29 February 2020

WISDOM-------

   पुरुषार्थ  की  दिशा   यदि  सही  नहीं  है  ,  तो  धुंआधार  काम  कर  के  भी  परिणाम  ' नहीं ' के  बराबर  रहता  है  --- कुछ  व्यक्ति  ऐसे  होते  हैं  , जिन्हे  अपने  प्रयत्न  का  सार्थक  पक्ष  यही  दीखता  है   कि   अपनी  अवांछनीय  परिस्थिति  के  लिए  किसी  अन्य  को  दोषी  ठहरा  दें  l   भगवान   से  लेकर   अपने  आसपास  के  किसी  व्यक्ति  को  उसका  लांछन  देने  ,  उसका  कारण  सिद्ध  करने  में  ही  वह  अपना  सारा  समय  और  सारी    अकल   खर्च  कर  देते  हैं  l
   कुछ  ऐसी  मनोभूमि  के  व्यक्ति  होते  हैं   जो  समस्याओं  के  मूल  कारणों  को  देखते  हैं   और  उन्हें  ठीक  करने  के  लिए  दमखम  के  साथ  उतर  पड़ते  हैं  l   उनके  समय , श्रम  और  सूझबूझ  की  सार्थकता  अधिक  होती  है  l   एक  कारण  का  निवारण  हो  जाने  पर   उनकी  अनेक  कठिनाइयां   अनायास  ही  सरल  होती  चली  जाती  हैं  l
 पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  का  कहना  है  --- बड़े  परिवर्तन  सदैव  सही  दिशा  में  कार्य   करने  वाले  पुरुषार्थियों  द्वारा  संभव  हुए  हैं  l   समझदारी  इसी  में  है  कि   पुरुषार्थ  की  सही  दिशा  तय  कर  लेनी  चाहिए  l  

28 February 2020

WISDOM ---- प्रतिभा का अर्थ है -- वह क्षमता जिसकी दिशा सृजन की ओर हो ---- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

  आचार्य  श्री  लिखते  हैं ---- '  प्रतिभा  की , कला  की , कुशलता  की , विद्दा - ज्ञान - शक्ति  व  सामर्थ्य  की  इस  सृष्टि  में  कमी  नहीं  है  l   अनेकों  ने  अनेक  तरीकों  से  इनका  अर्जन  किया  है  ,  परन्तु  इनमें  से  किसी  का  भी  वे  सदुपयोग  नहीं  कर  पा  रहे   l  सारा  ज्ञान ,  उनकी  समूची  सामर्थ्य   उनके  अहंकार  की  तुष्टि ,  उनके  लिए  भोग - विलास  के   संसाधन  जुटाने  में  खप   रही  है   l  जहाँ  ऐसा  हो  रहा  है  वहां  समझो  असुरता  का  बोलबाला  है  l   असुरों  से  श्रेष्ठ  तपस्वी  इस  सृष्टि  में  अन्यत्र  कहीं   भी  नहीं  मिलते  ,  परन्तु  उनके  तप  का  परिणाम  सदा  ही  विनाशक  होता  है  l   '  
  द्वितीय  विश्व  युद्ध  में    जापान  में  हुए  भीषण  विध्वंस  के  बाद    आइंस्टीन  ने  विश्व  की  सर्वोच्च  वैज्ञानिक  प्रयोगशाला  से  संन्यास  ले  लिया   और  एक  छोटे  से   बाल विद्दालय  में   बच्चों  को  पढ़ाने  लगे  l   उनका  कहना  था  कि   उनकी  ऐसी  मंशा  नहीं  थी  ,  यह  आविष्कार   तो  इसलिए  किया  था  कि   परमाणु     ऊर्जा से  नगर - ग्राम  जगमगा  उठेंगे   l 
  जब   जापान  के  वैज्ञानिकों  का  एक   प्रतिनिधि  मंडल     पहुंचा  ,   तो  उन्होंने  महान  वैज्ञानिक  को  एक  ऋषि   के रूप  में  देखा   l   आइन्स्टीन   ने  उनको  विद्दालय   घुमाना   शुरू  किया   तो  प्रतिनिधि  मंडल  के  मन   में  यह  प्रश्न  उठना  स्वाभाविक  था  कि   क्या  यह  आपकी   प्रतिभा   का दुरूपयोग  नहीं   हो  रहा  है  ?
   आइन्स्टीन   ने  कहा ---- " प्रतिभा  के  बारे  में  बहुत  भ्रम   फ़ैल गया  है , मित्र  l  प्रतिभावान  वह  नहीं  है  जिसने  कोई  बड़ा  पद   हथिया लिया  है  ,  जिसकी  शारीरिक  और  बौद्धिक  क्षमताएं  बढ़ी - चढ़ी  हों  l     एक  शर्त  यह  भी     कि   उसकी  दिशा  क्या  है  l   दिशा  विहीनता  की  स्थिति  में  व्यक्ति   क्षमतावान  तो  हो  सकता  है  ,  किन्तु  प्रतिभावान  नहीं   l  अंतर्  उतना  ही  है  जितना   वेग   गति  में  l  उन्होंने  भौतिक  विज्ञान   की  भाषा  में  समझाया  l   सामर्थ्य  दोनों  में  है , क्रियाशील  भी  दोनों  हैं    पर  एक  को     गंतव्य  का  कोई  पता   ठिकाना  नहीं   और  दूसरा  प्रतिपल  अपने  गंतव्य  की  ओर   बढ़  रहा  है  l 
 क्षमताएं  सभी  के  पास  हैं  ,  इनके  वेग  को  सृजन   की  और  बढ़ती  गति  में  बदलकर    हर  कोई  प्रतिभाशाली  बन  सकता  है  l  "
 प्रश्नकर्ता   ने  पूछा ---  आपकी  प्रतिभा  का  उपयोग ----- ? 
उनका  कहना  था ---- " वह  तो  मैं   मानवीय  जीवन  की  प्रथम  आवश्यकता  की  पूर्ति  में  कर  रहा  हूँ  l   प्रथम  आवश्यकता   स्वादिष्ट भोजन ,  सुख - सुविधाएँ , अणु , परमाणु , रॉकेट लांचर आदि  नहीं  है  l  जीवन   की  प्रथम  आवश्यकता  है    ,  जीवन   कैसे  जिया  जाये ,  इस   बात  की  जानकारी  l   समूची  जिंदगी  कैसे   अनेक  सद्गुणों  की  सुरभि  बिखेरने  वाला  गुलदस्ता   कैसे   बने  ,  इस  बात  का  पता  l 
  इसके  बिना    सभी  कुछ  बन्दर  के  हाथ  में   उस्तरे  जैसा  है  ,  जिसका  उपयोग  वह   सिवा   अपनी  और  दूसरों  की  नाक   काटने  के   और  कुछ  नहीं  करेगा   l   अच्छा  हो  बन्दर  पहले  नाई   बने    फिर  उस्तरा  पकडे  l    अभी  तक  के   अनुभव  के  आधार   पर  प्रतिभा  का  जो   स्वरुप  समझ  में  आया  है  ,  वह  है    प्रकाश  की  ओर   गतिमान  जीवन   l   उसी  के  अनुरूप   इन  बच्चों  को  प्रतिभाशाली  बना  रहा  हूँ    l   उन्हें  मनुष्य  होने  का  शिक्षण  दे  रहा  हूँ  l  "      ' तमसो   मा   ज्योतिर्गमय  '   l 
       

