22 January 2020

अपने बौद्धिक होने का अहंकार और बढ़ती निष्ठुरता के कारण मनुष्य ऐसा कुछ कर रहा है जिसे देखकर प्राचीनकाल के दैत्यों के दिल दहल जाएँ --- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

 आचार्य श्री  लिखते  हैं --- बौद्धिकता  के  बल  पर  अनेकों  तरह  की  खोजबीन  करने  वाला  मानव  कितना  ही  अभिमान  क्यों  न  करे  पर  संवेदनाओं  के  क्षेत्र  में  वह   पाषाण  युगीन  मनुष्य  से  भी  कोसों  पीछे  है  l  जान   रसेल  ने  लिखा  है --- "प्रत्येक  व्यवहार  विज्ञानी  ईसा , फ्रांसिस , संत पाल , गाँधी  और  बुद्ध  के  व्यवहार  को  ललचाई  नज़रों  से  देखता  है  l   लेकिन  हिटलर , मुसोलिनी  को  व्यवहार  के  कलंक  के  रूप  में   देखता  है  l  "
 आचार्य श्री  लिखते  हैं --- ' निस्संदेह  व्यवहार  सम्बन्धी  दोषों , दुर्बलताओं  और  कमियों  का  एकमात्र  कारण  निष्ठुरता  है   l   कितने  ही  शासन  बदले , सत्ताएं  बदली  लेकिन   क्या  इस  उलट - फेर  में  मनुष्य  सुखी  हो  सका   ?   ' नहीं '  l   क्योंकि  उसने    निष्ठुरता  के   स्थान  पर  अन्त: संवेदना  की  स्थापना  नहीं  की   l   यदि  मनुष्य  के  हृदय  में  संवेदना  जाग  जाये   तो  उसके  व्यवहार  में  स्थायी  सुधार  संभव  है  l
    अन्त : संवेदना  का  जागरण  इस  कदर  बेचैनी  उत्पन्न  करता  है   और  व्यवहार  को  बदलने  के  लिए  बाध्य  करता  है  l 
  एक  ऐतिहासिक  घटना  है ----- विजयनगर  सम्राट   कृष्णदेव  राय  ने  अपने  गुरु  संत  कनकदास  से  पूछा  ---   महाराज  !  भगवान   गज  को  बचाने   स्वयं  क्यों  दौड़े  ?  दौड़े  भी  थे  तो  सवारी  क्यों  नहीं  ली  ?'
  संत  दूसरे  दिन  समझाने   का  वादा  कर  के  चले  गए  l   दूसरे  दिन  उन्होंने  नवजात  राजकुमार  की   ठीक  वैसी  ही  प्रतिमा  बनवाई  ,  बिलकुल  स्वाभाविक  थी ,  और  उसे  गोद   में   खिलाते   हुए  राजमहल  के  तालाब  के  पास  आये   l   राजा  भी  पास  ही  थे  l   उस  कृत्रिम  प्रतिमा  को  उन्होंने  धीरे  से  तालाब  में  डाल   दिया   l   प्रतिमा  बहुत  स्वाभाविक  थी   , नकली  राजकुमार  के  गिरते  ही  राजा  कूद  पड़ा   और  बहुत  देर  बाद  जब  वह  निकला  तो  राजकुमार  की  प्रतिमा  उसके  हाथ  में  थी  l   अपनी  बेवकूफी  पर  खिन्न  भी  था  l   संत  ने  कहा --- उत्तर  मिला  सम्राट  l   अन्त:  संवेदना  का  जागरण  ऐसी  ही  बेचैनी  उत्पन्न  करता  है   l   फिर  भगवान   तो  संवेदनाओं  के  घनीभूत  रूप  हैं  ,  गज  की  पुकार  पर  , द्रोपदी  की  पुकार  पर  दौड़े  चले  आये  l

WISDOM --- महानता बड़प्पन प्रदर्शन में नहीं , अपितु अपनी तुलना में अनेकों का अनेक गुना हित - साधन में है --- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

    कीट्स   ने  अपनी  कविता  ' महिमा  से  महानता  की  ओर  '  में  ठीक  ही  कहा  है ---- ' जब  मनुष्य  अपनी  ही  महिमा  का  गुणानुवाद  अपने  मुख  से  करने  लगे ,  तो  समझना  चाहिए  कि   वह    उस  महानता  से  दूर  हटता   जा  रहा  है ,    जो  उसे  सहज  में  उपलब्ध  हो  सकती  थी  l   क्षुद्र  स्तर  के  लोग  ऐसी  ही  चर्चा  में  संलग्न  रहते  हैं  और  अपना  एवं   दूसरों  का  समय  बरबाद   करते  हैं  l   महानता  यत्र - तत्र  उल्लेख  कर  लेने  भर  से  व्यक्तित्व  में  नहीं  आ  जाती  ,  न  ही  यह  विज्ञापन  का  विषय  है  l  यह  एक  ऐसी  विभूति  है  ,  जो  बिना  कहे  हुए  भी  सामने  वाले  को  बहुत  कुछ  कहती  बताती  रहती  है  l   फूलों  को   अपनी   सुगंध  की  चर्चा  करने  की  कहाँ  आवश्यकता  पड़ती  है  l   वह  काम  तो  उनकी  अद्भुत  सुवास  ही  अनायास  करती  रहती  है   और  अनेकानेक  भौरों  को  मदमस्त  करती  हुई  खींच   बुलाती  है  l   जिस  दिन  हिमालय  अपने  गुणों  का  बखान  करने  लगे  ,  उसी  दिन  उसकी  आध्यात्मिकता  की  दिव्यता  समाप्त  हो  जाएगी   और  लोग  उसका   सान्निध्य  लाभ  लेने  से  कतराएंगे  l
  एक  अन्य  विद्वान्  ने  लिखा  है  --- महानता  बताने  की  वस्तु  नहीं  है  , वरन  करने  योग्य  कार्य  है  l   वे  कहते  हैं  कि   यदि  कोई  व्यक्ति    दिन - रात  चीखता  रहे  कि   वह  महान  है  ,  लोगों  को  उसका  सम्मान  करना  चाहिए  ,  तो  उलटे  वह  अपमान  और  उपहास  का  पात्र  साबित  होगा  l   इसके  विपरीत  यदि  लोगों  की    भलाई  के  लिए   छोटा  सा  भी  कार्य  कर  दे   तो  जान - श्रद्धा  उसके  प्रति  सहज  ही  उमड़  पड़ेगी  l
श्रद्धा   से    सम्मान   और  सम्मान  से  महान  बनने  की   ओर   उसका  मार्ग  प्रशस्त  हो  जायेगा   l