31 May 2013

Beginning--

'The first step,which one makes in the world ,is the one on which depends the rest of our days.'

  एक मनुष्य ने किसी महात्मा से पूछा -"महात्मन !मेरी जीभ तो भगवान का नाम जपती है ,पर मन उस ओर नहीं लगता | "महात्मा बोले -"भाई !कम से कम भगवान की दी हुई एक विभूति तो तुम्हारे वश में है | इसी पर प्रसन्नता मनाओ | जब एक अंग ने उत्तम मार्ग पकड़ा है ,तो एक दिन मन भी निश्चित रूप से ठीक रास्ते पर आ जायेगा |
'शुभारंभ छोटा भी हो तो धीरे -धीरे मन सत्पथ पर चलने को राजी हो जाता है | '
राजा मंत्री से बोला --"क्या गृहस्थ में रहकर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है ?"मंत्री बोला -"हाँ महाराज !यह संभव है ,पर इसका उत्तर महात्माजी दे सकते हैं ,जो समीप ही गोदावरी तट पर रहते हैं | घना वन है ,हमें उनके नियम के अनुसार चलना होगा | "राजा ने पूछा नियम क्या हैं ?'
मंत्री बोले -"राजन !महात्माजी ने नियम बनाया है कि जो भी उनसे मिलने आये ,ध्यान रखे कि कोई कीड़ा -मकोड़ा पाँव से कुचल न जाये | यदि कुचल जाता है तो वे श्राप दे देते हैं | "राजा ने मंत्री की बात सुन ली और ध्यानपूर्वक बड़ी देर में मार्ग पार किया | महात्माजी ने सत्कार किया और पूछा -"राजन !अभी आप आये ,मार्ग में क्या -क्या देखा ?"राजा बोले -"भगवन !मैं तो मात्र कीड़े -मकोड़ों से किसी तरह बचता आया हूँ | मैंने कुछ नहीं देखा | "महात्मा जी बोले -"यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है ।
       ईश्वर के दंड से से डरकर यदि मनुष्य जीवनपथ पर दुष्कर्मों से बचताचले तो निश्चित ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है |  

28 May 2013

Avarice is the root of all evils

एक बार एक लोभी सेठ ने सोचा कि किसी ऐसे ब्राह्मण को भोजन करा दिया जाये ,जो ज्यादा न खाता हो | इससे पैसा भी बच जायेगा और पुण्य भी मिल जायेगा | सेठजी एक दुबले -पतले ब्राह्मण को ढूंढते हुए पहुंचे और मिलते ही पूछा -"आप कितना भोजन लेते हैं ?"उसने कहा -"आधा किलो | "सेठजी ने उन्हें न्योता दिया और कहा -"मैं तो घर रहूंगा नहीं ,सौदा लेने जाना है | कल आप घर जाकर भोजन कर आना | "सेठजी ने सेठानी से भी कहा -"मैं तो काम से जाऊंगा ,ब्राह्मण देवता आएंगे ,तुम भोजन करा देना | "
ब्राह्मण देवता अगले दिन आये ,सेठानी को ढेर सारे आशीर्वाद दिये | सेठानी बोली -"पंडितजी !आप क्या -क्या लेंगे ?"मौका ठीक जानकर ब्राह्मण देव ने कहा -"ज्यादा नहीं ,सौ किलो आंटा ,अस्सी किलो चावल ,अस्सी किलो शक्कर ,पचास किलो घी ,पांच किलो नमक और दो किलो मसाला घर भिजवा देना | "फिर उन्होंने जमकर भोजन किया ,दो सौ रु. दक्षिणा में लिये और घर आ गये | आते ही ओढ़कर सो गये | ब्राह्मणी से बोले -"सेठजी आयें तो तू रोने लगना और कहना कि जबसे आपके यहां से आयें हैं ,सख्त बीमार हैं ,बचने की कोई उम्मीद नहीं है | "सेठ घर पहुंचा | सेठानी से विस्तार से सुनकर पहले तो बेहोश हो गया | फिर होश आने पर ब्राह्मण के घर गया | सब द्रश्य देखकर ब्राह्मणी के हाथ में पांच सौ रु. और रखकर बोला -"अच्छी तरह इलाज कराओ ,पर किसी से कहना मत कि सेठजी के घर खाना खाने गये थे | "
 'अति लोभ का परिणाम लुटने के रूप में ही होता है | '

27 May 2013

'भगवान पत्र -पुष्पों के बदले नहीं ,भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं और वे भावनाएं आवेश ,उन्माद या कल्पना जैसी नहीं ,वरन सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिये | उनकी सच्चाई की परीक्षा मनुष्य के त्याग ,बलिदान ,संयम ,सदाचार एवं व्यवहार से होती है | 

Feelings + Morality = Dharmacharan

'धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था होने का तात्पर्य है --जीवन की गरिमा और उसकी श्रेष्ठता पर सुद्रढ़ विश्वास | '
   मनीषियों ने जीवन जीने की कला को धर्म का नाम दिया है | ऐसी कला जिसको सीखकर जीवन की सारी विकृतियों ,कुरूपताओं का निवारण कर इसे सर्वांग सुंदर और सुरुचिपूर्ण बनाया जा सकता है |
    मनीषियों के अनुसार भावनामय नैतिकता जीवन जीने की परिष्कृत द्रष्टि है | जब नैतिकता एक ऊँचे और शुभ स्तर तक पहुँचती है ,तब उसका योग भाव -संवेदनाओं से होता है | इस स्थिति में यह धर्म बन जाती है | यही जीवन जीने का परिष्कृत द्रष्टिकोण है |
      इसके आधार पर जिंदगी व्यतीत करने पर मानवी मूल्योंका  संरक्षण और प्रसार होता है | धार्मिक होने का अर्थ है --अन्तराल में पवित्रता ,ह्रदय में सबके प्रति मैत्री भाव ,मन में शांति ,अपने पास उपलब्ध साधनों में संतोष करने की प्रवृति का होना | यही नहीं व्यक्ति को कर्मनिष्ठ ,श्रमशील एवं सहनशील होना चाहिए इसी को सही अर्थों में धर्माचरण का पर्याय समझा जाता है |
   इसके लिये न तो देश ,जाति ,काल का कोई बंधन है ,और न ही किसी प्रकार की बाहरी योग्यता जरुरी है प्रत्येक व्य|क्ति जिस समय जो काम कर रहा है उसी में भावनामय नैतिकता को मिला देने से वह धर्माचरण बन जाता है  |
विवेकयुक्त व्यवहार ही नैतिकता है ,सच्ची धार्मिकता है |