27 February 2020

WISDOM ------

  चरित्र  मनुष्य  की  श्रेष्ठता  का  बहुत  बड़ा  प्रमाण  है  l   चन्द्रशेखर   आजाद  का  सबसे  बड़ा  सम्बल  उनका  चरित्र  था  l   इसको  उन्होंने  सदा  महत्व   दिया   और  इस  धारणा  पर  जीवन  के  अंत  तक  दृढ़   रहे  l   चरित्रहीन  व्यक्ति  से  वे   सदा  घृणा  करते  थे  l   उनके  इस  महान  गुण   की  कुछ  स्वार्थी  तत्वों  ने  खिल्ली  उड़ाई  ,  उसे  आजाद  की  भूल  बतलाया  ,  परन्तु  स्वार्थियों  का  यह  प्रयत्न   अपने  अवगुण  छिपाने  का  प्रयास  मात्र  था  l
   चन्द्रशेखर   आजाद  कहा  करते  थे --- "     ' अपने  प्रति  कठोरता  , दूसरों  के  प्रति  उदारता '   की  नीति   के  अनुरूप    संगठन  के  जिम्मेदार   लोग    व्यवहार   करते  हैं  तभी  तक  संगठन   जीवित  रहता    है   l   सामूहिकता    तभी   बरकरार   रह  सकेगी   जब  तक  किफायतशारी  को  अपनाया   और  महत्वाकांक्षाओं  को  ठुकराया  जाता  रहेगा  l   बड़प्पन  सुविधा  संवर्द्धन  का  नहीं   सद्गुण  संवर्द्धन  का  नाम  है  l   अच्छाई  का  महत्व   समझो  ,  देश  को  हम  लोगों  से  कितनी  आशा  है  l   हम  क्रांतिकारी   माने  जाते  हैं  ,  एक  बड़े  परिवर्तन  के  लिए  प्रयत्नशील  हैं  l  "
  आजाद  अपने  साथियों  से  कह  रहे  थे --- "  क्रान्तिकारी   का  मतलब  जानते  हो   ?  कुछ  चुप  रहकर  वे  बोले ---  जो  वर्तमान  में  भी   भविष्य  में  होने  वाले  परिवर्तन  के  अनुरूप   जी  रहा  हो  l  जिसकी  जिंदगी  के  छोटे - छोटे   क्रियाकलाप  को  देखकर   हर  कोई  कह  सके  ,  अहा  !  ऐसा  होगा  स्वर्णिम  भविष्य   जिसके  लिए  वे  लोग  प्रयासरत  हैं  l  "
   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  वाङ्मय ' महापुरुषों  के  अविस्मरणीय  जीवन  प्रसंग '  में  लिखा  है -----
 "  गुणों  को  हृदय  में  धारण  कर  के   आपत्तिकालीन  धर्म  के  रूप  में   तोड़ - फोड़  भी  स्वीकार  करने  वाले   क्रांतिकारी   देश  के  निर्माण  में  कभी  बाधक  नहीं  बने   और  शान्ति   की  दुहाई  देने  वाले   अंत:करण   के  हीन   व्यक्तित्वों  के  कारनामे   हमारे  सामने  रोज  आया  करते  हैं  ,   फिर  भी  नयी  पीढ़ी  को  बनाने  ढालने  में   हम  उनके   आंतरिक  गठन  की  उपेक्षा  कर  के    अपने  मानसिक  दिवालियेपन  का  नमूना   प्रस्तुत  किये  जा  रहे  हैं   l   "

26 February 2020

WISDOM ----- ईर्ष्या की आग

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है ---- '   ईर्ष्या  की  आग   औरों  का  अहित  तो  करती  है  , समाज  का  भी  अमंगल  ही  होता  है    किन्तु  इससे  ईर्ष्यालु  को   तो  कोई  लाभ  होता  नहीं   l   स्वयं  ईर्ष्यालु  को  यह  आग  हर  क्षण   उसी  प्रकार  जलाती   रहती  है   जैसे  अंगीठी  की  आग  संपर्क  में  आने  वाली  वस्तु  को  कभी - कभी  ही  जला  पाती  है    किन्तु स्वयं  अंगीठी  के  कलेजे  में   हर  क्षण  तपन  भरी  रहती  है  l  इसी  ताप  से  लोहे  की  अँगीठियाँ   भी  थोड़े  ही  समय  में  जल - जलकर   बेकार  होकर  झड़   जाती  हैं   l   ईर्ष्यालु  भी    ईर्ष्या  की  दाहकता  से  निरंतर  तप्त  रहता  है  ,  उसका  मन  व  शरीर   डाह  से  झुलसकर   नि: शक्त   हो  जाता  है  l '
   आचार्य श्री  लिखते  हैं ---- ' ईर्ष्या  का  जन्म  एक  तरह  की  निराशा  से  होता  है   l   यह  निराशा  दूसरे  की  सफलता   को  देखकर   अपने  पीछे  रह  जाने  की   भावना  से    होती  है   l    दूसरे  की  सम्पन्नता  - श्रेष्ठता    के  प्रति  बढ़ी  हुई  ईर्ष्या   स्वयं  की  समृद्धि  और  उत्कृष्टता  का  विचार   नहीं  करती   बल्कि  ईर्ष्यालु  व्यक्ति  दूसरे  के  मार्ग  में  रोड़े   अटकाने   और  उन्हें  किसी  प्रकार  हानि  पहुँचाने  का  प्रयास  करने  में  ही  अपनी  शक्ति   का  अपव्यय  करता  है  l ' 
  समाज  में  फैले  संघर्षों  का  मूल  मुख्यत:  ईर्ष्या  होती  है  l   आज  की  परिस्थितियों  पर  दृष्टिपात  करें  तो  चारों  ओर   ईर्ष्या  का  ही  साम्राज्य  फैला  दिखेगा  l   ईर्ष्या  मन  की  कुटिलता  का    परिणाम  है  l   अन्य  सभी  नष्ट  हो  जाएँ  हम  अकेले  ही  जीवित  रहें   यह  सोचना  ओछापन   है  l
  ' परस्पर  सहयोग  तथा  ' जियो  और  जीने  दो  '    की  नीति   अपनाने  में  ही  सबकी  भलाई  है  l 

WISDOM ----

  स्वामी  विवेकानन्द   ने  अपने  गुरु भाइयों   को  संबोधित   करते  हुए   राखाल   महाराज  से  कहा  था  ---- " राखाल  ! आज  रात्रि    हमें  दिव्य  दर्शन  हुआ  है   l   इस  दिव्य  दर्शन  में  हमने   अपने  देश  भारत  के  अभ्युदय  को  देखा  है  l   भारत  के  समुज्ज्वल  भविष्य  का  साक्षात्कार  किया  है  ------- '  स्वामीजी  जब  ये  सब  बात  कर  रहे  थे  , तब  उनकी  मुख   मुद्रा   वर्तमान  को  पार  कर   भविष्य  को  स्पष्ट  देख  रही  थी   l   वह  बोल  रहे  थे ---- " एक  नवीन   भारत  निकल  पड़ेगा  --- हल  पकड़कर  , किसानों  की  कुटी  भेदकर  ,  मछुए , माली , मोची , मेहतरों   की  कुटीरों  से  l   निकल  पड़ेगा  --- बनिये   की  दुकानों  से  ,  भुजवा  के  भाड़  के  पास  से ,   कारखाने  से , हाट  से  ,  बाजार  से   l   अपना  नवीन   भारत  निकल  पड़ेगा  --- झाड़ियों , जंगलों , पहाड़ों , पर्वतों  से   l   इन  लोगों  ने  हजारों  वर्षों  तक  नीरव  अत्याचार  सहन  किया  है  ,  उससे  पाई  है  अपूर्व  सहनशीलता   l   सनातन  दुःख  उठाया  है  ,  जिससे  पाई  है  ,  अटल  जीवनी  शक्ति  l   यही  लोग  अपने  नवीन   भारत  के  निर्माता  होंगे  l   "  

25 February 2020

मानसिक गुलाम

     वर्षों  तक  गुलाम  रहने  के  बाद  गुलामी  की  आदत  बन  जाती  है  l   बस  !  गुलाम  बनाने  वालों  के  चेहरे  बदल  जाते  है  l  यह  मानसिक  गुलामी   सबसे  बुरी  है  l   मनुष्य  अपने  स्वार्थ , लालच   और  मानसिक  भटकाव  की  वजह  से    अपने  स्वतंत्र  अस्तित्व  को  खोकर  मानसिक  गुलाम  बन  जाता  है   और   दूसरे  उससे   फायदा  उठायें ,  अपना  स्वार्थ  सिद्ध  करें  ,  इसके  लिए  स्वयं  को  प्रस्तुत  कर  देता  है  l  एक  गाने  की  पंक्तियाँ  हैं --- ' बोल   री   कठपुतली   डोरी  कौन  संग  बाँधी  ,  सच  बतला  तू  नाचे  किसके  लिए  ? '
  मानसिक  गुलामी  एक  वृत्ति  है   l   गरीब  व्यक्ति  जिसके  पास  खोने  के  लिए  कुछ  नहीं  है  ,  वह  फिर  भी  स्वाभिमान  से   मेहनत  - मजदूरी  कर  के  जी  लेता  है   l   जिनके  पास   बहुत  कुछ  है  ,  उसके  खो  जाने  का  भय  उन्हें   मानसिक  गुलाम  बना  देता  है  l 

