समर्थ रामदास ने अपने शिष्य कल्याण को महाराष्ट्र के छोटे से गांव में धर्म प्रचार व जन जाग्रति के लिये भेजा | गांव पहुंच कर कल्याण ने देखा कि इस गांव के लोग बीमार ,गरीब ,अशिक्षित हैं ,उन्हें भरपेट भोजन तक नहीं मिलता | कल्याण ने वहां घोषणा की -समर्थ रामदास के शिष्य तुम लोगों के दुःख दूर करने आये हैं ,यह सुनकर पूरा गांव मैदान में एकत्रित हो गया | सबको सामने बैठाकर कल्याण ने उन्हें प्रवचन देना ,ब्रह्म सूत्र और गीता के श्लोक की व्याख्या सुनाना प्रारम्भ किया | आश्चर्य !भीड़ के चेहरे पर दुःख ,उदासी ,वेदना और तीव्र हो गई | एक -एक करके वे उठ गये और मैदान खाली हो गया | हताश होकर कल्याण गुरु समर्थ के पास लौट आये और बोले -"हमारा उपदेश कुछ काम नहीं आया ,उन अनपढ़ मूर्खों ने हमारी कुछ भी नहीं सुनी "| समर्थ बोले -"वे अनपढ़ हैं और तुम कुपढ़ हो कल्याण | तुम उनकी विवशता ,उनकी भावना को नहीं पढ़ सके | करुणा और संवेदना के बिना ,समाज के ह्रदय को स्पर्श किये बगैर ,उनकी प्राथमिक जरूरतों को पूरा किये बिना तत्वज्ञान की चर्चा संभव नहीं | आज की आवश्यकता -मुरझाए जीवन को संवेदना से सींचना है ,जीवन के प्रति आशा जगानी है | "फिर उन्होंने दो अन्य शिष्यों को उस गांव में औषधि ,शिक्षा ,भोजन आदि के प्रबंध के लिये भेजा |
30 March 2013
SYMPATHY
संवेदना होश का ,बोध का दूसरा नाम है ,जिसके दिलों की धडकनों में संवेदना के स्वर गूंजते हैं ,वह आलसी ,विलासी ,निष्ठुर ,निष्करुण नहीं हो सकता | आस -पास का दुःख उसे बैचैन करता रहेगा | जब तक वह इन पीड़ितों के लिये कुछ अच्छा नहीं करेगा ,उसे राहत नहीं मिलेगी | संवेदना से ही स्वार्थ और अहंता की जकड़न ढीली पड़ती हैं | संवेदना से प्रेरित होकर दूसरों के लिये किया गया तनिक सा कार्य भी आत्म शक्ति को जाग्रत कर देता है ,दूसरों के प्रति थोड़ी सी भलाई का विचार भी ह्रदय में सिंह का बल संचारित कर देता है | विकास की अंतिम सीढ़ी भाव -संवेदना को मर्माहत कर देने वाली करुणा के विस्तार में है | |
आत्म निर्माण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य की इच्छाएं और मनोवृति उनके निजी सुख और उपभोग तक ही सीमित न रहें वरन उनका विस्तार हो | लेने -लेने में ही सब आनंद नहीं है ,जब तक केवल पाने की अभिलाषा रहती है तब तक मनुष्य छोटा ,दीन ,असहाय अकामऔर बेकार सा लगता है किंतु जैसे ही उसके शरीर ,मन ,बुद्धि और सम्पूर्ण साधनों की दिशा चतुर्मुखी होने लगती है ,चारों ओर फैलने लगती है वैसे ही उसकी महानता की सुगंध भी फैलने लगती है और वह अपने जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगता है |
इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध नगर में जन्मे बूथ ने शिक्षा प्राप्त करने के बाद पादरी बनने का निश्चय किया | वे पादरी बन गये तब एक दिन उनने छोटे लड़के को सड़क पर गिरते और पीछा करने वालों द्वारा पीटते देखा | उन्हें ज्ञात हुआ कि लड़का हलवाई की दुकान से रोटी चुराकर भागा है | पादरी ने पूछा तो लड़के ने कहा -"पिटाई सहन कर ली गई ,पर भूख सहन न हो सकी | "छोटा बालक अनाथ था कुछ कमाने लायक उसकी उम्र भी नहीं थी | पादरी रात भर सो न सके ,उनके मस्तिष्क में वे शब्द गूंजते रहे जोंबच्चे ने कहे थे दूसरे दिन उन्होंने पादरी पद से इस्तीफा देदिया और अनाथों ,पथभ्रष्टों को प्यार से रास्ते पर लाने और शिक्षा व उद्द्योग सिखाने का काम हाथ में लिया ,इस संगठन का नाम रखा 'मुक्ति सेना '| पादरी को जनरल कहा जाने लगा | उनने ऐसे हजारों लोगों को तलाश कर सुधारा तथा व्यवसायी बनाया | उनकी लगन से 60 देशों में इस संस्था की शाखा बनाई गईं और पतितों को ऊँचा उठाने के कार्य में बहुत सफलता पाई |