26 May 2013

DRINK----Drunkenness is temporary suicide

'उल्लू को दिन में नहीं दीखता और कौए को रात में नहीं लेकिन कामांध ,मदांध और स्वार्थान्ध को न दिन में दीखता है न रात को | '
              पौराणिक काल में एक राजा सर्वमित्र राज्य करते थे | वे कुशल शासक थे लेकिन उनमे मदिरा पीने का घोर व्यसन था | वह स्वयं तो सुरापान करते ही थे ,लेकिन साथ ही दूसरों को ,सेवकों को ,राजकर्मचारियों को भी पिलाते थे | इसी में उनको प्रसन्नता मिलती थी | राजा और राजकर्मचारियों के द्वारा इस तरह के मदिरापान से पूरे राज्य में अराजकता छा गई | लोग दुराचारी होने लगे ,प्रजा का उत्पीड़न होने लगा | न्याय -अन्याय ,सत्य -असत्य ,धर्म -अधर्म और प्रकाश -अंधकार का विवेक समाप्त हो गया ,परंतु दिन और रात दोनों में अंधे राजा को इसकी कोई चिंता नहीं थी |
                एक शाम जब मदिरापान का क्रम चलने वाला था ,तभी वहां पर एक ब्राह्मण आया ,उसने एक पात्र दिखाकर कहा -"इस पात्र में सुरा है | इसका मुख सुगंधित पुष्पों से ढका है ,इसे कौन खरीदेगा ?"उस ब्राह्मण की आँखों में तेज था ,मुखमंडल पर प्रकाश था | उसकी तेजस्वी व प्रकाश्पूरित देह को देख राजा ने उसका अभिवादन किया | उत्तर में उस ब्राह्मण ने राजा को मदिरापात्र दिखाते हुए कहा --"राजन !यदि तुम्हे लोक -परलोक का भय न हो ,नरक यातना की चिंता न हो तो यह मदिरा खरीद लो | "ब्राह्मण के ये शब्द सुनकर राजा सर्वमित्र बोले -"ब्राह्मण देव !आप तो विचित्र ढंग से सौदा कर रहे हैं | लोग तो अपनी वस्तु की प्रशंसा करतेहुए उसे बेचते हैं परंतु आप तो मदिरा के दोष प्रकट करते हुए उसे बेच रहे हैं | सचमुच ही आप धर्मात्मा हैं | "सर्वमित्र को इसी तरह अचरज में डालते हुए ब्राह्मण ने कहा ------
        "राजन !न तो इसमें पवित्र फूलों का मधु है ,न गंगाजल है ,न गोदुग्ध है ,इसमें तो विषमयी मदिरा है | इसे जो पीता है ,वह वश में नहीं रहता | उसका विवेक समाप्त हो जाता है | राजपथ पर लड़खड़ा कर गिर जाता है कुत्ते उसका मुख चाटते हैं | अपनी की हुई उलटी वह स्वयं चाट लेता है,| इसे खरीद लो ,यह अच्छा अवसर है | इसे पीकर बड़े -बड़े धनवान दरिद्र हो गये ,राजाओं के राज्य मिट गये | यह अभिशाप की मूर्ति है ,पाप की जननी है ,यह ऐसे नरक में ले जाती है ,जिसमे रात -दिन नरक की आग जलती रहती है | इसे खरीद लो ,पी लो | | "ब्राह्मण की इन बातों को सुनकर राजा को चेत हुआ ,वह ब्राह्मण के पैरों में गिर गया और बोला -"भगवन !आपने मेरे सोए विवेक को जगा दिया | अब से मैं कभी मदिरापान नहीं करूँगा | "
ब्राह्मण को वचन देकर राजा ने पूछा -"हे ब्राह्मण देव !आप कौन हैं ?"तब ब्राह्मण ने कहा --हे राजा !मैं ऋषि लोमश हूँ | तुम्हारा कुल राज ऋषियों का है | तुम्हारे पिता -पितामह सभी सत्कर्म करने वाले और महाज्ञानी थे | तुम्हारी यह दशा मुझसे देखी न गई और मैं चला आया | " उनका परिचय पाकर राजा को यह अनुभव हुआ कि जो सात्विक प्रवृति के हैं वे दिन और रात ,अच्छी और बुरी किसी भी परिस्थिति में अपना विवेक नहीं खोते ,उनकी विवेक -द्रष्टि सदा जाग्रत रहती है | 
नारद के परामर्श से ध्रुव भगवत प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे | बहुत दिन बाद नारद उधर से गुजरे और पूछा -"यदि साधना से सिद्धि न मिली तो क्या करोगे ?"
ध्रुव ने कहा -"तब मैं सोचूंगा कि इतने बड़े प्रयोजन के लिये एक जन्म जितना समय बहुत कम है | मुझे यह प्रयत्न अनेक जन्मों तक करते रहना चाहिये | "इस अविचल श्रद्धा को देखकर नारद बहुत प्रभावित हुए | ध्रुव को गले से लगाकर बोले -"इतनी प्रगाढ़ निष्ठा के रहते असफलता का कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता | "

25 May 2013

POSITIVE ATTITUDE AND PATIENCE

'अविराम श्रम साधना के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता | '
जीवन में सफल होने के लिये यदि हम सही रास्ते अपनाये ,नीति का सहारा लें ,कठोर परिश्रम करें ,अपनी असफलताओं से सीख लें ,तो उसके बाद मिलने वाली सफलता या असफलता उस व्यक्ति के लिये कोई विशेष मायने नहीं रखती ,वरन व्यक्ति वह चीज हासिल करता है ,जिसे संतुष्टि एवं अनुभव कहते हैं ,लेकिन यहाँ तक का सफर केवल वे ही पूरा कर पाते हैं ,जो अपने कार्य के प्रति सकारात्मक द्रष्टिकोण एवं धैर्य रखते हैं | 
          
          थॉमस अल्वा एडिसन अमेरिका के न्यूजर्सी में अपनी  किसी एक कार्यशाला में देर रात तक बिजली के बल्ब बनाने की कोशिश में जुटे थे | उन्होंने कई प्रयोग किये ,लेकिन हर बार विफल रहे | उनकी विफलता की कहानियाँ शहर में तब और मशहूर हो गईं ,जब उनका पांच सौवाँ (5 0 O )प्रयोग भी असफल रहा | तब एक महिला पत्रकार ने साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा -"आप अपना यह प्रयास बंद क्यों नहीं कर देते ?"इस पर एडिसन का जवाब था -"नहीं ,नहीं मैडम !यह आप क्या कह रहीं हैं !....मैं पांच सौ बार विफल नहीं हुआ ,बल्कि मैंने पांच सौ बार काम न कर सकने वाले तरीकों की तलाश करने में सफलता पाई है | मैं सफलता के बिलकुल करीब हूँ | "और इसके बाद 1879 में एडिसन अपने फिलामेंट वाले बिजली के बल्ब का अविष्कार कर सकने में सफल हो सके | यह उनका ऐसा अविष्कार था ,जिसने पूरी दुनिया को रोशन कर दिया | अपनी मृत्यु के समय तक पांच सौ बार असफल होने वाला यह व्यक्ति 1 0 2 4 आविष्कारों का    पेटेंट करा चुके थे | 
             उन्होंने संसार को द्रढ़ता की शक्ति से परिचित कराया ,असफलताओं से सबक लेना और हार न मानने का जादुई नतीजा हासिल कर दिखाया | सफल होने के लिये असफलता से घबराना छोड़कर नाकामी को गले लगाना सिखाया | असफलता हमें बहुमूल्य सबक सिखाती है ,बशर्ते हम में सीखने की चाहत हो 
            | हमारे जीवन के राजमार्ग पर मील का ऐसा कोई पत्थर नहीं होता ,जो हमें यह बताये कि सफलता से अब हमारा फासला कितने किलोमीटर बचा है | ऐसी परिस्थिति में पेशे से फोटोग्राफर और पत्रकार जैकब रीस का द्रष्टिकोण सकारात्मक है | उन्हें जब लगता है कि जीवन में वे कुछ काम नही कर पा रहे तो वे पत्थर तोड़ने वालों को देखने चले जाते हैं ,जिनके सौ बार किये गये आघात के बावजूद पत्थर के उस टुकड़े पर सिर्फ दरारें नजर आती हैं ,लेकिन जैसे ही 101 वां आघात पड़ता है ,पत्थर के दो टुकड़े हो जाते हैं | इस प्रक्रिया में पत्थर के टूटने में पिछले सौ प्रहारों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान था ,जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता | 
इसी प्रकार हमारी जिंदगी में भी किये गये हमारे हर प्रयास महत्वपूर्ण होते हैं ,भले ही हम उनके महत्व को समझ सकें या नहीं | 
               

24 May 2013

COMPASSION

तेप्सुगन दोको कनाई युग के प्रसिद्ध झेन संत हुए हैं | तेरह वर्ष की छोटी आयु में ही उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और जन जन तक भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को पहुँचाने का बीड़ा उठाया शीघ्र ही उन्हें यह भान हो गया कि समाज के हर वर्ग तक बौद्ध धर्म पहुँचाने हेतु धर्म सूत्रों का प्रकाशन स्थानीय भाषा में करना होगा |

दस वर्ष के अबाध परिश्रम के बाद ग्रंथ के प्रकाशन हेतु पूंजी एकत्र हो पाई | प्रकाशन का कार्य आरम्भ ही हुआ था कि ऊजी नदी में भयंकर बाढ़ आ गई हजारों बेघर हो गये | दया व प्रेम की मूर्ति संत तेप्सुगन ने सारा धन जरुरतमंदो में बाँट दिया और पुन:देशाटन पर निकल पड़े | कई वर्षों के प्रयास और धन संग्रह के बाद प्रकाशन प्रारंभ हुआ | उस वर्ष जापान को महामारी ने आ घेरा | तेप्सुगन ने एकत्रित धन पुन:पीड़ितों में बाँट दिया |
           कहते हैं उसके बाद उन्हें बीस वर्ष और लगे | अपनी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व संत तेप्सुगन ने जनसामान्य के लिये बोध सूत्रों का प्रथम जापानी संस्करण उपलब्ध कराया ,जो आज भी ओबाकु विश्वविद्दालय में सुरक्षित है | वर्ष 1681 में प्रकाशित इस ग्रंथ की साठ हजार (6 0 0 0 0 )प्रतियाँ उपलब्ध हैं ,जो संत तेप्सुगन के संकल्प ,करुणा और समर्पण की कहानी कहती हैं |    

23 May 2013

ISHVAR

'कण -कण में व्याप्त ईश्वर को करुणा और सेवा के दो नेत्रों से देखा जा सकता है | '