24 February 2020

WISDOM ----- शब्दों की शक्ति

   घटना  उन  दिनों  की  है  जब  एक  नवयुवक  स्वामी  दयानन्द जी  के  पास  पहुंचा  l   उस  समय  स्वामीजी  नाम स्मरण  के   संदर्भ   में  जन   समुदाय  के  समक्ष  भक्तियोग  का  उपदेश  दे  रहे  थे  l   तार्किक , शंकालु  और  अहंकारी   युवक  को   यह  सब  कुछ  अच्छा  नहीं  लगा  l  प्रवचन  के  बीच  में  ही  प्रतिवाद  करते  हुए  वह  बोल  उठा  -- "स्वामीजी , भक्ति  और  भगवन  क्या  होते  है  ?  नाम स्मरण  से  होने  वाला  फायदा  क्या  है ?   यह  शब्दों  का  ही  जाल - जंजाल  मात्र  है  l   इससे  किसी  को  कुछ  मिलने  वाला  नहीं  है  l  "
 स्वामीजी  चाहते  तो  अपना  उपदेश  जारी  रख  सकते  थे  , किन्तु  उन्हें  उस  जिज्ञासु  की  शंका  का  समाधान  करना  था  ,  अत:  वे  बड़े  जोश - खरोश  के  साथ  बोले  --- " पागल  कहीं  का  , जाने  क्या  बक  रहा  है  ?  जानता    भी  नहीं  और  मानता   भी  नहीं  l  अहंकार  इतना  बढ़ा - चढ़ा  है  जैसे  कोई  प्रकांड  पंडित  हो  l  " 
  स्वामीजी  के  इन  अपशब्दों  को  सुनकर  वह  युवक  तिलमिला  उठा   और  कहने  लगा ---- " आप  एक  संन्यासी  की  भांति  लगते  हैं  ,  फिर  भी  आपको  बोलने - चालने   का  सही  ढंग  नहीं  आया  है  l  "
  अब  स्वामीजी  बड़े  सहज  और  शांत  स्वर  में  बोले --- " अरे  भाई  ! आपको  क्या  हो  गया  ?  दो  चार  शब्द  ही  तो  निकले  हैं  l   इससे  क्या  आपको  कोई  विशेष  चोट  पहुंची  ?  यह  कोरे  शब्द  ही  तो  हैं  ,  पत्थर  तो  नहीं  ,  जिनसे  चोट  लगती  और  हड्डी  टूट  जाती  l   आप  स्वयं  भी  तो  कह  रहे  थे  कि   भक्ति  और  भगवान्  शब्द  आडम्बर  के  अतिरिक्त  और  कुछ  नहीं  हैं  l  जब  शब्दों  से  कुछ  बनता - बिगड़ता  नहीं   तो  फिर  आप  इतना  आगबबूला  क्यों  होते  जा  रहे  हैं  ?  "  स्वामी  दयानन्द  जी  ने  युवक  को  समझते  हुए  कहा --- ' परिशोधित - परिष्कृत  होने  पर  शब्द  अमृत  बन  सकते  हैं    और  विकृत  होने  पर  विष  का  काम  कर  डालते  हैं  l  बुरे  शब्दों  की  चोट  ने  जिस  प्रकार  आपको  मर्माहत  कर  घायल  कर  दिया  , ठीक  उसी  प्रकार  भगवान   के  पवित्र  नाम स्मरण  से  व्यक्ति  के  सद्गुण  विकसित  होते  हैं   और  भक्तिरस  से  सरावोर  होने  पर  दुःख - दरद   के  घाव  शीघ्र  भर  जाते  हैं   l   संतप्त  मन  शीतल  और  शांत  बनता  है  l "
 स्वामीजी  के  इस  उपदेश  का  उस  नवयुवक  पर  इतना  गहरा  प्रभाव  पड़ा  कि   वह  श्रद्धा सिक्त  होकर  उनके  पाँव  पर  गिर  पड़ा   और  बोलै --- " गुरुदेव  आपके  कथन  से  मेरी  शंका  पूरी  तरह  मिट  गई   और  वस्तुस्थिति  समझ  में  आ  गई  कि   मंत्रजप , स्तोत्रपाठ , नाम स्मरण  आदि  भाषा  का  विषय  नहीं  है   वरन  व्यक्ति  के  अंतराल   की  भाव - संवेदनाओं   को  जगाने  वाली  अलौकिक  शक्ति  सामर्थ्य  है  ,  जिसके  फलस्वरूप   अहंकार   एवं    अन्य   विकारों  को  विसर्जित   होने  में  जरा  भी  देर  नहीं  लगती   l  "

23 February 2020

WISDOM -----

   एक  राजा  को  सदैव  यह  भय  रहता  था  कि   कहीं  कोई  शत्रु  उस  पर  हमला  न  कर  दे  l   इसलिए  उसने  किले  के  चारों  ओर   बड़ी  दीवारों  का  निर्माण  कराया  ,  जिनके  बीच  में  गहरी  खाइयां  थीं  l   आने  जाने  का  केवल  एक  ही  मार्ग  छोड़ा  , ताकि  कहीं  से  कोई  शत्रु  प्रवेश  न  कर  सके   l   इतना  सब  कर  के  उसे  संतोष  हो  गया  कि   अब  कोई  शत्रु  उसे  मारने  के  लिए   अंदर  प्रवेश  नहीं  कर   सकता  l   अपनी  उपलब्धि  पर  कुलगुरु  की  स्वीकृति  प्राप्त  करने  के  लिए   उसने  उनको  महल  में  आमंत्रित  किया  l   कुलगुरु  ने  पूरा  महल  देखा  फिर  राजा  से  बोले ---- " राजन  ! ये  तो  ठीक  है  कि   इस  महल  में  अब  कोई  शत्रु  प्रवेश  नहीं  कर  सकता  ,  परन्तु  मृत्यु  के  आने - जाने  के  लिए  द्वार  की  आवश्यकता  नहीं  होती  l   उसका  आना  रोकने  के  लिए  तुमने  क्या  व्यवस्था  की   है  ? "  अब  राजा  को  अपनी  भूल  का  भान  हुआ  और  उसे  समझ  में  आया  कि   आत्मा  की  सुरक्षा  ही  सबसे  बड़ी  सुरक्षा  है  , बाहर  के  उपाय  तो  मात्र  मन  की  सांत्वना  के  लिए  हैं   l 

22 February 2020

WISDOM ------ अपने कामों की भूल ढूंढने और सुधारने का कार्य किया जाना चाहिए

   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है ---- ' भूलों  से  कहीं  अधिक  घातक   होते  हैं  बुरे  इरादे  l   इनके  दुष्परिणाम   ज्यादा  बुरे  व  हानिकारक  होते  हैं   l   व्यक्ति  की  नियत  में  भ्रष्टता  के  तत्व   घुस  पड़ते  हैं  l   बाद  में  ये  ही  जाने - अनजाने   ऐसे  कृत्य  कराते   हैं  ,  जिन्हे  भूलें  कह  देने  भर  से  काम  नहीं  चलता   l   दुष्ट  इरादों  का  विष   इनमे  साफ़  झलकता  है  l  l   ये  इरादे  ही  मनुष्य  के   वास्तविक  व्यक्तित्व  का  सृजन  करते  हैं  l   चिंतन  इसी  आधार  पर   दिशा  पकड़ता  है  और  गतिविधियों  का  निर्माण   इसी  प्रेरणा  से  बन  पड़ता  है   l '
  आचार्य  श्री   लिखते  हैं ----   ये  इरादे  सकारात्मक  हैं  तो  अध्यात्म  की  भाषा  में  इन्हे   श्रद्धा  या  आस्था  आदि  नाम  से  पुकारा  जाता  है   l   ईमान  या  नियत  इसी  का  नाम  है  l
  यदि  ये  अनैतिक  व  असामाजिक  हैं    तो  उनका  निराकरण  व्यक्ति  को    स्वयं  ही  करना  चाहिए  l 
जिस  प्रकार  दूसरों  का  पर्यवेक्षण  तीखी  दृष्टि  से  किया  जाता  है  ,  उसी  तरह  अपना  भी  किया  जा  सके  तो   वे   कमियां  भी  समझ  में  आती  हैं    जो   सामान्य  क्रम  में  दिखाई  ही   नहीं  पड़ती   l   आत्म समीक्षा  जरुरी  है   और  इसका  पहला  चरण  है -- --अपनी  नियत  में   मानवीय  स्तर  से  नीचे  के   जो  भी  तत्व  घुस  पड़े  हों   उन्हें  समझा  जाये   और  उन्हें  निरस्त  करने  का  दृढ़   निश्चय  किया  जाये  l 

