' किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी संस्कृति, आचार-विचार और राष्ट्र-भाषा से जीवित रहता है | '
भाषा की अपनी एक शक्ति होती है जो उस राष्ट्र की जीवनधारा को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । 1857 के बाद जब राष्ट्रीय-चेतना जाग्रत हुई, तभी से हिन्दी की विकास यात्रा आरम्भ हुई और इस यात्रा-वाहन के ' एक समर्थ संवाहक थे------- बाबू श्यामसुन्दरदास । उन्होंने हिन्दी के उन्नयन में स्वयं को जीवन भर के लिए समर्पित कर दिया ।
अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने 1893 में नागरी-प्रचारणी सभा की स्थापना कर ली और इसके माध्यम से हिन्दी-भाषा का प्रचार-प्रसार करने लगे । इसी सभा के माध्यम से बाद में हिन्दी-साहित्य सम्मलेन की स्थापना हुई । इस सभा का कार्य था पुराने ग्रंथों को खोजकर प्रकाश में लाना । यह कार्य सफलतापूर्वक चल पड़ा । तुलसी, सूर, कबीर, जायसी आदि कवियों की प्रमाणिक ग्रन्थावलियाँ उन्होंने तैयार करवायीं तथा तुलसीकृत रामचरितमानस को भी प्रकाशित कराया । चंदवरदाई का लिखा ' पृथ्वीराज रासो ' सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रकाशित कराया ।
हिन्दी के लिए इतनी महान सेवाओं से प्रभावित होकर पं. मदनमोहन मालवीय ने उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्दालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद का भार सम्हालने के लिए कहा ।
विश्वविद्यालय में उन्होंने हिन्दी पढ़ाने के साथ साहित्यिक-प्रतिभाओं को परखकर साहित्य-सेवियों का मिशन तैयार किया और इन्ही लोगों से विभिन्न विधाओं पर लिखवाकर हिन्दी का साहित्य-भण्डार भरा ।
हिन्दी-भाषा को उनकी तीन अमूल्य देन हैं जिन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा----
1. उन्होंने हिन्दी का प्रमाणिक शब्दकोष ' हिन्दी शब्दसागर ' के नाम से प्रकाशित किया इस शब्दकोष में एकलाख शब्द हैं ।
2. दूसरा कार्य उन्होंने पं. रामचन्द्र शुक्ल से कराया, उन्होंने उन्हें हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने के लिए प्रोत्साहित किया ।
3. तीसरा कार्य उन्होंने पं. कामता प्रसाद गुरु से कराया वह था---- हिन्दी-भाषा का व्याकरण ।
इस प्रकार तीन ऐतिहासिक कार्यों के प्रेरणा केन्द्र रहकर भी उनका श्रेय स्वयं किंचिन्मात्र भी नहीं लिया । नये लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए ' सरस्वती ' का प्रकाशन आरम्भ हुआ, इसका सम्पादन भार उन्हें सौपा गया । उन्होंने साहित्यलोचन, भाषा-विज्ञान, हिन्दी-भाषा और साहित्य आदि मौलिक कृतियाँ लिखीं । 1940 में जब उनका निधन हुआ तब तक हिन्दी-भाषा के विकास की एक ऐसी आधारशिला रखी जा चुकी थी जिसके बल पर आज तक और आगे भी चिरकाल तक हिन्दी प्रगति करती रहेगी और इसके लिए राष्ट्र और हिन्दी-प्रेमी उनके आभारी रहेंगे ।
भाषा की अपनी एक शक्ति होती है जो उस राष्ट्र की जीवनधारा को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । 1857 के बाद जब राष्ट्रीय-चेतना जाग्रत हुई, तभी से हिन्दी की विकास यात्रा आरम्भ हुई और इस यात्रा-वाहन के ' एक समर्थ संवाहक थे------- बाबू श्यामसुन्दरदास । उन्होंने हिन्दी के उन्नयन में स्वयं को जीवन भर के लिए समर्पित कर दिया ।
अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने 1893 में नागरी-प्रचारणी सभा की स्थापना कर ली और इसके माध्यम से हिन्दी-भाषा का प्रचार-प्रसार करने लगे । इसी सभा के माध्यम से बाद में हिन्दी-साहित्य सम्मलेन की स्थापना हुई । इस सभा का कार्य था पुराने ग्रंथों को खोजकर प्रकाश में लाना । यह कार्य सफलतापूर्वक चल पड़ा । तुलसी, सूर, कबीर, जायसी आदि कवियों की प्रमाणिक ग्रन्थावलियाँ उन्होंने तैयार करवायीं तथा तुलसीकृत रामचरितमानस को भी प्रकाशित कराया । चंदवरदाई का लिखा ' पृथ्वीराज रासो ' सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रकाशित कराया ।
हिन्दी के लिए इतनी महान सेवाओं से प्रभावित होकर पं. मदनमोहन मालवीय ने उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्दालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद का भार सम्हालने के लिए कहा ।
विश्वविद्यालय में उन्होंने हिन्दी पढ़ाने के साथ साहित्यिक-प्रतिभाओं को परखकर साहित्य-सेवियों का मिशन तैयार किया और इन्ही लोगों से विभिन्न विधाओं पर लिखवाकर हिन्दी का साहित्य-भण्डार भरा ।
हिन्दी-भाषा को उनकी तीन अमूल्य देन हैं जिन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा----
1. उन्होंने हिन्दी का प्रमाणिक शब्दकोष ' हिन्दी शब्दसागर ' के नाम से प्रकाशित किया इस शब्दकोष में एकलाख शब्द हैं ।
2. दूसरा कार्य उन्होंने पं. रामचन्द्र शुक्ल से कराया, उन्होंने उन्हें हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने के लिए प्रोत्साहित किया ।
3. तीसरा कार्य उन्होंने पं. कामता प्रसाद गुरु से कराया वह था---- हिन्दी-भाषा का व्याकरण ।
इस प्रकार तीन ऐतिहासिक कार्यों के प्रेरणा केन्द्र रहकर भी उनका श्रेय स्वयं किंचिन्मात्र भी नहीं लिया । नये लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए ' सरस्वती ' का प्रकाशन आरम्भ हुआ, इसका सम्पादन भार उन्हें सौपा गया । उन्होंने साहित्यलोचन, भाषा-विज्ञान, हिन्दी-भाषा और साहित्य आदि मौलिक कृतियाँ लिखीं । 1940 में जब उनका निधन हुआ तब तक हिन्दी-भाषा के विकास की एक ऐसी आधारशिला रखी जा चुकी थी जिसके बल पर आज तक और आगे भी चिरकाल तक हिन्दी प्रगति करती रहेगी और इसके लिए राष्ट्र और हिन्दी-प्रेमी उनके आभारी रहेंगे ।