आत्म निर्माण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य की इच्छाएं और मनोवृति उनके निजी सुख और उपभोग तक ही सीमित न रहें वरन उनका विस्तार हो | लेने -लेने में ही सब आनंद नहीं है ,जब तक केवल पाने की अभिलाषा रहती है तब तक मनुष्य छोटा ,दीन ,असहाय अकामऔर बेकार सा लगता है किंतु जैसे ही उसके शरीर ,मन ,बुद्धि और सम्पूर्ण साधनों की दिशा चतुर्मुखी होने लगती है ,चारों ओर फैलने लगती है वैसे ही उसकी महानता की सुगंध भी फैलने लगती है और वह अपने जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगता है |
इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध नगर में जन्मे बूथ ने शिक्षा प्राप्त करने के बाद पादरी बनने का निश्चय किया | वे पादरी बन गये तब एक दिन उनने छोटे लड़के को सड़क पर गिरते और पीछा करने वालों द्वारा पीटते देखा | उन्हें ज्ञात हुआ कि लड़का हलवाई की दुकान से रोटी चुराकर भागा है | पादरी ने पूछा तो लड़के ने कहा -"पिटाई सहन कर ली गई ,पर भूख सहन न हो सकी | "छोटा बालक अनाथ था कुछ कमाने लायक उसकी उम्र भी नहीं थी | पादरी रात भर सो न सके ,उनके मस्तिष्क में वे शब्द गूंजते रहे जोंबच्चे ने कहे थे दूसरे दिन उन्होंने पादरी पद से इस्तीफा देदिया और अनाथों ,पथभ्रष्टों को प्यार से रास्ते पर लाने और शिक्षा व उद्द्योग सिखाने का काम हाथ में लिया ,इस संगठन का नाम रखा 'मुक्ति सेना '| पादरी को जनरल कहा जाने लगा | उनने ऐसे हजारों लोगों को तलाश कर सुधारा तथा व्यवसायी बनाया | उनकी लगन से 60 देशों में इस संस्था की शाखा बनाई गईं और पतितों को ऊँचा उठाने के कार्य में बहुत सफलता पाई |
28 March 2013
NISHKAM KARM
निष्काम कर्म से आप अपने लिये सुंदर दुनिया बना सकते हैं | सत्कर्म से पुण्य प्राप्त होते हैं और पुण्य से ही सुख -साधन की सामग्री जुटती है | अनवरत निष्काम कर्म करने से चित शुद्धि होती है | यदि इस संसार में एक दिन के लिये भी किसी व्यक्ति के चित में थोड़ा सा आनंद एवं शांति प्रदान की जा सके तो उतना ही जीवन सार्थक है | |
मन को भगवान में लगाकर सभी लाभ -हानि से मुक्त होकर केवल कर्म करते रहने से निष्काम कर्म सध जाता है | निष्काम कर्म करते रहने से जटिल संस्कारों की घटाएं कमजोर पड़ने लगती हैं ,निष्काम कर्म के द्वारा हमें अपने जीवन का महत्वपूर्ण उदेश्य -स्वधर्म का बोध होता है | अपने वास्तविक कर्तव्य का आभास होने लगता है | सद्चिन्तन एवं निष्काम सेवा का सौन्दर्य कभी मलिन नहीं होता | जीवन सद्कर्मों के प्रभाव से विकसित एवं समुन्नत होता है जीवन उनका सफल है जो औरों के काम आ सकें ,दूसरों की सेवा कर सकें ,प्रेरणा का प्रकाश बन सकें | ऐसा जीवन छोटा होने पर भी शतायु पार करने वाले से उत्कृष्ट एवं महान होता है |
मन को भगवान में लगाकर सभी लाभ -हानि से मुक्त होकर केवल कर्म करते रहने से निष्काम कर्म सध जाता है | निष्काम कर्म करते रहने से जटिल संस्कारों की घटाएं कमजोर पड़ने लगती हैं ,निष्काम कर्म के द्वारा हमें अपने जीवन का महत्वपूर्ण उदेश्य -स्वधर्म का बोध होता है | अपने वास्तविक कर्तव्य का आभास होने लगता है | सद्चिन्तन एवं निष्काम सेवा का सौन्दर्य कभी मलिन नहीं होता | जीवन सद्कर्मों के प्रभाव से विकसित एवं समुन्नत होता है जीवन उनका सफल है जो औरों के काम आ सकें ,दूसरों की सेवा कर सकें ,प्रेरणा का प्रकाश बन सकें | ऐसा जीवन छोटा होने पर भी शतायु पार करने वाले से उत्कृष्ट एवं महान होता है |