युवक तार्किक था | संत ने ईश्वर के पक्ष में अनेक प्रमाण दिये ,किंतु वह मानने के लिये तैयार न था | युवक ने कहा -"स्वामी जी विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि यदि ईश्वर ह्रदय की गुफा में भी होता ,तो डॉक्टर को हार्ट आपरेशन के समय मिल गया होता | "
स्वामी जी को युवक की स्थूल द्रष्टि समझते देर न लगी | उन्होंने समझाया -"जिस तरह फूल की गंध आँख से नहीं ,घ्राण (सूंघना )से मालुम होती है ,संगीत का रस आँख से नहीं कान से अनुभव होता है | दूध के अंदर का मक्खन मथने से प्रकट होता है | उसी प्रकार कण -कण में व्याप्त ईश्वर करुणा और सेवा के दो नेत्रों से ही देखा जा सकता है | "

21 May 2013

'ज्ञान, वैभव और आनंद को बांटो ,वह अनेक गुना होकर वापस लौटेगा |

एक संत से किसी ने पूछा -"मेरा दिल बहुत कड़ा है ,इसमें मुलायमी लाने के लिये क्या करूँ ?"
संत ने हँसकर कहा -"दरदमंदो के सिर पर हाथ फिराया कर और अपनी रोटी बांटकर खाया कर | "

EGO

'भगवान की कृपा सब प्राणियों पर एक समान ही बरसती है ,परंतु उसका आनंद वे ही उठा पाते हें ,जो मन रुपी पात्र को तृष्णा और अहंकार से रिक्त कर देते हैं | '
         
         घटना सुविख्यात बौद्ध संत नान -इन के जीवन की है | सम्राट मेइजी ने राजकीय विश्वविद्दालय के कुलपति को नान -इन के पास आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने भेजा | कुलपति को अपने पद व किताबी शिक्षा का बड़ा अहंकार था और उनके व्यवहार से स्पष्ट था कि यदि राजा का आदेश न होता तो वे नान -इन के पास कदापि न आये होते | विचार विमर्श के दौरान नान -इन ने कुलपति सेपूछा कीक्या वे चाय लेना पसंद करेंगे ?कुलपति के हाँ कहने पर नान -इन ने एक भरे प्यालेमें चाय उड़ेलना शुरू कर दिया| यह देख कुलपति चकराये और बोले -"वह प्याला तो भरा हुआ है ,उसमे और कुछ डालने की जगह ही कहां है ?"
नान -इन ने उत्तर दिया -"मित्रतुम्हारा  मन भी तो ऐसी थोथी जानकारियों से भरा हुआ है ,उसमे परमात्मा के लिये स्थान कहां है | अहंकार को विदा कर दो तो तुम्हे मेरी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी | "अहंकार आत्मघाती शत्रु है | 

20 May 2013

NEETI KI SHIKSHA

राम -रावण का घोर युद्ध समाप्त हुआ | रावण मृत्यु शय्या पर पड़ा था | श्री राम ने उसका अंतिम समय जान लक्ष्मण से कहा -"जाओ !अपने समय का सर्वश्रेष्ठ पंडित मर रहा है | जाकर उससे कुछ शिक्षा लो | "
लक्ष्मण जी गये | तीन बार प्रार्थना की कि नीति की शिक्षा दो रावण !रावण ने कुछ भी नहीं कहा | देखता रहा | लक्ष्मण वापस आये तो श्री राम ने पूछा -"क्या सीखा ?"लक्ष्मण ने वस्तुस्थिति बता दी |
श्रीराम ने कहा -"तुम शत्रु के पास गये थे | अब शिष्य बनकर जाओ ,उसका पूजन करो ,शीश नवाओ ,प्रदक्षिणा करो और तब अपनी बात कहो | "अब लक्ष्मण के आचरण से संतुष्ट रावण ने उन्हें नीति की शिक्षा दी | काफी देर तक नीति उपदेश के बाद उसने कहा -"लक्ष्मण !मैं अपने जीवन में चार काम करना चाहता था --
1 लंका के आस -पास का सौ (1 0 0 )योजन समुद्र मीठा कर दूँ ,
2. सोने की लंका को सुगंधित कर दूँ ,
3. स्वर्ग के लिये सीढ़ियाँ बनवा दूँ ,
4. मृत्यु को वश में कर लूँ |
                                        मेरा बल -वैभव अपार था | चारों काम कर सकता था ,पर मैं इन्हें छोटा समझ कर टालता रहा | मैं आज मन के अरमान मन में रखकर जा रहा हूँ |
उपेक्षा ,टालना ,किसी भी काम को छोटा मान लेना ,जिसे आज कर सकते हैं ,उसे कल के लिये छोड़ना सबसे बड़ी भूल है | मैं जो करना चाहता था ,वह नहीं किया | मुझे अपनी इस भूल पर दुःख है | तुम यह गलती कभी मत करना | "इसी के साथ रावण के नेत्र बंद हो गये | लक्ष्मण ने उपदेश ग्रहण कर मृत शरीर को नमन किया और सीख के साथ वापस लौट आये | 

YOUVAN

'यौवन एक अवस्था का नाम नहीं है ,जो किसी आयु वर्ग तक सीमित हो | यौवन तो मन:स्थिति उमंगों भरी नूतन प्रेरणाओं भरी उस जवानी का नाम है ,जो हर महापुरुष पर आजीवन छाई रही | '
       
            फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट (1 9 3 2 -1 9 4 8 )अमेरिका के राष्ट्रपति एक ऐतिहासिक हस्ती कहलाते हैं |
उनकी हँसती -हँसाती जीवन शैली एवं कुशाग्र व्यवस्था बुद्धि ने उन्हें तीन बार लगातार अमेरिका का राष्ट्रपति बनाया | उन्हें अंतिम अवधि में पक्षाघात हो गया | | लोगों ने समझा कि वे संभवत:अब सामान्य कार्य नहीं कर पाएँगे | वे जार्जिया गये | वहां के गरम सोतों में स्नान किया ,तैरने की एक नई विधि निकाली | उनके सभी अंग क्रमश:फिर से कार्य करने लगे | स्वास्थ्य की कांति उनके शरीर से फूटने लगी | सवेरे चार बजे से रात बारह बजे तकउनने आजीवन काम किया | आहार पर भी उनका पूरा नियंत्रण था | उनके कायाकल्प का रहस्य था --जीवन के संबंध में उनका विधेयात्मक द्रष्टिकोण|
यही चिर यौवन का रहस्य है | 

18 May 2013

THE DIFFERENCE BETWEEN EXISTENCE AND LIFE IS THE INTELLIGENT USE OF LEISURE

'श्रमशीलता 'साहस 'धैर्य 'बुद्धि 'शक्ति और पराक्रम -ये 6 गुण जिसके पास होते हैं 'देवता उसकी सहायता करते हैं | '
कुम्हार ने परिश्रम किया .बरतन बनाये और खाना खाकर वहीँ सो गया | वहां से एक राहगीर गुजरा | उसने कुम्हार पर सहानुभूति दिखाते हुए कहा -"तुम जमीन पर सोते हो 'इतने अच्छे बरतन बनाते हो | इन्हें बाजार में बेचकर और अधिक धन कमाओ ,बड़ा मकान बनाओ ,खूब धन एकत्र कर बड़ा आदमी बन जाओ | "
कुम्हार ने कहा -"इससे क्या होगा ?"उसने कहा -"फिर तुम्हे जमीन पर नहीं सोना पड़ेगा ,नौकर -चाकर होगें ,हाथ से काम भी नहीं करना पड़ेगा | कुम्हार ने कहा -"फिर तो बड़ा आदमी बनना मुझे पसंद नहीं ,क्योंकि यदि मैं मेहनत नहीं करूँगा तो मेरा यह जीवन मिट्टी से भी बदतर होगा | मिट्टी के तो बरतन भी बन जाते हैं ,किंतु मेरे अकर्मण्य जीवन का मोल तो मिट्टी के इन बरतनों जितना भी नहीं होगा | "पथिक निरुतर होकर चला गया | 

17 May 2013

PEARLS OF WISDOM

अपनी गलती को मान लेना ,दोष को न छिपाना ,अज्ञानवश हुई गलती का सुधार कर लेना ,अपने जीवन की खुली तस्वीर रखना ,ताकि सब उसको देख -परख सकें ,यही जीवन का विकास करने और आनंद प्राप्त करने की उत्तम कसौटी है |


                   आदर पूर्वक जीने का तरीका यह है कि जैसा अपने को दिखाना चाहते हैं ,वस्तुत:भीतर से भी वैसा ही बने | 