21 February 2020

WISDOM -------

  शिव  भारतीय  धर्म  के  प्रमुख  देवता  हैं  l   शिव  नीलकंठ  हैं   l   शिवजी  ने  हलाहल  विष  को  धारण  किया  ,  न  उगला  ,  न  पिया  l 
  शिक्षण  यही  है  कि   विषाक्तता   को  न  तो  आत्मसात  करें   और  न  ही  उसे  विक्षुब्ध  होकर  उछालें  l 
   हमारे   पुराणों  में  लिखा  गया  प्रत्येक  अक्षर  समाज  को  शिक्षण  देता  है  --- शिक्षण  यही  है  कि   समाज  में  होने  वाली  नकारात्मक   घटनाएं  जो  लोगों  के  मन  में  , विचारों  में  विष  घोलती  हैं ,  उनका   विस्तार  से  प्रचार - प्रसार  न  करें ,  अपराधी  प्रवृति  के  लोग    अपराध  में  और   सक्रिय    हो  जाते  हैं  l
  सकारात्मक  कार्यों  का  , श्रेष्ठ  विचारों  का  प्रचार - प्रसार   बड़े  पैमाने  पर   होना चाहिए   तभी   मानसिक    तनाव  कम    होगा ,  लोगों  का  मन  शांत  होगा  l 

20 February 2020

WISDOM ----- हम सब एक ही मोतियों के हार में गुँथे हुए हैं

 एक  बार  पर्शिया  के  नागरिक  बहुत  परेशान   हो  गए  , क्योंकि  पक्षी  उनके  खेतों  का  अनाज  खा  जाया  करते  थे  l   परेशां  नागरिक  अपना  कष्ट  लेकर  राजा  फ्रेडरिक  के  पास  पहुंचे  l   सुनकर  राजा  को  बहुत  क्रोध  आया  l   उसने  तत्काल  राज्य  के  सभी  पक्षियों  को  मारने  की   घोषणा  कर  दी  l   पक्षियों  के  मारे  जाने  पर   नागरिकों  ने  उत्सव  सा  मनाया  और  यह   सोचा  कि   उनकी  सारी   समस्याओं  का  अंत  हो  गया  l   लेकिन  अगले  वर्ष  खेतों  में  अनाज  बोने    पर  एक  दाना  भी  नहीं   उगा  l  राजा  ने  कारण  पता  लगवाया  तो  पता  चला  कि  मिटटी  में  जो  कीड़े  थे  ,  उन्होंने  बीजों  को  ही  खा  लिया   था  l  पहले  इन  कीड़ों  को  पक्षी  खा  जाते  थे  ,  जिससे  बीज  सुरक्षित  रहते  थे  ,  लेकिन  इस  बार  पक्षियों  के  न  रहने  से   फसल  के  होने  से  पहले  ही  त्राहि - त्राहि  मच  गई   l  जब  यह  कारण  सबको  पता  चला  तो  राजा  से  लेकर   सामान्य  नागरिक  तक  ,  हर  कोई  अपनी  नादानी  पर  पछताया  l   उन्हें  महसूस  हुआ  कि   इस  सृष्टि  में  सभी  प्राणी   एक  दूसरे  पर  निर्भर  हैं  ,  यहाँ  पर  परमात्मा  ने  कोई  भी  प्राणी  व्यर्थ  नहीं  बनाया   और  सभी  मिलकर  सृष्टि चक्र   में  सहयोग  करते  हैं   l   इसमें  से  किसी  एक  को  भी  हटाना  ,  प्रकृति  की  व्यवस्था  में  गतिरोध  पैदा  करना  है  ,  जिसका  दुष्परिणाम   प्रत्येक  को  भुगतना  पड़ता  है  l   दूसरे  राज्य  से  पक्षी  बुलाए   गए  ,  तब  जाकर   राज्य  की  कृषि  व्यवस्था  सही  हो  पाई  l 

19 February 2020

WISDOM ----- अनीति का साम्राज्य देर तक नहीं टिकता

  प्रकृति  में  जहाँ  पात्रता  के  अनुरूप  अनुदान - वरदान मिलने ,  अनायास  सहयोग  मिलने  का  विधान  है  ,  वहीँ  दुष्ट - दुराचारियों  ,  अत्याचारियों  को   उनके  कुकृत्य  के  लिए  भयंकर  दंड  व्यवस्था  भी  है  l   दूसरों  के  विनाश  का  तानाबाना  बुनने  वाले  स्वयं  भी  नहीं  बच  पाते   l   स्वामी  विवेकानंद  ने  एक  स्थान  पर  उल्लेख  किया  है  कि   स्थूल  जगत  की  तरह  एक  सूक्ष्म  जगत  भी  है   और  उससे  हम  उसी  प्रकार  घनिष्ठ  रूप  से  संबद्ध   हैं , जिस  प्रकार  भौतिक  जगत  से   l  वे  कहते  हैं  कि   हमारे  इर्द - गिर्द   हर  वक्त   अनेकों  सत्ताएं  मंडराती  रहती  हैं  , पर  हमारा  संपर्क  सिर्फ  उन्ही  सत्ताओं  से  हो  पाता   है   जिनकी  आवृति  से  हमारी  चिंतन - चेतना  की  आवृति  मेल   खाती    है  l   आज  सर्वत्र  आपाधापी   और  विनाशकारी  वातावरण  दिखाई  देता  है   l अधिसंख्यक  लोग  अनैतिक  कार्यों  में  रूचि  लेते  दिखाई  पड़ते  हैं  l   इसका  प्रमुख  कारण  यह  है  कि   चिंतन  की  नकारात्मकता  के  कारण   सूक्ष्म  जगत  की  आसुरी  शक्तियां  उन  पर  सवार  होती  हैं   और  विनाशकारी  कुचक्र   रचने  की  प्रेरणा   भरती   हैं   l  इतिहास  साक्षी  है  कि   जिन  व्यक्तियों  ने  मनुष्य  और  समाज  के  लिए  क्रूरतम  कार्य  किये  ,  उन  पर  सदा  असुर  सत्ताएं  छाई   रहीं  और  अंतत :  वही  उनके    अंत  का  कारण  बनीं  l 
  हिटलर , तैमूर लंग ,  नादिरशाह ,  रोम  का   शासक  नीरो    आदि  अनेक  आततायियों  का  अंत  भी  दर्दनाक  हुआ  l 

18 February 2020

WISDOM ----- जिन पर धर्म - संस्कृति की रक्षा का भार है , उन्हें तो और भी सतर्क होना चाहिए

  इस  तथ्य  को  समझाने   वाली  एक  कथा  है ------  बोधिसत्व  एक  दिन  सुन्दर  कमल  के   तालाब   पास  बैठे  वायु सेवन  कर  रहे  थे  l   सुगंध  इतनी  आकर्षक  थी  कि   वे  सरोवर  में  उतारकर  कमल  के  निकट  जाकर  गंध पान  कर  तृप्त  हो  रहे  थे  l   तभी  किसी  देवकन्या  का  स्वर  सुनाई  दिया --- " तुम  बिना  कुछ  दिए  ही    इन  पुष्पों  की  सुरभि  का  सेवन  कर  रहे  हो  l   यह  चोर  कर्म  है , तुम  गंध  चोर  हो   "  l   तथागत  उसकी  बात  सुनकर  आश्चर्यचकित  रह  गए   l   तभी  एक  व्यक्ति  आया   और  सरोवर  में  घुसकर  निर्दयता पूर्वक   फूल  तोड़ने  लगा   l   उसे  रोकने  के  लिए  किसी  ने  मना  नहीं  किया   l   तब  बुद्ध देव  ने  उस  कन्या  से  कहा ---' मैंने  तो  केवल  गंधपान  ही  किया  , पुष्प  नहीं  तोड़े , तब  भी  तुमने  मुझे  चोर  कहा   जबकि  उस  व्यक्ति  ने  निर्दयता पूर्वक  तालाब  में  घुसकर  कमल पुष्प  तोड़े - मरोड़े  ,  किसी  ने  उसे   मना    भी  नहीं  किया  l  ' 
 तब  वह  देवकन्या   गंभीर  होकर  कहने  लगी ---- " तपस्वी  !  लोभ  तथा  तृष्णाओं  में  डूबे    संसारी  मनुष्य  ,  धर्म  तथा  अधर्म  में  भेद  नहीं  कर  पाते  l  अत :  उन  पर  धर्म  रक्षा  का  भार  नहीं  है   किन्तु  जो  धर्मरत  हैं  , सद - असद  का  ज्ञाता  है  ,  नित्य  अधिक  से  अधिक  पवित्रता  तथा  महानता  के  लिए  सतत  प्रयत्नशील  है  l   उसका  तनिक  सा  पथ भ्रष्ट  होना   एक  बड़ा  पातक  बन  जाता  है  l  "  बोधिसत्व  ने  मर्म  को  समझ  लिया   और  उन्हें  पश्चाताप  हुआ   l 

