परिष्कार  तो  होना  ही  चाहिए  l   उसे  यह  समझाना   जरुरी  है   कि   बिना  भावनात्मक    कायाकल्प  के   सारे  बाह्योपचार   निरर्थक  हैं  l  "
   शिवाजी    समर्थ  गुरु  रामदास  के  प्रिय  शिष्य  थे   l   जब  शिवाजी   ने  उनसे  गुरु  दक्षिणा  का  आदेश  देने  के  लिए  निवेदन  किया  तो  समर्थ  गुरु  रामदास  ने  कहा --- '  शिवाजी   !  तू  बल  की  उपासना  कर  ,  बुद्धि  को  पूज , संकल्पवान  बन   और  चरित्र  की  दृढ़ता  को  अपने  जीवन  में  उतार ,  यही  तेरी  ईश्वर  भक्ति  है  l   भारतवर्ष  में  बढ़  रहे  पाप , हिंसा ,  अनैतिकता   और  अनाचार   के  कुचक्र  से  लोहा  लेने   और  भगवान   की  सृष्टि  को  सुन्दर  बनाने  के  लिए  इसके  अतिरिक्त   कोई  उपाय  नहीं  है  l  "
  उन्होंने  ध्वजा  को   शिवाजी   को  थमाते   हुए  कहा  था  --- शिवा  !  इस  ध्वज  को  झुकने  न  देना  l  "
    और  छत्रपति  शिवाजी   ने     उनकी  हर  कदम  पर  उनकी  आज्ञा  का  पालन  किया  l
    जब  उनके  सहयोगी  सोनदेव  ने  कल्याण  के  किले  पर  अधिकार  कर  लिया   और  किलेदार  मुल्ला  अहमद  की    अपूर्व  सुन्दर   पुत्रवधु   गौहर  बानू  को  शिवाजी   के  सामने  दरबार  में  प्रस्तुत  किया   l   तो  शिवाजी  ने  क्रोध  से  गर्जना  करते  हुए  कहा --- "  अपनी  महान  संस्कृति  के  पवित्र  सूत्रों  को  कैसे  भूल  गए  तुम  ?     तुम  अपराधी  हो  नायक  l  "  फिर  वे  सिंहासन  से  उठकर   गौहर  बानू  के  सामने  पहुंचे  और  घुटने  मोड़कर  बैठते  हुए  हाथ  जोड़कर    कहा ---- " माँ  !  अपने  सरदार  द्वारा  किये  गए    अपराध  के  लिए   मैं  आपके  सामने  क्षमा प्रार्थी  हूँ  l    देवि  !   हमारी  देव  संस्कृति  की  पुण्य  शपथ    नारी  माँ  है   l   उसके  अक्षुण्ण   सम्मान   को  विस्मृत  करना   इस  महान  संस्कृति   की  संतति  के  लिए  आत्मघात  है    मैं  आपके  सम्मुख  बार - बार  क्षमा प्रार्थी  हूँ  l "    फिर  उन्होंने  पेशवा   से कहा --- इन्हे  सम्मान  और  सुरक्षा  के  साथ  बीजापुर  भेजने  का  प्रबंध  किया  जाये   l 
आज्ञा    देकर  भी  वे   संतुष्ट  नहीं  हुए  और  स्वयं    बाहर  खड़ी  शानदार  बग्घी   तक  उसे  छोड़ने  आये  l   बग्घी  के  साथ  पांच   सौ    मराठों   की  टुकड़ी    सुरक्षा  के  लिए  जा  रही  थी  l    शिवजी  ने  सभी  नागरिकों , सभासदों  से  कहा -- " देख  रहे  हो  किले  के   कंगूरे  पर  फहरा  रही  ध्वजा   को l     श्री  श्री समर्थ  ने  कहा  था    इस  ध्वज   को  झुकने  न  देना  l   सभी  ने  आँख  उठाकर  देखा ,  ध्वज   ऐसे  फहरा  रहा  था    जैसे    ऊपर  जाकर  सहस्रदल  कमल  खिल  गया  हो  l