27 March 2013
एक राजा अपने मंत्रीके साथ शिकार पर निकले | आखेट के दौरान राजा की उंगली कट गई और रक्त बहने लगा | यह देख मंत्री ने कहा -"चिंता न करें राजन !भगवान जो करता है अच्छे के लिये करता है | "राजा पीड़ा से व्याकुल थे ,ऐसे में मंत्री का कथन सुनकर क्रोध से तमतमा उठे | राजा ने आज्ञा दी कि मंत्री उसी समय उनका साथ छोड़कर अन्य राह पर जायें | मंत्री ने सर झुकाकर राजा की आज्ञा स्वीकार की और दूसरी दिशा में निकल पड़े | राजा कुछ ही दूर चले थे कि नरभक्षियों के एक दल ने उन्हें पकड़ लिया ,उनकी बलि देने की तैयारी होने लगी | तभी उनकी कटी उंगली देखकर नरभक्षियों के पुजारी ने कहा -"अरे !इसका तो अंग भंग है ,इसकी बलि स्वीकार नहीं की जा सकती | "राजा को छोड़ दिया गया | जीवन दान मिला तो राजा को अपने प्रभु भक्त मंत्री की याद आई | वे तुरंत मंत्री की तलाश में निकल पड़े | मंत्री थोड़ी दूरी पर नदी के किनारे भगवान के ध्यान में तल्लीन थे | राजा ने मंत्री को गले लगाया और सारी घटना सुनाई | राजा ने पूछा -'मेरी उंगली कटी तो इससे भगवान ने मेरी जान बचाई ,लेकिन मैंने तुम्हे इतना अपमानित किया तो उसमे तुम्हारा क्या भला हुआ ?'मंत्री बोले -"राजन !यदि मैं भी आपके साथ होता तो अभी आपके स्थान पर ,मेरी बलि चढ़ चुकी होती ,इसलिये
भगवान जो भी करते हैं ,मनुष्य के भले के लिये ही करते हैं | "
भगवान जो भी करते हैं ,मनुष्य के भले के लिये ही करते हैं | "
गायत्री मंत्र के जप से और परमात्म सत्ता के प्रति समर्पण भाव से रहने की भावना से तनाव से मुक्ति मिलती है | निंदा ,प्रशंसा ,मान -अपमान को हम समभाव से लें ,उव्दिग्न (क्षुब्ध ,परेशान )होना और उव्दिग्न करना छोड़ दें -जल में कमल की तरह रहें तो तनाव मुक्त जीवन जी सकेंगे |
संत तुकाराम जब अत्यंत अभावग्रस्त स्थिति में थे ,तब उन्होंने पद लिखा ,जिसका भावार्थ है -"हे प्रभु !अच्छा ही हुआ मेरा दीवाला निकल गया | अकाल भी पड़ा ,वह भी त्रास भोगा | पत्नी और पुत्र भी भोजन के अभाव में मर गये ,यह भी अच्छा हुआ | मैं भी हर तरह की दुर्दशा भोग रहा हूं ,यह भी अच्छा ही है | संसार में अपमानित हुआ ,फिर भी धैर्य न खोया ,यह आपकी ही कृपा है प्रभु !गाय ,बैल ,द्रव्य सभी चले गये ,यह भी अच्छा ही है | लोक -लाज भी जाती रही ,यह भी ठीक ही है ,क्योंकि इन्ही का परिणाम है कि मुझे तुम्हारी मधुरिमामय शांतिपूर्ण गोद मिली | ऐसी ही कृपा बनाये रखना | "यह है सच्चे भक्त की मन:स्थिति | कभी कोई शिकायत नहीं
संत तुकाराम जब अत्यंत अभावग्रस्त स्थिति में थे ,तब उन्होंने पद लिखा ,जिसका भावार्थ है -"हे प्रभु !अच्छा ही हुआ मेरा दीवाला निकल गया | अकाल भी पड़ा ,वह भी त्रास भोगा | पत्नी और पुत्र भी भोजन के अभाव में मर गये ,यह भी अच्छा हुआ | मैं भी हर तरह की दुर्दशा भोग रहा हूं ,यह भी अच्छा ही है | संसार में अपमानित हुआ ,फिर भी धैर्य न खोया ,यह आपकी ही कृपा है प्रभु !गाय ,बैल ,द्रव्य सभी चले गये ,यह भी अच्छा ही है | लोक -लाज भी जाती रही ,यह भी ठीक ही है ,क्योंकि इन्ही का परिणाम है कि मुझे तुम्हारी मधुरिमामय शांतिपूर्ण गोद मिली | ऐसी ही कृपा बनाये रखना | "यह है सच्चे भक्त की मन:स्थिति | कभी कोई शिकायत नहीं
