' गुरु ' में पहला अक्षर ' गु ' अंधकार का वाचक है l और ' रु ' प्रकाश का वाचक है l इस तरह गुरु वह तत्व है , जो अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर के ज्ञान रूपी तेज का प्रकाश करता है l ऐसे सद्गुरु के लिए लगन , उनको पाने के लिए गहरी चाहत , उनके चरणों में अपने सर्वस्व समर्पण के लिए आतुरता में ही इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है l
यह सत्य घटना बंगाल के महान साधक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के बारे में है l बनर्जी महाशय सर्वेयर के पद पर थे , उनका पारिवारिक जीवन अनेक समस्याओं से घिरा था l पहले बेटी की मृत्यु हुई फिर लम्बी बीमारी के बाद पत्नी की मृत्यु हुई l इन विषमताओं ने उन्हें विचलित कर दिया l वे विकल मन से महान संत सूर्यानन्द गिरी महाराज की कुटिया में गए l संत की शरण में आश्रय पाने हेतु उन्होंने दीक्षा देने की प्रार्थना की l l
इस प्रार्थना को सुनकर संन्यासी महाराज नाराज हो गए और उन्हें डांटते हुए बोले --- ' आज तक तुमने सत्कर्म किया है , जो मेरा शिष्य बनना चाहते हो l जाओ पहले सत्कर्म करो l '
सुरेन्द्र नाथ ने कहा ---- ' आज्ञा दीजिये महाराज l '
संत सूर्यानन्द गिरी ने कहा ---- 'इस संसार में पीड़ित मनुष्यों की संख्या कम नहीं है , जाओ उन पीड़ितों की सेवा करो l '
सुरेन्द्रनाथ ने कहा --- जो आज्ञा प्रभो ! मैंने सम्पूर्ण अन्तस् से आपको अपना गुरु माना है l आपका कहा प्रत्येक वाक्य मेरे लिए मूल मन्त्र है l ' ऐसा कहकर सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता चले आये और अभावग्रस्त , लाचार , दुःखी मनुष्यों की सेवा करने लगे l उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करने लगे l निराश्रितों के सिराहने बैठकर सेवा करते हुए वे गरीबों के मसीहा बन गए l जब पास की सारी रकम समाप्त हो गई तो कुली का काम करने लगे l उससे जो आमदनी होती , उससे अपाहिजों की सहायता करते l ऐसी दशा में उनके कई वर्ष गुजर गए l इस अवधि में उनकी संत सूर्यानन्द गिरी से कोई मुलाकात नहीं हुई l एक दिन जब वे कुली का काम कर के जूट मिल से बाहर निकले , तो देखा सामने गुरुदेव खड़े हैं l सुरेन्द्रनाथ के प्रणाम करते ही उनसे गुरुदेव ने कहा ---- ' तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गई , अब मेरे साथ चलो l गुरुदेव उन्हें बंगाल , आसाम पार कराते हुए बर्मा के जंगलों में ले गये l यहीं से उनकी साधना का क्रम शुरू हुआ l गुरु - कृपा से वे महान सिद्ध संत महानन्द गिरी के नाम से प्रसिद्ध हुए l गुरु - कृपा से सब कुछ संभव है l
यह सत्य घटना बंगाल के महान साधक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के बारे में है l बनर्जी महाशय सर्वेयर के पद पर थे , उनका पारिवारिक जीवन अनेक समस्याओं से घिरा था l पहले बेटी की मृत्यु हुई फिर लम्बी बीमारी के बाद पत्नी की मृत्यु हुई l इन विषमताओं ने उन्हें विचलित कर दिया l वे विकल मन से महान संत सूर्यानन्द गिरी महाराज की कुटिया में गए l संत की शरण में आश्रय पाने हेतु उन्होंने दीक्षा देने की प्रार्थना की l l
इस प्रार्थना को सुनकर संन्यासी महाराज नाराज हो गए और उन्हें डांटते हुए बोले --- ' आज तक तुमने सत्कर्म किया है , जो मेरा शिष्य बनना चाहते हो l जाओ पहले सत्कर्म करो l '
सुरेन्द्र नाथ ने कहा ---- ' आज्ञा दीजिये महाराज l '
संत सूर्यानन्द गिरी ने कहा ---- 'इस संसार में पीड़ित मनुष्यों की संख्या कम नहीं है , जाओ उन पीड़ितों की सेवा करो l '
सुरेन्द्रनाथ ने कहा --- जो आज्ञा प्रभो ! मैंने सम्पूर्ण अन्तस् से आपको अपना गुरु माना है l आपका कहा प्रत्येक वाक्य मेरे लिए मूल मन्त्र है l ' ऐसा कहकर सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता चले आये और अभावग्रस्त , लाचार , दुःखी मनुष्यों की सेवा करने लगे l उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करने लगे l निराश्रितों के सिराहने बैठकर सेवा करते हुए वे गरीबों के मसीहा बन गए l जब पास की सारी रकम समाप्त हो गई तो कुली का काम करने लगे l उससे जो आमदनी होती , उससे अपाहिजों की सहायता करते l ऐसी दशा में उनके कई वर्ष गुजर गए l इस अवधि में उनकी संत सूर्यानन्द गिरी से कोई मुलाकात नहीं हुई l एक दिन जब वे कुली का काम कर के जूट मिल से बाहर निकले , तो देखा सामने गुरुदेव खड़े हैं l सुरेन्द्रनाथ के प्रणाम करते ही उनसे गुरुदेव ने कहा ---- ' तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गई , अब मेरे साथ चलो l गुरुदेव उन्हें बंगाल , आसाम पार कराते हुए बर्मा के जंगलों में ले गये l यहीं से उनकी साधना का क्रम शुरू हुआ l गुरु - कृपा से वे महान सिद्ध संत महानन्द गिरी के नाम से प्रसिद्ध हुए l गुरु - कृपा से सब कुछ संभव है l