16 May 2013

बार -बार रंग बदलने की अपनी पटुता का प्रदर्शन करते हुए गिरगिट ने कछुए से कहा -"महाशय !देखा मैं संसार का कितना योग्य व्यक्ति हूं | "कछुए ने धीरे से कहा -"महाशय !दूसरों को धोखा देने की इस योग्यता से तो तुम अयोग्य बने रहते तो अच्छा था | कम से कम लोग भ्रम में तो न पड़ते | 

PRAKHARTA

'नन्ही सी चिनगारी !तुम भला मेरा क्या बिगाड़ सकती हो ,देखती नहीं ,मेरा आकार ही तुमसे हजार गुना बड़ा है ,अभी तुम्हारे ऊपर गिर पडूँ तो तुम्हारे अस्तित्व का पता भी न लगे | '-तिनकों का ढेर अहंकारपूर्वक बोला |
चिनगारी बोली कुछ नहीं ,चुपचाप ढेर के समीप जा पहुंची | तिनके उसकी आंच में भस्मसात होने लगे | अग्नि की शक्ति ज्यों ज्यों बढ़ी ,तिनके जलकर नष्ट होते गये ,देखते -देखते भीषण रूप से आग लग गई और सारा ढेर राख में परिवर्तित हो गया |
यह द्रश्य देख रहे आचार्य ने अपने शिष्यों को बताया  -" बालकों !जैसे आग की एक चिनगारी ने अपनी प्रखर शक्ति से तिनकों का ढेर खाक कर दिया | वैसे ही तेजस्वी और क्रियाशील एक व्यक्ति ही सैकड़ों बुरे लोगों से संघर्ष में विजयी हो जाता है | "

15 May 2013

PEACEFUL

मनुस्मृति में मानव धर्म के दस प्रधान लक्षण बताये गये हैं -धैर्य ,क्षमा ,दम ,चोरी न करना ,पवित्रता (आंतरिक एवं बाह्य ),इन्द्रिय निग्रह ,बुद्धि ,आध्यात्म विद्दा ,सत्य तथा अक्रोध |
इनमे सबसे अंतिम है -अक्रोध -यह दैवी संपदा है |
अक्रोध -का अभिप्राय है शांत चित वृति | जिस मन में उद्वेग ,चिंता .घबराहट नहीं है ,सब वृतियाँ शांत स्वरुप भगवान पर एकाग्र हैं ,जो सबसे प्रेम करता है और शत्रु तक के लिये मन में क्रोध ,ईर्ष्या के बुरे भाव नहीं हैं ,ऐसी हितैषी वृति को शांत प्रकृति कहते हैं | ऐसा शांत प्रकृति का व्यक्ति सदभावना द्वारा सभी पर दैवी प्रभाव डाला करता है |

                                 खलीफा उमर का सारा जीवन धार्मिक सेवा में ही बीता ,अंत में तो उन्हें धर्म के लिये तलवार भी उठानी पड़ी | एक दिन उनका अपने प्रतिद्वंदी से सामना हो गया | दोनों में गुत्थम -गुत्था हो गई | उमर ने उसे पछाड़ दिया और छाती पर चढ़ बैठे | जैसे ही उसका सिर काट डालने के लिये उन्होंने अपनी तलवार निकाली कि प्रतिद्वंदी ने उन्हें गाली दे दी | गाली सुनते ही खलीफा उमर उठकर खड़े हो गये और अपनी तलवार म्यान में बंद कर ली |
उनके साथ जो सैनिक थे ,उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ | उन्होंने कुछ रुष्ट स्वर में कहा -"श्रीमानजी !आपने यह क्या किया ?आपको तो इसे मार देना चाहिये था | "खलीफा उमर गंभीर हो गये और बोले -"भाई !मैंने युद्ध न्याय के लिये बिना क्रोध के किया था ,किंतु जब इसने मुझे गाली दी तो मुझे क्रोध आ गया | इस स्थिति में इसे मारने से पहले अपने क्रोध को मारना आवश्यक हो गया | अब मेरा क्रोध शांत हो गया है इसलिये दोबारा युद्ध करूँगा | "खलीफा उमर के यह निष्काम शब्द सुनकर प्रतिद्वंदी आप पराभूत होकर उनके पैरों पर गिर गया और सदैव के लिये उनका भक्त बन गया |
 बाहरी शत्रु से भी भयंकर है ,आंतरिक शत्रु | इसलिये पहले इसको जीतना चाहिये | 

14 May 2013

SABSE BADA DAANI PARMESHVAR

निखिल विश्व की समस्त गतिविधि 'दान 'के सतोगुणी नियम के आधार पर चल रहीं हैं | परमेश्वर ने कुछ ऐसा क्रम रखा है कि 'पहले दो तब मिलेगा 'जो कोई भी तत्व अपने दान की प्रक्रिया बंद कर देता है ,वही नष्ट हो जाता है ,जीवन युद्ध में धराशायी हो जाता है |
यदि कुएँ जल दान देना बंद कर दें ,खेत अन्न देना रोक दें ,पेड़ फल ,पत्तियां ,छाल देना बंद कर दें ,हवा ,जल ,धूप ,गाय ,भैंस अपनी सेवाएं रोक दें तो समस्त स्रष्टि का संचालन बंद हो जायेगा | परमेश्वर की रचना में दान तत्व प्रमुख है ,परमेश्वर तो हर पल ,हर घड़ी हमें कुछ न कुछ प्रदान करता रहता है |
                   
 दान का अभिप्राय है -संकीर्णता से छुटकारा ,आत्म संयम का अभ्यास और दूसरे की सहायता की भावना | दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा ,फल की आशा या अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिये | दान तो स्वयं प्रसन्नता ,सुख एवं संतोष का दाता है | देते समय जो संतोष की उच्च सात्विक द्रष्टि अंत:करण में उठती है ,वह इतनी महान है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता |

                                       सात्विक    दान
बुद्ध पाटलिपुत्र आये | बिंबिसार राजकोष से कीमती हीरे ,मोती आदि लेकर आये | बुद्ध ने एक हाथ से स्वीकार कर शिष्यों को दे दिये | मंत्रियों ,श्रेष्ठियों ,व्यापारियों के उपहार भी एक हाथ से लेकर दे दिये गये ,ताकि संघारामो के निर्माण .प्रव्रज्या में उनका उपयोग हो | इतने में एक वयोवृद्ध महिला किसी तरह चलती हुई आई और बोली -"भगवन !आपके आने का समाचार मिला | मेरे पास कुछ था नहीं | यह मेरा ही खाया आधा अनार था ,जो आपकी सेवा के लिये लाई हूं | स्वीकार कीजिये | "बुद्ध ने दोनों हाथों से भेंट स्वीकार की और उसे माथे से लगाया | बिंबसार ने कहा -हे भगवन !आपने हमारी भेंट तो एक हाथ से ली और इस वृद्धा की भेंट दोनों हाथों से ली ,माथे से लगाई ,इसका क्या रहस्य है ?
तब तथागत बोले -"तुम्हारा दान सात्विक नहीं था | इस वृद्धा ने भावपूर्वक अपना सर्वस्व मुझे दान में दिया है | मैं तो भावना का भूखा  हूं| भले ही यह निर्धन है  पर इसे मुझसे प्रेम ,करुणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये | वही भाव मैंने प्रकट किये हैं | "बिंबिसार यह सुनकर धन्य हो गये | 

13 May 2013

FEELINGS -SYMPATHY

सुप्रसिद्ध गायत्री साधक ,आर्य समाज के एक स्तंभ महात्मा आनंद स्वामी के पास एक धनपति आये | बहुत बड़ा व्यवसाय था उनका ,चारों ओर वैभव का साम्राज्य था ,पर वे अंदर से बड़ा खालीपन अनुभव करते थे | उनकी भूख चली गई थी और रात्रि की नींद भी | अपनी यह व्यथा उन्होंने स्वामीजी को सुनाई | महात्मा आनंद स्वामी ने कहा -"आपने जीवन में कर्म एवं श्रम को तो महत्व दिया ,पर भावना को नहीं | सत्संग ,कथा -श्रवण आदि से तो विचारों को पोषण मिलता है | अंदरकी शुष्कता कम करने के लिये अब प्रेम ,धन ,श्रम लुटाना आरंभ कीजिये | अपने आपे का विस्तार कीजिये | सबको स्नेह दें ,अनाथों -निर्धनों के बीच जायें और उन्हें स्वावलंबी बन सकने योग्य सहायता दें | अपना शरीर -श्रम भी जितना इस पुण्य कार्य में लग सके ,लगाइये | दिनचर्या सुव्यवस्थित रखिये | फिर देखिये ,आपकी भूख लौट आयेगी तथा नित्य चैन की नींद सोयेंगे | आपका स्वास्थ्य भी ठीक हो जायेगा | "
सेठजी ने ऐसा ही किया ,इस चमत्कारी परिवर्तनने  उन्हें जो सेहत ,शांति ,प्रसन्नता दी ,वह पहले उन्हें कभी नहीं मिली थी | लोकमंगल युक्त परमार्थ परक भावनाओं और संवेदनाओं को अपने जीवन -व्यवहार में अधिकाधिक स्थान देने से ही अंदर की शुष्कता और खालीपन दूर होगा ,भावनात्मक तृप्ति मिलेगी 