26 March 2013
एक बार एक गरीब आदमी हजरत इब्राहीम के पास पहुंचा और कुछ आर्थिक सहायता मांगने लगा | हजरत ने कहा -"तुम्हारे पास यदि कुछ सामान हो तो मेरे पास ले आओ | "गरीब आदमी के पास तश्तरी ,लोटा और दो कम्बल थे | हजरत ने एक कंबल छोड़कर सब सामान नीलाम कर दिया ,नीलाम में प्राप्त दो दरहम उसे देते हुए कहा -"एक दरहम का आटा और एक दरहम की कुल्हाड़ी खरीद लो | आटे से पेट भरो और कुल्हाड़ी से लकड़ी काटकर बाजार में बेचो | "गरीब आदमी ने यही किया ,पंद्रह दिन बाद वह लौट कर हजरत के पास आया तो उसके पास बचत के दस दरहम थे | हजरत ने कहा -"समझदारी का मार्ग यही है कि यदि मनुष्य समर्थ हो तो आवश्यक सहायता अपनी ही बाजुओं से मांगे |
AMBITION
महत्वाकांक्षा की धुरी पर घूमने वाला जीवन वृत ही नरक है | महत्वाकांक्षाओं का ज्वर जीवन को विषाक्त कर देता है | जो इस ज्वर से पीड़ित हैं ,शांति का संगीत और आत्मा का आनंद भला उनके भाग्य में कहां ?व्यक्ति जब तक स्वयं की वास्तविकता से दूर भागता है ,तब तक वह किसी न किसी रूप में महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रसित होता रहता है | स्वयं से दूर भागने की आकांक्षा में वह स्वयं जैसा है ,उसे ढकता है और भूलता है |
महत्वाकांक्षा यों तोप्रगति के लिये अत्यंत आवश्यक है ,पर वह अनियंत्रित होने पर दुःख -शोक का कारण बनती है |इन दिनों महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ी -चढ़ी है कि मनुष्य अधिकाधिक दौलत जुटा लेने ,यश कमा लेने और वाहवाही लूटने की उधेड़बुन में ही हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है यदि व्यक्ति आधुनिकता के साथ आध्यात्मिकता का समावेश करता चले ,आवश्यकता से अधिक की आकांक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत न रहे ,तो मूड के ख़राब होने जैसी किसी भी कठिनाई से वह बचा रहेगा आत्मज्ञान से ,स्वयं को जानने ,उसमे जीने और जागने के प्रयास से ही महत्वाकांक्षा के रोग से मुक्ति संभव है |
महत्वाकांक्षा यों तोप्रगति के लिये अत्यंत आवश्यक है ,पर वह अनियंत्रित होने पर दुःख -शोक का कारण बनती है |इन दिनों महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ी -चढ़ी है कि मनुष्य अधिकाधिक दौलत जुटा लेने ,यश कमा लेने और वाहवाही लूटने की उधेड़बुन में ही हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है यदि व्यक्ति आधुनिकता के साथ आध्यात्मिकता का समावेश करता चले ,आवश्यकता से अधिक की आकांक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत न रहे ,तो मूड के ख़राब होने जैसी किसी भी कठिनाई से वह बचा रहेगा आत्मज्ञान से ,स्वयं को जानने ,उसमे जीने और जागने के प्रयास से ही महत्वाकांक्षा के रोग से मुक्ति संभव है |
सम्राट वृष मातंग शील -साधुता में श्रेष्ठ थे ,पर उन्हें क्रोध बहुत जल्दी आता था | एक बार उनकी परिचारिका ने उनकी सेवा -परिचर्या करने से इनकार कर दिया ,बोली -"आपके शरीर से दुर्गन्ध आती है | सम्राट क्षण भर को क्रोध से उबल पड़े ,तभी उन्हें अपने आचार्य के ये वचन याद आ गये --"प्रशंसा और निंदा को समभाव से ग्र
हण करने वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी होता है | "अत:वे क्रोध को पी गये |
वैद्य से दुर्गन्ध का कारण पूछा -,शरीर की परीक्षा हुई | पता चला उनके दांत में भयंकर रोग हो गया है | यदि एक -दो दिन में चिकित्सा नहीं हुई तो वह असाध्य हो जायेगा | चिकित्सा हो गई ,वे स्वस्थ और दुर्गन्ध रहित हो गये | बड़ों की सीख याद रखने वाला अनर्थ से बच जाता है |