WISDOM ----

  '  अशुद्ध   वह  नहीं  करता   जो  कुछ  मुंह  में  जाता  है  ,  अशुद्ध  वास्तव   में  वह  करता  है   जो  मुंह  से  बाहर  निकलता  है  l   क्योंकि  जो  मुंह  में  जाता  है   वह  पेट  में  पचकर   मल   होकर  निकल  जाता  है  l   किन्तु  जो  कुछ  मुंह  से  निकलता  है   वह  मन  की  गंदगी  की  गवाही  देता  है   और  वही  मनुष्य  को  गन्दा  करता  है   l   गाली , असत्य , निंदा ,  चुगली   आदि  विकार   मुख   द्वारा   मन  से  निकलते  हैं   और  यही  मनुष्य  को  अशुद्ध  बनाते  हैं   l   बिना  हाथ  धोये  भोजन  करना  उतना  अशुद्ध  नहीं  है  जितना  कि   गन्दी  बात  कहना  l   इसलिए  मैं  तुमसे  कहता  हूँ   कि   बाह्य  क्रियाओं  से  पूर्व   अपने  मन  को  शुद्ध  करने  का  यत्न  करो   l   क्योंकि  पिता  के  स्वर्ग  राज्य  में   तन  की  नहीं  मन  की   शुद्धता  पर  विचार  किया  जाता  है  l' --------  सेंटपाल 

17 February 2020

WISDOM ----- सकारात्मक सोच

      जिसकी  सोच  सकारात्मक  होती  है   वह  अपनी  निंदा  सुनकर  कभी  विचलित  नहीं  होता ,  उस  बुराई  में   भी  अच्छाई  देख  लेता  है    l -----   एक  बार  गांधीजी   ट्रेन  से  जा  रहे  थे ,  अजमेर  स्टेशन  पर  एक  सज्जन  चढ़े  और   वहीँ  खड़े - खड़े  गांधीजी  को  बुरा - भला  कहने  लगे   l   बापू  उनकी  बातें  सुनते  हुए  बोले   कृपया  बैठ  जाएँ ,  इससे  आप  को  सुनाने  में  सुविधा  होगी  और  मुझे  सुनने  में   l   तभी  गार्ड  ने  सीटी   दी  और  गाड़ी   ने  प्लेटफार्म  छोड़  दिया  l  उन  महाशय  को  इसका  कोई  ख्याल  नहीं  रहा ,   उनका  आलोचना  करना  जारी  रहा  l   तभी  टिकट  चेकर  ने  डिब्बे  में  प्रवेश  किया  और  टिकट  माँगा  ल अब  ये  आलोचक  महोदय  घबरा  गए   l   तत्काल  गांधीजी  कह  उठे --- "  यह  मेरे  साथ  हैं  l   अभी  अजमेर  से  सवार  हुए  हैं  जल्दी  के  कारण  टिकट  नहीं  बन  सका  l   इसलिए  इनका  टिकट  बना  दीजिए  l " और  गांधीजी  ने  उनका  टिकट  बनवा  दिया  l  टिकट  बनाकर   टी.  टी. जैसे  ही  आगे  बढ़ा  , गांधीजी  ने  सहज  भाव  से  आलोचक  से  कहा --- आप  अपनी  बात  जारी  रखिये  l
  लेकिन  अब  आलोचक  महोदय  से  कुछ  कहते  नहीं  बन  रहा  था   l  गांधीजी  के  कारण  वह   अपनी  फजीहत  होने  से  बच  गया   l   वह  सोच  रहा  था   कि   कैसा  विचित्र  व्यक्ति  है  यह   जो  आलोचक  के  प्रति  भी  मैत्री  भाव  रखता  है  l   बापू  ने  उसके  असमंजस  को  भाँप   लिया   और  कहा ---- ' प्रत्येक  में  दोष  भी  रहते  हैं  और  गुण   भी  l   मेरी  भी  यही  स्थिति  है  l   पर  वास्तविक  मनुष्य  वही  है   जो  अपने  दोषों  को  खोजकर   उनके  निवारण  का  प्रयत्न  करे  l   आपने  दोषों  को  खोजने  में  मेरी  मदद  की  ,  अत:  आपसे  बड़ा  मित्र  और  कौन  होगा  l  "

16 February 2020

WISDOM -----

   जिज्ञासु   ने  पीर  फकीर   से  पूछा  कि   ईमानवाला  और  अल्लाह  का  प्यारा  बनने   का  मार्ग  बताने  की  कृपा  करें  l   फकीर   ने  उसे  कब्रिस्तान  भेजा   और  कहा   सभी  कब्रों  के  मुर्दों  को  गालियाँ   देकर  आओ  l   उसने  वैसा  ही  किया  l  दूसरे  दिन  फिर  उससे  वहीँ  जाने  को  कहा   और  आदेश  दिया   कब्रों  पर  फिर  जाये   और  मुर्दों  को  उनकी  भरपूर  प्रशंसा  सुनाये  l   जिज्ञासु  ने  वैसा  ही  किया  और  वापस  लौट  आया  l   फकीर  ने  पूछा  कि   इस  निंदा  और  प्रशंसा  से  उन  कब्रों  पर  कोई  फर्क  पड़ा  क्या  ?  जिज्ञासु  ने  उत्तर  दिया --- ' नहीं '  l   तब  फकीर   ने  समझाया  कि  --   " बन्दे  !  लोगों  की  निंदा  , प्रशंसा  ही   मनुष्य  को  विचलित  करती   रहती   है  और  अल्लाह  से  दूरी   बढ़ाती  है  l   यदि  कोई   निंदा   प्रशंसा  की  परवाह  किए   बिना   मात्र  अपने  कर्तव्यों  को  देखे   और  एक  निष्ठा   भाव  से  कल्याण  मार्ग  पर  चले   तो  उसे  लक्ष्य  तक  पहुँचने  का  राजमार्ग  मिल  जायेगा   l 

15 February 2020

WISDOM -----

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है --- "  प्रतिभा  ईश्वर  प्रदत्त  एक  ऐसा   उपहार  है   जो  हर  व्यक्ति  को  ,  उसने  बिना  किसी  भेदभाव  के  बांटा  है  l   अब  यह  उस  व्यक्ति  पर  निर्भर  है  कि  वह  उस  क्षमता  का  विकास  किस  प्रकार  कर  लेता  है  l  '
आचार्य श्री  लिखते  हैं --- ' प्रतिभाशाली  होने  का  अर्थ  है ---- विनम्र , साहसी  एवं   संकल्पवान  बनना  l   इसके  अभाव  में  मनुष्य   महानता  के  उच्च  सोपानों  को  प्राप्त  नहीं  कर  सकता  l '
   संसार  में  जितने  भी  प्रतिभाशाली  महापुरुष  हुए   हैं , अत्यंत  निर्धनता  की  स्थिति   में  भी  वे   पीड़ा  और  पतन  निवारण   के  अपने  कार्य  से  च्युत  नहीं  हुए  l  यद्द्पि  धन  का  लालच , पद  का  प्रलोभन   एवं   उच्च  वर्ग  के  दबाव  उन  पर  कम   नहीं  थे  ,  फिर  भी  वे  जीवन  भर  उसका  साहस पूर्वक  सामना  करते  रहे   और  प्रेम , सम्मान  और  चरित्र  से  प्रेरित  होकर  कार्य  करते  रहे  l
  अंग्रेज  शासक  चार्ल्स  द्वितीय  के  सांसदों  में   मार्वल  एक  ऐसा  प्रतिभाशाली  सदस्य  था   जिससे  निरंकुश  शासक  को  अपनी  सत्ता  छिन   जाने  का  सतत   भय  बना  रहता  था  l   जनता  उसके  विरुद्ध  थी  और  उसका  नेतृत्व   मार्वल  के  हाथों  में  सुरक्षित  था  l  राजा  ने  सभी  प्रमुख  व्यक्तियों  को  कामिनी - कांचन   का  प्रलोभन  देकर  अपने  पक्ष  में  कर  लिया   फिर  भी  मार्वल  को  वह  अपनी  मुट्ठी  में  न  ले  सका  l   चार्ल्स  के  लाखों  प्रयत्न  भी  उसे   उसके  कर्तव्य पथ  से  विचलित  न  कर  सके  l   उसका  कोषाध्यक्ष  डेनवी   जब  एक  लाख  पौंड  लेकर  सांसद   के  पास  पहुंचा   तो  उसने  यह  कहते  हुए  वापस  कर  दिया  --- " मैं  यहाँ  उन  लोगों  की  सेवा  करने  आया  हूँ  जिन्होंने  मुझे  चुन  कर  भेजा  है  l   अपनी  स्वार्थ पूर्ति  के  लिए   राजा  किसी  और  मंत्री  को  चुन  ले  ,  मैं  उनमे  से  नहीं  हूँ  l  "   मार्वल  की  सादगी  और  चरित्र  निष्ठा   आज  भी  लोगों  के  लिए  प्रेरणा  का  स्रोत  बनी   हुई  है  l   उसकी  समाधि   पर  अंकित   ये  शब्द  आज  भी  कितने  सार्थक  हैं ----- " अच्छे  लोग  उससे  प्यार  करते  थे  ,  बुरे  लोग  उससे  डरते  थे  ,  कुछ  लोग  उसका  अनुकरण  करते  थे   परन्तु  उसकी  बराबरी  करने  वाला  कोई  न  था  l "