SYMPATHY


'सजल संवेदनाएं जीवन साधना की धुरी हैं | यह जीवन का स्वर्णिम सच है कि संवेदनशीलता का चुम्बकत्व जहां जितना गहरा होता है ,वहां उसी के अनुपात में अपने आप ही सद्गुणों की स्रष्टि होती है | इसके विपरीत संवेदनहीनता जहां जितनी मात्रा में पनपती है ,उसी के अनुरूप दुर्गुणों ,दोषों  की कतारें खड़ी हो जाती हैं |
                        संवेदनशीलता को ठुकराकर ,इनकी उपेक्षा करके विकास एवं प्रगति के कितने ही प्रतिमान क्यों न तय किये जायें ,पर अतृप्ति की कसक हमेशा ही मन को सालती रहती है | धन ,सम्मान ,प्रतिष्ठा के बहुतेरे साधन अंतर्मन को संतोष नहीं दे पाते ,सब कुछ मिल जाने पर भी खालीपन बुरी तरह से कचोटता रहता है |
              भावनात्मक तृप्ति की अनुभूति किस तरह से हो ?तो जवाब बड़ा ही आसान है --भावनाएं बांटने पर मिलती ,बिखेरने पर बढ़ती हैं ,यह ऐसी संपदा है ,जिसे जितना लुटाओगे ,उतनी ही बढ़ेगी | इसलिये जो भावनात्मक तृप्ति चाहते हैं वे अपनी भावनाएं पीड़ितों को ,जरुरतमंदों को दें |
इस परम पवित्र निष्काम कर्म का परिणाम हर हालत में संतुष्टि एवं तृप्तिदायक होगा |

12 May 2013

एक दिन क्रोध को बड़ा क्रोध आया उसने कहा -"यह संसार बड़ा ख़राब हो गया है ,इसे तहस -नहस कर डालूंगा और फिर एक नई तरह की दुनिया बनाऊंगा | "धीरे से शांति बोली -"बुरा न माने ,उसके लिये भी आपको धैर्य की आवश्यकता पड़ेगी | यदि अभी से आप धैर्य पूर्वक संसार को सुधारना शुरू कर दें तो नई स्रष्टि बनाने का परिश्रम ही क्यों करना पड़े ?"

HRADY PARIVARTAN

पंडित लेखराम जी आर्य समाज के मूर्द्धन्य विद्वान् थे | वे गांव -गांव घूमा करते और वेद उपनिषद पर प्रवचन देते | एक बार एक गांव में पंडितजी का प्रवचन चल रहा था कि एक डाकू अपने साथियों के साथ उनका प्रवचन सुनने आकर बैठ गया | लेखराम जी कह रहे थे कि 'कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ मनुष्य को उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है ।'बात डाकू के ह्रदय में छू गई | प्रवचन समाप्त होते ही डाकू ने लेखराम जी से पूछा कि क्या कर्म का विधान इतना प्रबल है ?क्या मुझे सचमुच अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा ?लेखराम जी बोले कि कर्मफल का नियम शत -प्रतिशत सत्य है | जो कर्म तुमने किये हैं ,उनका परिणाम आज नहीं तो कल ,अवश्य भोगना पड़ेगा | डाकू बोला -"मैं तो लुटेरा हूँ ,मैंने न जाने कितनों को दर्द दिया ,तकलीफ पहुंचाई और कुकर्म किये | इनका परिणाम तो अशुभ ही होगा ?"पंडितजी बोले -"समय अभी हाथ से निकला नहीं है | तू ये सब छोड़ दे और धर्म का मार्ग पकड़ ले | "बस ,फिर क्या था ,डाकू ने उसी समय लेखराम जी से दीक्षा ली और तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ा |
जो कार्य पुलिस और कानून का डर न करा सका ,वेदों के वचन और महापुरुष के सत्संग से क्षण भर में संपन्न हो गया | 

FEELINGS

भाव -श्रद्धा ही उपासना को सार्थक बनाती है ,कर्मकांड के क्रियाकलाप नहीं | जिसने अपनी भावनाओं को बिखरने नहीं दिया और उनको उत्कृष्टता की दिशा में केन्द्रित कर दिया वही भक्त है ,उसी की भक्ति में शक्ति है |

           एक यहूदी अनपढ़ था और ग्रामीण भी | किसी ने उसे बता दिया कि जिस दिन प्रायश्चित पर्व हो ,उस दिन खूब अच्छा अच्छा खाना चाहिये और मिले तो शराब भी पीनी चाहिये | जब अगला प्रायश्चित पर्व आया तो एक दिन   पूर्व ही उसने खूब डटकर खाया ,शराब पी और नशे में धुत हो गया |
जब सुबह नींद टूटी तो उसने देखा कि उसका साथी तो प्रायश्चित पर्व की लगभग आधी प्रार्थना पूरी कर चुका है ,उसे तो एक भी मंत्र याद न था | उसे अपने आप पर भारी ग्लानि हुई |
सबको प्रार्थना करते देखकर वह वहीं बैठ गया और वर्णमाला के अक्षरों का ही पाठ करता हुआ भावना करने लगा -हे प्रभु !मुझे तो कोई मंत्र याद नहीं ,इन अक्षरों को जोड़कर तुम्ही मंत्र बना लेना | मैं तो तुम्हारा दास हूं ,पूजा के लिये नये भाव कहां से लाऊं ?जब तक दूसरे लोग प्रार्थना करते रहे ,वह ऐसे ही भगवान का ध्यान करता रहा | सायंकाल जब वे दोनों सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हुए तो धर्मगुरु रबी ने उस ग्रामीण भक्त को अग्र -पंक्ति में रखा | यह देखकर उसके साथी ने आपति की -श्रीमानजी !इसे तो मंत्र भी अच्छी तरह याद नहीं | धर्मगुरु रबी ने कहा -"तो क्या हुआ ,इनके पास शब्द नहीं ,भाव तो हैं | भगवान तो भाव के भूखे हैं ,मंत्र तो हमारे तुम्हारे लिये हैं | "

11 May 2013

BHAKTI

भावनाओं में भक्ति का स्थान ऊँचा है | उसका सहारा लेकर मनुष्य नर से नारायण बन सकता है | श्रद्धा का व्यवहारिक स्वरूप भक्ति है |
तानसेन सम्राट अकबर के दरबारी गायक थे | एक बार अकबर तानसेन के गुरु हरिदासजी से मिले और उनके गायन को सुनकर मुग्ध हो गये | अकबर ने तानसेन से कहा -"गाते तो आप भी अच्छा हैं ,पर आपके गुरु के गायन में जो रस है ,उसकी प्रशंसा हो सकती | "
तानसेन ने कहा -"मेरे गुरु भगवान को प्रसन्न करने के लिये गाते हैं और मै आपको प्रसन्न करने के लिये | जो अंतर ईश्वर और आप में है ,वही अंतर मेरे और गुरु के गायन में है "| 

10 May 2013

REVERENCE

अंत:करण की उत्कृष्टता को श्रद्धा के नाम से जाना जाता है | श्रद्धा का अर्थ है -श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था | यह आस्था जब सिद्धांत एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं | श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है | राम चरित मानस में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर बताया गया है ,इन्ही दोनों की सहायता से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है | श्रद्धा तप है ,यह ईश्वरीय आदेशों पर निरंतर चलते रहने की प्रेरणा देती है | आलस्य से बचाती है ,कर्तव्य पालन में प्रमाद से बचाती है ,सेवा धर्म सिखाती है ,अंतरात्मा को प्रफुल्ल ,प्रसन्न रखती है | इस प्रकार के तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के ह्रदय में पवित्रता एवं शक्ति का भंडार अपने आप भरता चला जाता है |