हण करने वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी होता है | "अत:वे क्रोध को पी गये |
वैद्य से दुर्गन्ध का कारण पूछा -,शरीर की परीक्षा हुई | पता चला उनके दांत में भयंकर रोग हो गया है | यदि एक -दो दिन में चिकित्सा नहीं हुई तो वह असाध्य हो जायेगा | चिकित्सा हो गई ,वे स्वस्थ और दुर्गन्ध रहित हो गये | बड़ों की सीख याद रखने वाला अनर्थ से बच जाता है |
24 March 2013
MERCY
'मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है ',राजकुमार सिद्धार्थ और मंत्री पुत्र देवदत्त दोनों बाग में घूमने जा रहे थे | सहसा सिद्धार्थ ने देखा दो सुंदर राजहंस आकाश में जा रहे हैं | उन्होंने प्रसन्न होकर कहा -देवदत्त !देखो कितने सुंदर पक्षी जा रहे हैं | देवदत्त ने ऊपर देखा और अपना धनुष -बाण उठाकर ,एक पक्षी को मार गिराया | सिद्धार्थ की प्रसन्नता ,शोक और व्याकुलता में बदल गई | सिद्धार्थ ने रक्त से सने राजहंस को गोदी में उठा लिया और रोने लगे | देवदत्त ने कहा -"इसे मैंने बाण से मारा है इसलिये इस पक्षी पर मेरा अधिकार है "| सिद्धार्थ बिना कुछ कहे सुने अपने महल चले गये और बड़े प्यार से पक्षी की सेवा करने लगे | देवदत्त ने न्याय के लिये राजा से शिकायत की | महाराज ने दोनों को दरबार में बुलाया | एक ओर देवदत्त खड़े थे और दूसरी ओर सिद्धार्थ पक्षी को गोद में लेकर खड़े थे | देवदत्त ने अपना तर्क प्रस्तुत किया कि मैंने पक्षी को बाण मारा है इसलिये इस पर मेरा अधिकार है | सिद्धार्थ ने कहा मैंने इसे बचाया है इसलिये इस पर मेरा अधिकार है | दोनों के तर्क सुनने के बाद महाराज ने पक्षी को दोनों के बीच में छुडवा दिया और वह पक्षी स्वयं सिद्धार्थ के पास चला गया | इसी भावना ने उन्हें विश्वमानव भगवान बुद्ध बनाया |
23 March 2013
व्यक्ति धर्म -उपदेशक हो अथवा विद्वान मनीषी ,वह अपने आप को कितना तपा सका ,इस पर उसकी आन्तरिक वरिष्ठता निर्भर है | संत राबिया जंगल में तप कर रहीं थीं | पशु -पक्षी उनके इर्द -गिर्द बैठे हंस खेल रहे थे | हसन उधर से निकले ,उन्हें भी पहुंचा हुआ संत माना जाता था | हसन जैसे ही राबिया के नजदीक पहुंचे ,सारे पशु -पक्षी उन्हें देखते ही भाग खड़े हुए | उन्हें अचम्भा हुआ ,उन्होंने राबिया से पूछा -जानवर परिन्दे तुम्हारे इतने नजदीक रहते हैं और मुझे देखकर भागते हैं ,इसका क्या कारण है ?राबिया ने पूछा -आप खाते क्या हैं ?हसन ने कहा -अधिकांशत:गोश्त ही खाने को मिलता है | राबिया हंस पड़ी | लोग आप को जो भी समझें उनकी मर्जी | पर आपका दिल कैसा है ,उसे यह नासमझ जानवर अच्छी तरह जानते हैं |
गायत्री मन्त्र
गायत्री विद्दा ही प्राण विद्दा है | 24 अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र में प्राण विद्दा का समस्त विज्ञान -विधान निहित है | सूर्य ही समस्त स्रष्टि के प्राणों का आदि स्रोत है | सभी जीवधारी ,वृक्ष -वन
स्पति इसी से प्राणों का अनुदान पाते हैं | इसी की प्रचंड ऊर्जा प्रखर प्राण चेतना बनकर समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त रहती है और गायत्री महामंत्र के उपास्य ही सविता देव हैं | गायत्री महामंत्र ही स्रष्टि एवं जीवन का सार है | गायत्री महामंत्र का जप एवं सवि
ता देव का ध्यानही प्राण को सुपुष्ट ,मन को सतेज ,इंद्रियों को सचेतन ,ह्रदय को पवित्र एवं जीवन को बलवान बनाता है |