14 February 2020

WISDOM ---- लोकसेवा की ताकत

  पुराण  की  एक  कथा  है ----  भगवान   श्रीराम  के  पूर्वजों  में  से  एक  थे -- राजा  चक्कवेण  l   वे  बड़े  प्रतापी  राजा  थे   और  उनकी  प्रजा  भी  बड़ी  सुखी - समृद्ध  थी  ,  परन्तु  वे  स्वयं  एक  झोंपड़ी  में  रहते  थे  l   राज - काज  से  जो  समय  मिलता   उसमे  वे   अपने  जीविकोपार्जन  के  लिए  खेती  कर  लेते  l   उनकी  धर्मपत्नी  भी   बड़ी  सादगी  से  रहतीं  l   जब  कभी  किसी  काम  से  बाहर  जातीं ,  तो  नगर  की  धनाढ्य  स्त्रियां  उन्हें  टोकतीं  कि   आप  हमारी  महारानी  हैं,  परन्तु  आपके  शरीर  पर  कोई  आभूषण  नहीं  है  l   महाराज  अपनी  मर्यादा  में  ऐसा  नहीं  करते  हैं   तो  आप  हमें  आदेश  दें  , तो  हम  आपके  लिए  आभूषण  बनवा  दें  l   नगर  की  स्त्रियों  के  बार - बार  कहने  से  प्रभावित  होकर  महारानी  ने   आभूषणों  की  बात  महाराज  चक्कवेण   से  कह  दी  l
  महाराज  यह  सुनकर  चिंता  में  पड़   गए  ,  उन्होंने  कहा  महारानी  आभूषणों  के  लायक   तो  हमारी  स्थिति  नहीं  है  ,  फिर  भी  तुमने  जीवन  में  पहली  बार   मुझसे  कुछ  माँगा  है  ,  तो  कुछ  तो  करना  ही  होगा  l   उसके  बाद   महाराज  ने  अपने  प्रधानमंत्री  को  बुलाया   और  कहा --- " हम  अपने  सुख  के  लिए  राज्य  की  जनता  से  अधिक  कर  वसूल  नहीं  सकते  l   तुम  ऐसा  करो  कि लंका  के  राजा  रावण  से  कर  वसूल  करो l   उसने  स्वर्ण  की  बहुत  जमाखोरी  की  है  ,  इसलिए  उसी  से  तुम  स्वर्ण   ले  आओ  l  "  मंत्री  राजा  की  बात  मानकर  लंका  गया  l    वहां जाकर  उसने   रावण  से  कहा --- " हमारे  महाराज  चक्कवेण   ने  तुमसे  कर  लेने  के  लिए  भेजा  है  l   दम्भी  रावण  यह  सुनकर  बहुत  हँसा   और  बोलै   तुम्हारे  भिखारी  राजा   की  यह  मजाल  कि   रावण  से  कर  वसूल  करने  की  सोचे  l "
  रावण  की  यह  बात  सुनकर  प्रधानमंत्री  ने  कहा --- " रावण  तुम  अभी  हमारे  महाराज  के  प्रभाव  से  अपरिचित  हो   इसलिए  तुम्हे  कुछ  नमूना  दिखा  ही  देते  हैं  l   ऐसा  कहते  हुए  उसने  कहा --- "  यदि  हमारे  महाराज  चक्कवेण   सच्चे  लोकसेवी  और  तपस्वी  हैं   तो  लंका  का  उत्तरी  और  दक्षिणी  हिस्सा  ध्वस्त  हो  जाये  l "  प्रधानमंत्री  के  ऐसा  कहते  ही  सोने  की  लंका  ढहने  लगी  l   न  कोई  सेना  और  न  कोई  मन्त्र शक्ति  ,  सिर्फ  सच्ची  लोकसेवा  के  साथ   तप  और  त्याग  का  ऐसा  प्रभाव  l   रावण  इसे  देखकर  चमत्कृत  भी  हुआ  और  प्रभावित  भी   l    उसने बहुत  सारा  स्वर्ण  प्रधानमंत्री  को  देकर  विदा  कर  दिया  l    प्रधानमंत्री  ने  वापस  घर  पहुंचकर  यह  घटना  अपने  महाराज व  महारानी  को  सुना  दी  l
     प्रधानमंत्री  द्वारा  यह  घटना  सुनने  के  बाद   महाराज  चक्कवेण   ने  महारानी  से  कहा --- ' महारानी  !  सच  आपके  सामने  है  l   अब  आप  चाहें  तो  आभूषण  पहन  लें , लेकिन  आपके  आभूषण  पहनते  ही   मेरी  सच्ची  लोकसेवा  और  तपस्या  का  यह  प्रभाव  नष्ट  हो  जायेगा  l  "  यह  विचित्र , किन्तु  सत्य  सुनकर  महारानी  को  यथार्थ  समझ  में  आ  गया ,  उन्होंने  आभूषण  पहनने  से  स्पष्ट  इनकार   कर  दिया  l  इस  पर  महाराज  ने  कहा ---- " महारानी ,  तप - त्याग , सादगी , सदाचार  ही  लोकसेवी  की  सच्ची  सम्पति  है  l  "  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य  जी  का  कहना  था --- " लोकसेवा  की  सफलता  इस  बात  पर  निर्भर  करती  है  कि   उसके  लोकसेवी   आम  जनता  की  जिंदगी  से  कितना  जुड़े  हैं  l   गरीब  जनता  से  दूर  ऐशोआराम  में  रहने  पर   उनकी  आँखों  पर  पट्टी  चढ़  जाती  है    और  वे  जनता   की  दुःख , तकलीफों  को  देखना  बंद  कर  देते  हैं   l   फिर  धीरे - धीरे  लोकसेवा  व्यवसाय  बन  जाती  है    और  लोकतंत्र  भ्रष्टतंत्र  बन  जाता  है  l  "     

13 February 2020

WISDOM ----- बुराइयों से निपटने के लिए सामूहिक प्रयास जरुरी है

     पं. श्रीराम  शर्मा   आचार्य जी  ने  लिखा  है ---- '  बुराइयों  के  प्रति  व्यूह  रचना   संगठित  प्रतिकार   आज  की  सामयिक  आवश्यकता  है   l  धार्मिक  क्रियाओं  के  नाम  पर   मूढ़ मान्यताएं  और  परम्पराओं  के  नाम  पर   कुरीतियां  तभी  तक  हैं  ,  जब  तक  हम  उन्हें  गले  का  हार  समझकर  लिपटाएँ   हैं   l   जिस  क्षण  से  असलियत  पहचानी  ,  उन्हें  विषदंश   करने  वाला    सांप  समझकर   उतार  फेंकने   के  लिए  सामूहिक  प्रयास  शुरू  करने  चाहिए   l   ऐसा  प्रयास  करते  ही  समूचा  समाज  स्वस्थ  होता  दिखाई  पड़ेगा   l     पर  इस  युगांतकारी  कार्य  के  लिए  शक्ति  का  स्रोत    संगठन , साहस ,  सावधानी  और  मनोबल  में  है   l   ये  महती  शक्तियां  हैं   जिसके  आधार  पर   नवयुग  का  सृजन  बन  पड़ेगा   l  '
  आचार्य श्री  लिखते  हैं ---- ' बुराइयाँ   भी  अच्छाइयों  के  आधार  पर  खड़ी  होती  हैं   और  इन्ही  से  अपना  पोषण  प्राप्त  करती  हैं   l   बुरे  व्यक्ति -- डाकू , अनैतिक  कार्य  करने  वालों   में  भी  कुछ  विशेषताएं  हैं   जो  उनकी  शक्ति  का  स्रोत  हैं --- संगठन , साहस , सावधानी  और  मनोबल --- इन   चार   विशेषताओं  के  कारण  ही   दुष्टता  तेजी  से  पनपती  है  l '
  अच्छाई  और  बुराई  में   यही  अंतर  है   कि   बुराई  मजबूती  से  संगठित  है , सावधान  है  और  उनमे  साहस  है   लेकिन  अच्छाई  संगठित  नहीं  है   इसलिए   उनका  मुकाबला  नहीं  कर  पाती  l   यदि  अच्छाई  भी  इन  विशेषताओं  को  अपने  भीतर  विकसित  कर  ले   तो  बुराई  के  साम्राज्य  को  ध्वस्त  कर  दे  l