        एक बणिक था ,नाम था -शौर पुच्छ | उसने एक बार भगवान बुद्ध से कहा -"भगवन !मेरी सेवा स्वीकार करें | मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं ,वह सब आपके काम आयें | "बुद्ध कुछ न बोले चुपचाप चले गये | कुछ दिन बाद वह पुन:तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा -"देव !ये वस्त्र और आभूषण लें ,दुखियों के काम आयेंगे ,मेरे पास अभी बहुत सा धन शेष है | "बुद्ध बिना कुछ कहे वहां से उठ गये | शौर पुच्छ बड़ा दुखी था कि वह गुरुदेव को किस तरह प्रसन्न करे ?
वैशाली में उस दिन महान धर्म सम्मेलन था हजारों व्यक्ति आये थे | बड़ी व्यवस्था जुटानी थी | सैंकड़ों शिष्य और भिक्षु काम में लगे थे | आज शौर पुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा ,काम में जुट गया | रात बीत गई ,सब लोग चले गये ,पर शौर पुच्छ बेसुध कार्य में निमग्न रहा | बुद्ध उसके पास पहुँचे और बोले -"वत्स !तुमने प्रसाद पाया या नहीं ?"शौर पुच्छ का गला रुंध गया | भाव -विभोर होकर उसने तथागत को प्रणाम किया | बुद्ध ने कहा वत्स !परमात्मा किसी से धन और संपति नहीं चाहता ,वह तो निष्ठा का भूखा है वह लोगों की निष्ठा में ही रमण किया करता है |
         
       ईश्वर को न किसी से मनुहार चाहिये ,न उपहार | चरित्रवान और लोकसेवी बनकर ही हम उसे प्रसन्न कर सकते हैं | 

9 May 2013

CALAMITY

महान विचारक रूसो से किसी ने एक बार पूछा -"आपने किस स्कूल में शिक्षा प्राप्त की ?"स्कूल के तो कभी दर्शन नहीं किये थे ,परंतु शिक्षा तो अवश्य प्राप्त की थी | किस पाठशाला का नाम लें ?रूसो ने उत्तर दिया -"विपति की पाठशाला में "|
विपति नित्य खुली रहने वाली बहुत बड़ी पाठशाला है | आने वाली विपतियाँ हमें सिखाने के लिये ऐसी महत्वपूर्ण शिक्षायें अपने साथ लेकर आती हैं कि यदि कोई उन्हें सीख सके तो वह अपने जीवन को ,व्यक्तित्व को सफल बना सकता है | अधिकांश लोग विपतियों के आने पर रोने ,घबड़ाने लगते हैं अथवा उनसे पलायन की बात सोचने लगते हैं | विपतियाँ न तो रोने के लिये हैं और न जीवन से पलायन करने के लिये हैं | विपति रूपी स्कूल में सफल होने के लिये कुछ बातें आवश्यक हैं -----
1 -विपतियों के प्रति स्वीकारात्मक द्रष्टिकोण -न तो विपतियों से भागना और न उनसे घबराना | विपतियों को एक परीक्षा ,एक चुनौती मानकर उनमे जीने का साहस किया जाये तो विपतियाँ सचमुच वरदान बन जाती हैं | 'विपदायें ऐसी परीक्षायें हैं जो हमें मजबूत बनाने ,हमारे मनोबल को परखने और हमारे जीवट को जांचने के लिये आती हैं |
2 विवेक बुद्धि को जाग्रत रखना और धीरज बनाये रखना विपति की पाठशाला में सफल होने का दूसरा सूत्र है | विपति आने पर मनोबल बनाये रखते हुए संकट का धैर्य पूर्वक सामना किया जाये | विपतियाँ कुछ समय की हैं और जीवन बहुत लम्बा है |
3 तीसरा सूत्र है -व्यस्त जीवन क्रम और समय का सदुपयोग | खाली समय में ही चिंतायें पैनी बनकर तीर की तरह चुभती हैं | अत:शरीर और मन मस्तिष्क को किसी उपयोगी कार्य में व्यस्त रखा जाये तब उनसे संघर्ष करने का नया मार्ग भी निकाला जा सकेगा | महान विचारक रूसो का प्रारंभिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में गुजरा ,उनके माता -पिता शैशव काल में गुजर चुके थे | वे दिन भर मेहनत कर शेष समय पढ़े -लिखे लोगों से अनुनय विनय कर अपने शैक्षणिक विकास में लगाते थे ,समय के सदुपयोग के कारण ही वे महान विचारकों और नई समाज व्यवस्था के मनु पद तक पहुंच सके |

4 विपतियों पर विजय का महत्वपूर्ण सूत्र है -जीवन के उज्जवल पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करना | प्रख्यात धनपति हैराल्ड एबोट के जीवन की सारी कमाई किसी संकट के कारण नष्ट हो गई ,उनपर कर्ज चढ़ गया ,जिसे चुकाने के लिये वर्षों परिश्रम की आवश्यकता थी ,मन चिंताओं से भरा था | पराजित व्यक्ति के समान दुखी होकर वे कहीं चले जा रहे थे | सड़क पर एक अपंग व्यक्ति दिखाई दिया ,जिसकी दोनों टांगे कट गईं थीं वह हाथों के सहारे चलता था | उसने हँसते हुए हैराल्ड साहब का स्वागत किया और प्रसन्नता से बोला -कैसा सुहाना प्रभात है ,कहिये अच्छे तो हैं ?इस अपंग व्यक्ति के प्रसन्नचित ,उल्लास और हर्ष ने हैराल्ड एबोट की सभी चिंताओं को मिटाकर रख दिया | वे सोचने लगे जब यह अपंग और लाचार व्यक्ति भी इतना आनंदित है तो इसकी तुलना में मैं बहुत भाग्यशाली हूं |
विपतियाँ चाहें जितनी भयंकर और विकराल हों और भले ही व्यक्ति का सब कुछ छिन जाये परन्तु फिर भी उसके पास कुछ न कुछ ऐसा बचा ही रहता है जिसके आधार पर वह अपने भविष्य को पुन:संवार सकता है | 

8 May 2013

WISDOM

संसार रूपी इस जीवन -समर में ,जो स्वयं को आनंदमय बनाये रखता है ,दूसरों को भी हँसाता रहता ,वह ईश्वर का प्रकाश ही फैलाता है | यहां जो कुछ भी है ,आनंदित होने तथा दूसरों को प्रसन्नता देने के लिये ही उपजाया गया है | जो कुछ भी बुरा व अशुभ है ,वह मनुष्यों को प्रखर बनाने के लिये मौजूद है | जो प्रतिकूलताओं से डरकर रो पड़ता है ,कदम पीछे हटाने लगता है ,उसकी आध्यात्मिकता पर कौन विश्वास करेगा |
             कठिनाइयाँ एक ऐसी खराद की तरह हैं ,जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराश कर चमका दिया करती हैं | कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्मबल का विकास होता है ,वह एक अमूल्य संपति होती है ,जिसको पाकर मनुष्य को अपार संतोष होता है | कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन में ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है ,जो पथ के समस्त झाड़ -झंखाड़ों को काटकर दूर कर देती है | 

SELF - CONFIDENCE

'भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं और भाग्य पर आश्रित हो कर वे अपना नाश कर लेते हैं | बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं | '
              एक बढ़ई किसी मजिस्ट्रेट की मेज को बहुत अधिक सावधानी से तैयार कर रहा था |किसी ने पूछा तुम इसे इतने परिश्रम से क्यों बना रहे हो ?बढ़ई ने इस प्रकार उत्तर दिया -"जब मैं मजिस्ट्रेट बनकर इस मेज पर काम करूं तो मुझे यह सुंदर लगे | "कुछ वर्ष बाद वह वास्तव में मजिस्ट्रेट बनकर उस मेज पर काम करने लगा |
आत्म -विश्वास में वह शक्ति है ,जिसके सहारे हम सहस्त्र विपतियों का सामना कर उन पर विजय प्राप्त कर सकते हैं | 

TOLERANCE

'उदार सहिष्णु और शांत जीवन जीने की शिक्षा हमें वृक्षों से मिलती है | "
उपद्रवों ,व्यंग -कटाक्षों को मुस्कराते हुए सुन लेना ,सह लेना और अपने लक्ष्य में निरत रहना ही सहिष्णुता है | संवेदनशील व्यक्ति क्रोधी नहीं होता | वह तो सतत अपने लक्ष्य की पूर्ति में ,आदर्शों को साकार करने में स्वयं को खपाता रहता है |
         