गायत्री विद्दा ही प्राण विद्दा है | 24 अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र में प्राण विद्दा का समस्त विज्ञान -विधान निहित है | सूर्य ही समस्त स्रष्टि के प्राणों का आदि स्रोत है | सभी जीवधारी ,वृक्ष -वन
स्पति इसी से प्राणों का अनुदान पाते हैं | इसी की प्रचंड ऊर्जा प्रखर प्राण चेतना बनकर समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त रहती है और गायत्री महामंत्र के उपास्य ही सविता देव हैं | गायत्री महामंत्र ही स्रष्टि एवं जीवन का सार है | गायत्री महामंत्र का जप एवं सवि
ता देव का ध्यानही प्राण को सुपुष्ट ,मन को सतेज ,इंद्रियों को सचेतन ,ह्रदय को पवित्र एवं जीवन को बलवान बनाता है |
22 March 2013
JUDGEMENT
उपासना का अर्थ मात्र देवालय बना देना नहीं ,वैसा जीवन भी जीना भी होता है |
यमदूतों द्वारा दो व्यक्तियों को चित्रगुप्त के सम्मुख पेश किया गया | यमदूतों ने प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा -"यह नगर सेठ है ,इनके यहां धन की कोई कमी नहीं | खूब धन कमाया है और समाज हित के लिये धर्मशाला ,मंदिर ,कुआँ ,विद्दालय आदि अनेक निर्माण कार्यों में उसे व्यय किया है | "अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी | उसके लिये यमदूत ने कहा -"यह व्यक्ति बहुत गरीब है ,दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिये मुश्किल है | एक दिन जब ये भोजन कर रहा था ,एक भूखा कुत्ता इनके पास आया | इसने स्वयं भोजन न करके सारी रोटियां कुत्ते को दे दीं | स्वयं भूखे रहकर दूसरे की क्षुधा शांत की | अब बताइये इन दोनों के लिये क्या आज्ञा है ?"चित्रगुप्त जी ने बड़ी गंभीरता से कहा -"धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाये | "चित्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर दोनों आश्चर्य में पड़ गये | चित्रगुप्त ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा -"धनी व्यक्ति ने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया है और उस धन से ऐश और आराम का जीवन व्यतीत किया है | निर्माण कार्यों के पीछे इनकी यह भावना थी कि लोग प्रशंसा करें ,यश गायें | गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की ,उस रोटी को भी समय आने पर भूखे कुत्ते के लिये छोड़ दिया | यदि यह साधन -संपन्न होता तो न जाने कितने अभावग्रस्त लोगों की सहायता करता | पाप और पुण्य का संबंध मानवीय भावनाओं से है ,क्रियाओं से नहीं | अत:मेरे द्वारा दिया गया निर्णय ही अंतिम है | "
यमदूतों द्वारा दो व्यक्तियों को चित्रगुप्त के सम्मुख पेश किया गया | यमदूतों ने प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा -"यह नगर सेठ है ,इनके यहां धन की कोई कमी नहीं | खूब धन कमाया है और समाज हित के लिये धर्मशाला ,मंदिर ,कुआँ ,विद्दालय आदि अनेक निर्माण कार्यों में उसे व्यय किया है | "अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी | उसके लिये यमदूत ने कहा -"यह व्यक्ति बहुत गरीब है ,दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिये मुश्किल है | एक दिन जब ये भोजन कर रहा था ,एक भूखा कुत्ता इनके पास आया | इसने स्वयं भोजन न करके सारी रोटियां कुत्ते को दे दीं | स्वयं भूखे रहकर दूसरे की क्षुधा शांत की | अब बताइये इन दोनों के लिये क्या आज्ञा है ?"