12 February 2020

WISDOM-----

    पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है ----  ' वास्तविकता  बहुत  देर  तक  छिपाए   नहीं  रखी   जा  सकती  l  व्यक्तित्व  में  इतने  अधिक  छिद्र  होते  हैं  कि   उनमे  से   हो कर   गंध   दूसरों  तक  पहुँच  ही  जाती  है   l   इसलिए  कमजोरियों  पर , गंदगी  पर  आवरण  न  डालकर   उसके  निष्कासन  के , स्वच्छता  के  प्रयासों  में  निरत  रहना  चाहिए  l '

11 February 2020

WISDOM ------

   पुराण  की  एक  कथा  है   जो  हमें  यह  समझाती   है  कि   सज्जनों  का , सत्पुरुषों  का  तिरस्कार  मत  करो , उन्हें  मत  सताओ ,  क्योंकि  सज्जनों  को  सताकर   कोई  भी  नष्ट  हो  सकता  है ------
  ' नहुष  को  अपने  पुण्य  फल  के  बदले  इंद्रासन   प्राप्त  हुआ  l   वे  स्वर्ग  में  राज  करने  लगे  l   ऐश्वर्य  और  सत्ता   का  मद   जिन्हे  न  आवे  ,  ऐसे  कोई  विरले  ही  होते  हैं  l   नहुष  भी  सत्ता  के  मद  से  प्रभावित  हुए  बिना  न  रह  सके  l    उनकी  दृष्टि  रूपवती  इन्द्राणी  पर  पड़ी  l   वे  उसे  अपने  अंत:पुर  में  लाने  की  विचारणा  करने  लगे   l   प्रस्ताव  उनने  इन्द्राणी  के  पास  भेजा   l   इन्द्राणी  बहुत  दुःखी   हुईं   लेकिन  उन्होंने  विवेक  और  बुद्धि  से  काम  लिया  और  चतुरता  बरती  l    उन्होंने  नहुष  के  पास  संदेश   भिजवाया   कि  वे  सप्त ऋषियों  को  पालकी  में  जोतें  और  उस  पर  चढ़कर  मेरे  पास  आवें  ,  तो  प्रस्ताव  स्वीकार  कर  लूंगी   l 
  आतुर  नहुष  ने   अविलम्ब  वैसी  व्यवस्था  की ,   ऋषि  पकड़  बुलाए ,  उन्हें  पालकी  में  जोता  और  उस  पर  चढ़  कर  बैठ  गए  l  उन्हें  इन्द्राणी  के  पास  पहुँचने  की  जल्दी  थी , सत्ता  का  नशा  था  और  कामांध  भी  थे  ,  ऋषियों  से  कहने  लगे --' जल्दी - चलो '  ' जल्दी  चलो '  l
  दुर्बलकाय  ऋषि   दूर  तक  इतना  भार  ढो  कर  तेज  चलने  में  समर्थ   न  हो  सके  l   अपमान  और  उत्पीड़न   से  क्षुब्ध  होकर  उन्होंने  पालकी  पटक  दी   और  एक  ने  कुपित  होकर  शाप   दे  ही  डाला --- " दुष्ट  !  तू  स्वर्ग  से  पतित  होकर   पुन:  धरती  पर  जा  गिर  l  "  शाप  सार्थक  हुआ  ,  नहुष  स्वर्ग  से  पतित  होकर  मृत्युलोक  में   दीन - हीन   की  तरह  विचरण  करने  लगे  l
  इंद्र   पुन:  इंद्रासन   पर  बैठे   l   उन्होंने  नहुष  के  पतन  की  सारी   कथा  ध्यानपूर्वक  सुनी   और  इन्द्राणी  से  पूछा --- " भद्रे  !  तुमने  ऋषियों  को  पालकी  में  जोतने   का  प्रस्ताव  किस  आशय  से  किया  था  ? "
शची  मुस्कराने  लगीं   और  बोलीं --- "  नाथ ,  आप  जानते  नहीं  ,  सत्पुरुषों  को  सताने  और  उनका  तिरस्कार  करने  से  बढ़कर  ,  सर्वनाश  का   कोई  दूसरा  कार्य  नहीं  l   नहुष  को  उसकी  दुष्टता  समेत   शीघ्र  ही  नष्ट  करने  वाला   सबसे  बड़ा  उपाय  मुझे  यही  सूझा ,  और  वह  सफल  भी  हुआ  l "  देवसभा  में  सभी  ने  शची  से  सहमति  प्रकट   कर  दी  l  सज्जनों  को  सताकर   कोई  भी  नष्ट  हो  सकता  है ,  फिर  नहुष  ही  इसका  अपवाद  कैसे  रहता   ?  

9 February 2020

WISDOM ----- ईर्ष्या के विष से दूर रहें

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  का  कहना  है  कि  ----- ' ईर्ष्या  इनसान   से  हैवान  की  ओर -- पतन  की  राह  पर  धकेल  देती  है   l   यह  इंसानियत  की  विशेषता  नहीं   वरन  नर पिशाच  - नर  कीटक  का  मूल्यहीन    मानदंड  है  l '
  मानव  मन  के  मर्मज्ञ  मानते  हैं  कि   ईर्ष्या  का  प्रार्दुभाव  एक  समान   स्तर  पर  होता  है   l   एक  ही  कक्षा  में  पढ़ने  वाले  छात्रों  के  बीच  ,   एक  ही  विषय  लेने  वालों  के  बीच   ईर्ष्या     होती  है  l   इसी  प्रकार   कार्यालय  में  काम  करने  वाले   एक  समान   पद  वालों  के  बीच  ईर्ष्या  पैदा  होती  है   l   ऑफीसर   की  क्लर्क  के  साथ  या  क्लर्क  की  चपरासी  के  साथ  ईर्ष्या  नहीं  होती  l 
  आचार्य श्री  लिखते  हैं ---  हम  जिससे  ईर्ष्या  करते  हैं  ,  उसके  जैसा  बनना  चाहते  हैं  l   ऐसा  न  बन  पाने  की  अतृप्ति  हमें  ईर्ष्यालु  बना  देती  है  l  हम  उस  व्यक्ति  की  विशिष्टता  को  सम्मान  नहीं  दे  पाते  जो   हमारे  अंदर  नहीं  है   l   जिससे  हम  ईर्ष्या  करते  हैं   उसकी  निंदा  करने  से  भी  नहीं   चूकते   और  साथ  में  यह  भी  चाहते  हैं   कि   लोग  उसकी  घोर  उपेक्षा  करें  ,  उसे  प्रताड़ित  करें   l   और  जब  कभी  ऐसा  होता  है  ,  तो  हमें  एक  अजीब  सी  ख़ुशी  मिलती   है  l   
          बिना  वजह   सिर्फ  ईर्ष्या  के  कारण  किसी  की  उपेक्षा  करना  , उसे  प्रताड़ित   करना  ऐसा  दुर्गुण  है  जो  ईर्ष्यालु  व्यक्ति  को  हैवान  बना  देता  है   l   ईर्ष्यालु  व्यक्ति  को  तो  हम  नहीं  सुधार  सकते ,  न  ही  समझा  सकते    l  लेकिन  उसकी  इस  मन: स्थिति  को  समझ  कर   स्वयं  को  इतना  मजबूत  बना  सकते  हैं   कि   उसके  द्वारा  हमें  प्रताड़ित  करने  वाली  हरकतों  को  उसकी  मानसिक  बीमारी  समझकर   इग्नोर  कर  सकें ,  उसका  अपने  व्यक्तित्व  पर  कोई  असर  न  होने  दें   l    दुष्ट  व्यक्तियों  से  न  दोस्ती  अच्छी  न  दुश्मनी  l   ऐसे  व्यक्तियों  से  दूर  रहने  में  भलाई  है 