                लुकमान जिस नगर में रहते थे वहीँ एक सेठ भी रहता था जो अपने नौकरों पर सख्ती के लिये मशहूर था| उसका एक नौकर जो हकीम लुकमान के ही रूप रंग का था ,एक दिन भाग खड़ा हुआ उसकी खोज करते हुए सेठ की भेंट लुकमान से हो गई | उसने लुकमान को ही नौकर समझकर पकड़ लिया और घर लाकर काम पर लगा दिया | लुकमान ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया ,मेहनत से काम में जुट गये | एक वर्ष बीत गया |
तब वह पुराना नौकर आ गया ,अब सेठ को चिंता हो गई कि धोखे से किसे पकड़ लिया | सेठ ने लुकमान से पूछा -"सच कहो ,कौन हो आप ,मुझसे बड़ी गलती हो गई | "लुकमान ने कहा -"हकीम लुकमान "जो  हुआ उसका दुःख न करो ,मुझे मजदूरी करना आ गया | "

6 May 2013

CALMNESS

मानसिक संतुलन बनाये रहना उत्तेजित परिस्थितियों का सामना करने का सबसे अच्छा इलाज है |
          क्रोध को शांति से,अभिमान को नम्रता से ,माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये |

         एक बार लोकमान्य तिलक को एक सभा में भाषण देना था | सरकारी पक्ष के कितने ही किराये के उपद्रवी सभा में उपद्रव करने लगे | ढेले और ईंट फेंकने लगे | लोकमान्य ज्यों के त्यों खड़े रहे | जब उपद्रवी शांत हो गये तब उन्होंने अपना शेष भाषण निर्भीकता पूर्वक कहा | उपस्थित जनता पर अच्छा असर पड़ा ,उपद्रवी भी शांत होकर वापस चले गये | लोक मान्य इस प्रकारघर लौटे मानो कुछ हुआ ही नहीं |


                  परिस्थिति का सामना करें
अलबानिया की रानी ऐलजाबेथ एक दिन समुद्री यात्रा पर जा रहीं थीं तूफान आया और जहाज बुरी तरह डगमगाने|लगा  मल्लाहों का धीरज टूट गया वे डूबने की आशंका व्यक्त करने लगे | रानी ने गंभीर मुद्रा में मल्लाहों से कहा ,-"अलबानिया के राज परिवार का कोई सदस्य अभी तक ज लयान दुर्घटना में डूबा नहीं | मैं जब तक इस पर सवार बैठी हूँ तब तक तुममे से किसी को भी डूबने की आशंका करने की जरुरत नहीं है ।मल्लाह निश्चिन्त होकर डांड चलाते रहे | तूफान शांत हुआ और जहाज शांति पूर्वक निश्चित स्थान पर पहुँच गया | यदि उन्हें घबराहट रही होती तो जहाज को डुबो बैठते | 

GENEROSITY

'उदारता वह दिव्य गुण है ,जो भावनाओं के तल से उभरता है ,अंकुरित होता है | यह तर्क का विषय नहीं है ,इसमें हम अपना नुकसान झेलकर भी औरों की प्रसन्नता एवं सहायता के लिये सब कुछ अर्पित करने के लिये तत्पर रहते हैं
                             हर्बर्ट हूबर अमेरिका के इकतीसवें (31 )राष्ट्रपति थे | | उनका बचपन एवं किशोर अवस्था घोर आर्थिक अभाव में व्यतीत हुआ | इन्ही अभाव के दिनों में जब वे कैलिफोर्निया कॉलेज में पढ़ रहे थे ,तब वहां पोलैंड के विश्वविख्यात संगीतज्ञ पेदेरेवस्की   अपनी मंडली के साथपधारे | हूवर ने एक योजना बनाई -उन्होंने उनसे 2 0 0 0 डॉलर में कांट्रेक्ट किया | इसमें यह था कि पेदेरेवस्की को 2 0 0 0 डॉलर देने के बाद शेष राशि उन्ही की होगी ,परंतु दुर्भाग्य टिकट की बिक्री बहुत कम हुई और समस्या यह आई कि 2 0 0 0 डॉलर कैसे चुकता किये जायें | हूवर बेहद हताश हो गये ,उन्होंने सारी स्थिति पेदेरेवस्की को बताई और कहा -"टिकट की बिक्री से केवल 837डॉलर मिले थे ,आप ये लें ,हॉल आदि का किराया मैं चुकाता रहूंगा | "सब बातें जानकर उन महान संगीतज्ञ ने कहा -बेटे !चिंता मत करो ,यह राशि तुम रखो और इससे आयोजन का खर्च चुकता कर दो | "फिर उन्होंने कुछ डॉलर हूवर के हाथ में थमाते हुए कहा -यह तुम्हारे कठोर परिश्रम और अटूट लगन का पारितोषिक है ,इसे स्वीकार करो और अपने जीवन में संवेदनशील बनना ,उदारता का परिचय देना |
           समय बीतता गया ,उन्होंने खानों में काम किया | हूवर उन महान संगीतज्ञ को कभी नहीं भूले |
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर यूरोप की दयनीय दशा में सुधार लाने के लिये अमेरिका ने जो दस करोड़ डॉलर का ऋण स्वीकृत किया ,उसके वितरण की जिम्मेदारी उन्हें मिली | ऋण वितरित करते समय हूवर ने कहा -"मैं यह अमेरिका का धन नहीं पोलैंड के संगीतज्ञ पेदेरेवस्की की दी गई संवेदनाएँ बांट रहा हूं | "
            संवेदनाओं के इस वितरक को अमेरिका निवासियों ने राष्ट्रपति के सर्वोच्च आसन पर बैठाया ,विश्व ने इन्हें 'हर्बर्ट हूवर 'के नाम से जाना ,उन्होंने अपने जीवन के अंत तक औरों की सेवा -सहायता की |
1 9 अक्टूबर 1 9 6 4 की शाम उन्होंने अपनों के बीच कहा -"जीवन में किसी के प्रति निष्करुण मत होना ,सदा
     औरों की सेवा करना ,उदारता का परिचय देना | "इसके दूसरे दिन वे सदा के लिये इस संसार से विदा हो गये ,उनका जीवन औरों को सदा प्रेरित करता रहेगा | 

4 May 2013

LUCK

'सतत सेवा एवं पुण्य -परमार्थ करते रहने से जीवन में सौभाग्य के सुअवसर आते हैं और दुर्भाग्य का जाल कटता रहता है | '
सौभाग्य चुपके से दबे पाँव आता है और जीवन के दरवाजे पर दस्तक देकर चला जाता है | सौभाग्य के सुअवसर की पहचान बुद्धि एवं विवेक के द्वारा ही संभव है ,जो ऐसा कर पाता है ,उसके जीवन में सौभाग्य विविध रूपों में आता है | सौभाग्य सम्मान एवं आदर की अपेक्षा करता है | जो सुख -सौभाग्य को जितना आदर -मान देता है ,उसके जीवन में वह उतना ही गहराई से अपना प्रभाव दिखाता है | यदि जीवन में सौभाग्य का उदय पद एवं प्रतिष्ठा के रूप में हुआ है तो उसे बनाये रखने के लिये इस सौभाग्य के समय को पुण्य -परमार्थ ,सेवा -कार्यों में नियोजित करना चाहिये ,तो यह सौ गुना ,हजार गुना होकर वापस लौट आता है |
जो लोग वैभव ,संपदा प्राप्त होने पर अहंकारी हो जाते हैं ,इसका दुरूपयोग करते हैं ,उनके जीवन में यह समय से पूर्व ही विदा हो सकता है | सुख -सौभाग्य के समय का दुरूपयोग करने वाले समय से पूर्व ही संचित कोश को रिक्त कर देते हैं और फिर दुर्भाग्य का रोना रोते हैं |

        सौभाग्य कई रूपों में आता है | श्री जुगल किशोर बिड़ला के जीवन में एक अवसर आया .जब उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी | इतने अभाव में भी वे एक महात्मा को नित्य दो बार अपने हाथों से भोजन कराते थे | ऐसा एक भी दिन नहीं आया कि उन साधु को भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण किया हो
       एक बार बिड़ला जी थके -हारे काम से आये थे ,आँधी -तूफान के साथ तेज वर्षा हो रही थी | भूख भी लग रही थी | खाना परोसा गया ,जैसे ही वे रोटी का टुकड़ा अपने मुँह में लेने लगे तो उन्हें उस साधु की याद आई ,जिसको खिलाये बिना वे अन्न के एक दाने को हाथ भी नहीं लगाते थे | आज यह कैसे अनर्थ हो गया ,वे खाना छोड़कर और साधु का भोजन लेकर बेसब्री से दौड़ पड़े | साधु सारी स्थिति से अवगत थे | साधु ने कहा -"तू आज अपना खाना छोड़कर मुझे खिलाने आया है इसलिये आज मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे पास संपदा एवं संपति की कोई कमी नहीं होगी | "बिड़ला जी ने इस दिव्य अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और महात्मा की कृपा से अथाह चल -अचल संपदा के स्वामी बने | सौभाग्य कृपा के रूप में भी बरस पड़ता है ,परंतु उसके लायक स्वयं को बनाना पड़ता है | 