चित्रगुप्त जी ने बड़ी गंभीरता से कहा -"धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाये | "चित्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर दोनों आश्चर्य में पड़ गये | चित्रगुप्त ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा -"धनी व्यक्ति ने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया है और उस धन से ऐश और आराम का जीवन व्यतीत किया है | निर्माण कार्यों के पीछे इनकी यह भावना थी कि लोग प्रशंसा करें ,यश गायें | गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की ,उस रोटी को भी समय आने पर भूखे कुत्ते के लिये छोड़ दिया | यदि यह साधन -संपन्न होता तो न जाने कितने अभावग्रस्त लोगों की सहायता करता | पाप और पुण्य का संबंध मानवीय भावनाओं से है ,क्रियाओं से नहीं | अत:मेरे द्वारा दिया गया निर्णय ही अंतिम है | "
'उस धन से क्या लाभ ,जो याचक को नहीं दिया जाता ,उस बल से क्या ,जो शत्रु को रोक न सके ,उस ज्ञान से क्या ,जो आचरण में न आ सके और उस आत्मा (व्यक्ति )से क्या जो जितेंद्रिय से न बन सके | '
प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ.क्रोनिन बड़े गरीब थे | डाक्टर बनकर वे धनवान हो गये और उनका मन धन संचय करने में पड़ गया | उनकी पत्नी ने कहा ,"हम गरीब ही ठीक थे ,कम से कम दिल में दया तो थी ,अब उसे खोकर कंगाल हो गये | "डॉ
.क्रोनिन ने कहा ,"सच है ,धनी धन से नहीं मन से होते हैं | तुमने मुझे सही राह दिखाई ,नहीं तो हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाते ,जहां परस्पर स्नेह के सूत्र भी कमजोर पड़ने लगते | "
प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ.क्रोनिन बड़े गरीब थे | डाक्टर बनकर वे धनवान हो गये और उनका मन धन संचय करने में पड़ गया | उनकी पत्नी ने कहा ,"हम गरीब ही ठीक थे ,कम से कम दिल में दया तो थी ,अब उसे खोकर कंगाल हो गये | "डॉ
.क्रोनिन ने कहा ,"सच है ,धनी धन से नहीं मन से होते हैं | तुमने मुझे सही राह दिखाई ,नहीं तो हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाते ,जहां परस्पर स्नेह के सूत्र भी कमजोर पड़ने लगते | "
21 March 2013
SUCCESS
लक्ष्य का निर्धारण ठीक हो तो असफलता भी सफलता में बदल जाती है | बिखराव से असफलता हाथ लगती है और द्रढ़ संकल्प व सुनियोजन से सफलता |
सिफलिस रोग की औषधि खोजने वाले प्रसिद्ध विज्ञानी डा.ऐर्लिक ने अपनी दवा का नाम '606 'रखा | ऐसा इसलिये क्योंकि उन्होंने 605 बार बुरी तरह असफल रहने के बाद 606 वीं बार सफलता पाई थी | इस विलक्षण नाम के पीछे उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग यह जान सकें कि असफलता ही सफलता की जननी है | असफलता से निराश नहीं होना चाहिए |
सिफलिस रोग की औषधि खोजने वाले प्रसिद्ध विज्ञानी डा.ऐर्लिक ने अपनी दवा का नाम '606 'रखा | ऐसा इसलिये क्योंकि उन्होंने 605 बार बुरी तरह असफल रहने के बाद 606 वीं बार सफलता पाई थी | इस विलक्षण नाम के पीछे उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग यह जान सकें कि असफलता ही सफलता की जननी है | असफलता से निराश नहीं होना चाहिए |