8 February 2020

WISDOM ------ जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करें

 पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है ---- ' हम  सबको  जो  जीवन  मिला  है   वह  काल  का  सुनिश्चित  खंड  है  l   इसी  काल  खंड  में  हमें  कर्म  करने  एवं   भोगने  हैं  l   काल  का  जो  वर्तमान  खंड  है  ,  उसमे  हम  अपने  मनचाहे  कर्म  कर  सकते  हैं   l   इस  अवधि  में  हम  जो  भी  कर्म  करते  हैं   उसका  प्रभाव  हमारे   भूतकाल  में  हो  चुके  कर्मों  पर   पड़ता  है   और  भविष्य  पर  भी  l   यदि  भूतकाल  में ,  पुराने  अतीत  में  हमसे   कुछ  गलतियां  हुईं  हैं    तो  वर्तमान  के  शुभ  कर्मों  से   उनका  परिमार्जन  एवं प्रायश्चित   किया  जा  सकता  है  l  वर्तमान  के  ये  शुभ  कर्म  हमारे  उज्जवल  भविष्य   का     निर्माण   करने  में  भी  समर्थ  हैं  l  '
        आचार्य श्री  आगे  लिखते  हैं ---- जो  जीवन  के  इस  सच  से  सुपरिचित  हैं  ,  वे   अपने  जीवन  के  प्रत्येक  क्षण  का  सदुपयोग  करते  हैं   और  प्रतिक्षण - प्रतिपल   शुभ  कर्मों  के  संपादन  में  संलग्न  रहते  हैं  l   इसके  विपरीत  जो  इस  सच  से   अपरिचित  हैं  ,   उन्हें   कभी  मोह  बांधता  है ,  कभी  वासना  खींचती  है   और  कभी  ऐसे  लोग  अहंता  के  उन्माद  में   अशुभ  कर्म  करते  हैं  l  '
  ' कर्म  करने  के  लिए   एक  सीमा  तक  हमें  स्वतंत्रता  है  l  हम  अपने  वर्तमान  काल  में  बहुत  कुछ  मनचाहा  कर  सकते  हैं  ,  परन्तु  उचित  समय  पर  जब  ये  कर्म  कल  के  गर्भ  में  परिपक्व   हो  जाते  हैं   तो  इनके  परिणाम  को  भोगने  के  लिए  हमें  विवश  होना  पड़ता  है   l '
  आचार्य  जी  कहते  हैं ----- ' जीवन  काल  और  कर्म  का  सुखद  संयोग  है   l  जो  जीवन  के  इस  मर्म  को  समझते  हैं  वे  सदा  शुभ  कर्म  करते  हैं  ,  उनके  लिए  काल  का  प्रत्येक  क्षण  शुभ  होता  है   और  जो  अशुभ  कर्म  करते  हैं  उनके  लिए  काल  का  प्रत्येक  क्षण  अशुभ  होता  है  l   माँ  आदिशक्ति  काल  और  कर्म  की  नियंता  होने  के  कारण  महाकाली  कहलाती  हैं  l   वही  जब  शुभ  कर्मों  का  सत्परिणाम   देती  हैं   तब  महालक्ष्मी  कही  जाती  हैं  l '

7 February 2020

WISDOM ------

   एक  विद्वान्  अपने  कुत्ते  के  साथ  भ्रमण  को   निकले   l   सामने  से  एक  व्यक्ति  आ  रहा  था   जो  अंदर  ही  अंदर  उनकी  विद्व्ता  से  जलता  था  l   उसने  उनको  अपमानित  करने  की  दृष्टि  से   उनसे  पूछा ---- " आप  दोनों  महानुभावों  में  कौन  श्रेष्ठ  है  ? "  विद्वान्  ने  इस  बात  का  बुरा  नहीं  माना  और  बोला ---- " मित्र  ! यदि  मैं  इस  सुर दुर्लभ  मानवीय  काया  का   सदुपयोग  करते  हुए  श्रेष्ठ  कर्म  करूँ  ,  तो  मैं  श्रेष्ठ  हुआ   और  यदि  मैं   अपने  सच्चे  स्वरुप  का   ध्यान  न  रखते  हुए   जानवरों  जैसे  कर्म  करूँ   तो  मुझसे  और  मुझ  जैसे  अनेक  नर - पशुओं  से   कहीं  ज्यादा  ये  कुत्ता  श्रेष्ठ  है  l  "
  यह  उत्तर  सुनकर  प्रश्न  करने  वाले  का  सिर   लज्जा  से  झुक  गया  l  

5 February 2020

WISDOM ----- विचारों की शक्ति

  पं.  श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी का  कहना  है ---- ' विचारों  की  शक्ति  अपार  है  l  विचार  कर्म  के  प्रेरक  हैं  l   वह  अच्छे  कर्म  में  लग  जाएँ  तो   अच्छे  और  बुरे  मार्ग  में  प्रवृत  हो  जाएँ   तो  बुरे  परिणाम  प्राप्त  होते  हैं  l   यदि  कोई  व्यक्ति  किसी  अकेली  कोठरी  में  बंद  होकर  विचार  करे   और  ऐसा  ही  करते  हुए  मर  जाये   तो  वे  विचार   कुछ  समय  बाद   कोठरी  की   दीवारों  को  भेदकर  बाहर  निकल  पड़ेंगे   और  अनेकों  को  प्रभावित   किए   बिना   न  रहेंगे  l  '
   आज  के   सामाजिक  और  व्यक्तिक  जीवन  की  विवेचना  करते  हुए  उन्होंने  लिखा  है ---  स्वार्थ  और  लालच  में  डूबा  हुआ  मनुष्य  एक  दूसरे  को  नीचा   दिखाने   और  नोच  खाने  की   कुटिलता  में  संलग्न  है   l   जन  समुदाय  को  इस  विडम्बना  से  उबारने  के  लिए   उसके  विचारों  में  क्रांतिकारी   परिवर्तन  करना  आवश्यक  है  l   इस  परिवर्तन  के  बाद  ही  मनुष्य  समझ  सकेगा  कि   शरीर-  भगवान   का  मंदिर  है  l
 आचार्य जी  का  कहना  है --- ' तुम  लोग  मेरे  विचारों  के  संवाहक  बनो  l  हमारे  विचार  क्रांति  के  बीज  हैं  l   ये  फैल   गए  तो  सारी   विश्व - वसुधा  को  हिलाकर  रख  देंगे  l  '
   यूनानी  दर्शन  के  पितामह  महात्मा  सुकरात  को   जब  विष  का  प्याला  दिया  गया ,  उनकी  मृत्यु  नजदीक  देख  शिष्य   बहुत  दुःखी   थे   l   तब  सुकरात    शिष्यों  को   समझने  लगे ---- '  तुम  सबके  निराश  होने  का  कारण  यही  है  कि   तुम  लोग  मुझे  व्यक्ति  के  रूप  में  पहचानते  आये  हो   l   आज  जबकि  इसके  खो  जाने  का , बिछुड़ने  का  समय  आ  गया  सब  के  सब  विकल  हो  l   पर  मैं  व्यक्ति  था  ही  कब  ?  यदि  मेरे  द्वारा  किसी  का  भला  हुआ  भी  है  तो  सिर्फ  विचारों  के  कारण   l
 विष  का  प्याला  हाथ  में  लेते  हुए  उन्होंने  कहा ---- ' मैं  व्यक्ति  नहीं  विचार  हूँ   l   विश्वास  रखो --- विचारों  के  रूप  में  मैं  जीवित  था ,  जीवित  हूँ  और  जीवित  रहूँगा  l  '
  उनके   आखिरी  शब्द  थे ---- ' चिंतित  मत  हो ,  घबड़ाओ  नहीं  l   तुम  सभी  विचारों  के  रूप  में  ,  ज्ञान  के  रूप  में   और  मार्गदर्शक  के  रूप  में   हर  पल , हर  क्षण  मुझे  महसूस  करोगे  l   ध्यान  रखना  कर्म  की  शक्ति  मंद  न  पड़े  l '