ART OF LIVING

'मन शुद्ध ,पवित्र और संकल्पवान बन जाये तो जीवन की दिशा धारा ही बदल जाये | जिसने मन को जीत लिया ,उसने सारा संसार जीत लिया | '
विपरीत परिस्थितियों में ,अभाव की दशा में ,बुरे स्वभाव के लोगों के बीच रहते हुए भी जिस कला द्वारा जीवन को आनंदमय ,उन्नत और संतोषजनक बनाया जा सकता है उसे 'जीवन जीने की कला 'कहते हैं | मनुष्य को सुखी होना सिखाया जा सकता है | यह कोई जटिल या असाध्य प्रक्रिया नहीं है | बहुत से लोग यह समझते हैं कि धन -संपन्न होने से सभी प्रकार के दुखों और अभावों से छुटकारा पाया जा सकता है | वस्तुत:बात ऐसी नहीं है | दुःख एक आंतरिक अभावात्मक धारणा है | वह अंतस से संबंधित एक रिक्त अनुभूति है | उस रिक्तता को बाहरी उपादानो से नहीं भरा जा सकता | यही कारण है कि जो लोग स्वस्थ -संपन्न देखे जाते हैं ,वे भी दुःख और पीड़ाओं से ग्रस्त रहते हैं |
साधन -सम्पन्नता सुख नहीं है तो सुख आखिर है क्या ?
   
       'सुख व्यक्ति के मानसिक चैन का एक स्तर है ,जिससे वह कुल मिलाकर अपने जीवन से संतुष्ट रहता है | "संतुष्टि ---एक भावनात्मक अनुभूति है ,जो उपलब्ध को पर्याप्त मानने से जन्मती है और अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये प्रचुर सामर्थ्य और साहस प्रदान करती है |
         सुख एक भावनात्मक उपलब्धि है ,इस उपलब्धि को अर्जित करने के लिये भावनाओं का संतुलन ,परिष्कार ,परिमार्जन ही सफल और कारगर तरीका है |
         जीवन की इस आंतरिक नीरसता और खोखलेपन को दूर करने के लिये भावनाओं को परिष्कृत करने हेतु सेवा -परमार्थ निष्काम कर्म को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना होगा ,इसी से जीवन का खालीपन दूर होगा और जीवन में आंतरिक ख़ुशी .और संतुष्टि महसूस होगी | 

2 May 2013

CONSCIENCE ! MAN'S MOST FAITHFUL FRIEND

'गंगा यमुना का जल श्वेत हो या श्याम उनमे से किसी में भी स्नान करने पर राजहंसो की धवलता यथावत बनी रहती है | वे जल के रंग से प्रभावित नहीं होते |
              परिष्कृत व्यक्तित्व और आध्यात्मिक द्रष्टिकोण वाले व्यक्ति सांसारिक सुख -दुःख को चलती -फिरती छाया से अधिक महत्व नहीं देते | वे उसकी उसी प्रकार उपेक्षा कर देते हैं जिस प्रकार खेत के काम में तल्लीन किसान आकाश में धूप छाँह के खेल की ओर ध्यान नहीं देते | वे इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं होते कि सुख -दुःख ,अनुकूलता -प्रतिकूलता की घनात्मक एवं ऋणात्मक परिस्थितियों में तप कर ही मानव जीवन पुष्ट होता है | जीवन की हर परिस्थिति को ईश्वर का वरदान मानकर वे सदैव प्रसन्न एवं संतुष्ट ही बने रहते हैं |

             फिनलैंड के विश्व प्रसिद्ध संगीतकार सिबिलियास से एक नवयुवक संगीतकार मिलने आया और कहने लगा कि आलोचक मेरी कई बार इतनी कड़ी आलोचना करते हैं कि मैं बेहद निराश हो जाता हूँ | कृपया इससे उबरने का कोई उपाय बताएं | सिबिलियास  ने कहा -"कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है | बस !उन नासमझों की बातों पर ध्यान न दो | यदि तुम्हारा उद्देश्य पवित्र है और नियत साफ है तो किसी निंदक और आलोचक से मत डरो | यह भी जान लो कि किसी भी निंदक या आलोचक के सम्मान में कोई मूर्ति या स्मारक आज तक दुनिया में नहीं बनाई गई है | "

1 May 2013

CHANGE YOUR PERCEPTION

द्रष्टिकोण के परिवर्तन से जहान बदल सकता है |
आशावादी व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा की सत्ता विराजमान देखता है | उसे सर्वत्र परमात्मा की मंगलदायक कृपा बरसती दिखाई देती है |  सच्ची शांति ,सुख और संतोष मनुष्य की अपने ऊपर ,अपनी शक्ति पर विश्वास करने से प्राप्त होता है |
        दुनिया में बुरे लोग हैं ठीक है पर यदि हम अपनी मनोभूमि को सहनशील ,धैर्यवान और उदार बना लें तो अपनी जीवन यात्रा आनंद पूर्वक तय कर सकते हैं |
        जो उपलब्ध है उसे कम या घटिया मानकर अनेक लोग दुखी रहते हैं | यदि हम इन लालसाओं पर नियंत्रण कर लें ,अपना स्वभाव संतोषी बना लें तो अपनी परिस्थितियों में शांतिपूर्वक रह सकते हैं |
        अपने से अधिक सुखी ,अधिक साधन -संपन्न लोगों के साथ अपनी तुलना की जाये तो प्रतीत होगा कि सारा अभाव और दरिद्रता हमारे ही हिस्से में आया है परंतु यदि हम अपने से अधिक समस्याग्रस्त और दुखी लोगों से अपनी तुलना करें तो हमारा असंतोष ,संतोष में परिणत हो जायेगा और अपने सौभाग्य की  सराहना करने को जी चाहेगा |
             सूर्य प्रतिदिन अपने उसी क्रम से निकलता है उसके प्रति हमारा द्रष्टिकोण प्रतिदिन उगते रहने वाले सूर्य जैसा ही होता है ,किंतु यदि हम अपना द्रष्टिकोण बदलें और विराट जगत के महान क्रियाशील शक्तितत्व के रूप में उस सूर्य का चिंतन करें तथा सूर्योदय के समय गायत्री मंत्र के जप के साथ प्रकाश का सम्मान करें तो वह महाप्राण हमारे शरीर को प्राण शक्ति से भरपूर और हमारे सम्पूर्ण जीवन को प्रकाशित कर देगा | 

THOUGHT IS THE SOUL OF ACT

मनुष्य का जीवन उसके विचारों का प्रतिबिम्ब है | सफलता -असफलता ,उन्नति -अवनति ,तुच्छता -महानता ,.सुख -दुःख ,शांति -अशांति आदि सभी पहलू मनुष्य के विचारों पर निर्भर करते हैं | विचारों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है | विचारों की शक्ति से बढ़कर इस संसार में कोई शक्ति नहीं है | इसी के सहारे मनुष्य जो बनना चाहता है ,बन सकता | यदि सोचने का सही तरीका जान लिया जाये ,तो समझना चाहिये कि संतोष ,सहयोग और सफलता प्राप्त करने की कुंजी हाथ लग गई |
कितने ही व्यक्ति विकलांगता को अभिशाप मान कर रोते हैं ,भाग्य और विधाता पर दोषारोपणकरते रहते हैं ,किंतु महाकवि मिल्टन अंधे थे ,उनके विचार ऐसे लोगों से भिन्न थे | वे कहते थे -65 इंच लंबे - चौड़े शरीर में आँखों की 2 इंच की कमी से पूरे शरीर को अनुपयोगी ठहराना कहां की बुद्धिमानी है | वे पूरे जीवन ज्ञान -साधना में लगे रहे | ऐसे परिपक्व विचारों के  कारण ही विश्व विख्यात कवियों की श्रेणी मे उनका नाम आज भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है |
व्यक्ति अजस्त्र शक्तियों का भण्डागार है ,उसमे प्रचुर सामर्थ्य है | यदि वह अपने विचारों में दूरदर्शी विवेकशीलता का समावेश कर ले ,तो दुर्बल और दुर्भाग्यग्रस्त रहने वाला व्यक्ति भी अपने जीवन में सौभाग्य की स्थिति का आनंद उठा सकने में समर्थ हो सकता है |