समय ही जीवन और श्रम ही वैभव है | कौन कितने दिन जिया ,इसका लेखा -जोखा जन्म दिन से लेकर मरण के दिन गिनकर नहीं ,वरन इस आधार पर लगाया जाना चाहिए कि किसने अपने समय का उपयोग महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिये किया | आदि शंकराचार्य मात्र 32 वर्ष जिये | विवेकानंद ने 36 वर्ष की स्वल्प आयु पाई | रामतीर्थ 33 वर्ष की आयु में ही चल बसे | ऐसे अनेक व्यक्ति इस संसार में हुए हैं जिन्हें लंबी अवधि तक जीने का अवसर नहीं मिला ,पर उन्होंने अपने समय का श्रेष्ठतम उपयोग किया | कितने ही लोग लंबी आयु तक जीते हैं ,उनका आधा समय कुचक्रों और शेष समय आलस्य -प्रमाद में चला जाता है | इसे वे पहले तो जान नहीं पाते किंतु जब विदाई का दिन आता है तो आँखे खुलती हैं और हाथ मलते हुए रुधे कंठ और भरी आँखों से इतना ही कह पाते हैं कि उन्होंने बहुमूल्यअवसर निरर्थक कामों में गंवाया |
20 March 2013
बहिरंग का सौंदर्य आकर्षक है ,सम्मोहक है तथा प्रत्यक्ष दिखायी देता है | अंतरंग का सौंदर्य दिखाई नहीं देता किंतु व्यक्ति की मुखाकृति से लेकर उसके शालीन व्यवहार तथा संवेदना में सतत मुखरित होता रहता है | जिस सौंदर्य एवं आत्म तेज की शक्ति का भंडार भीतर भरा पड़ा है उसे देखा भले ही न जा सके किंतु उसी के बलबूते किसी का व्यक्तित्व प्रकाशित होता है | बाहरी साधनों से तो मात्र शरीर की सुव्यवस्था व सुसज्जा ही संभव हो पाती है |
एक युवक ने महर्षि रमण से पूछा -"जीवन में बचाने जैसा क्या है ?"महर्षि ने कहा -"स्वयं की आत्मा और उसका संगीत | "इतना कहकर उन्होंने उसे एक वृद्ध संगीतकार की कथा सुनाई | उन्होंने कहा -"एक बूढ़ा संगीतकार एक बार घने वन से गुजर रहा था ,उसके पास हजारों स्वर्ण मुद्राएँ थीं | राह में कुछ डाकुओं ने उसे घेर लिया और उसका सारा धन तथा उसकी वीणा भी उससे छीन ली | संगीतकार ने डाकुओं से प्रार्थना की कि वे उसकी वीणा वापस कर दें | "
"डाकू चौंके कि यह बूढ़ा स्वर्ण मुद्रा न मांगकर वीणा क्यों वापस मांग रहा है | उन्होंने उसकी वीणा व्यर्थ समझकर वापस कर दी | वृद्ध प्रसन्न होकर वीणा बजाने लगा ,उस अँधेरी रात में वीणा के स्वर गूंज उठे ,शुरू
में तो डाकुओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया लेकिन थोड़ी देर बाद उनकी आँखे भीग गईं | वे सब बूढ़े के पैरों पर गिर पड़े एवं उसका सारा धन वापस कर दिया |
कथा सुनाकर महर्षि बोले -"यही दशा मनुष्य की है ,जो प्रतिदिन लूटा जा रहा है ,लेकिन इसमें बुद्धिमान वह है जो अपनी आत्मा के प्रति सचेत है ,उसके संगीत को बचा लेता है | जो ऐसा करता है ,उसका स्वयं ही सब कुछ बच जाता है | "
एक युवक ने महर्षि रमण से पूछा -"जीवन में बचाने जैसा क्या है ?"महर्षि ने कहा -"स्वयं की आत्मा और उसका संगीत | "इतना कहकर उन्होंने उसे एक वृद्ध संगीतकार की कथा सुनाई | उन्होंने कहा -"एक बूढ़ा संगीतकार एक बार घने वन से गुजर रहा था ,उसके पास हजारों स्वर्ण मुद्राएँ थीं | राह में कुछ डाकुओं ने उसे घेर लिया और उसका सारा धन तथा उसकी वीणा भी उससे छीन ली | संगीतकार ने डाकुओं से प्रार्थना की कि वे उसकी वीणा वापस कर दें | "
"डाकू चौंके कि यह बूढ़ा स्वर्ण मुद्रा न मांगकर वीणा क्यों वापस मांग रहा है | उन्होंने उसकी वीणा व्यर्थ समझकर वापस कर दी | वृद्ध प्रसन्न होकर वीणा बजाने लगा ,उस अँधेरी रात में वीणा के स्वर गूंज उठे ,शुरू
में तो डाकुओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया लेकिन थोड़ी देर बाद उनकी आँखे भीग गईं | वे सब बूढ़े के पैरों पर गिर पड़े एवं उसका सारा धन वापस कर दिया |
कथा सुनाकर महर्षि बोले -"यही दशा मनुष्य की है ,जो प्रतिदिन लूटा जा रहा है ,लेकिन इसमें बुद्धिमान वह है जो अपनी आत्मा के प्रति सचेत है ,उसके संगीत को बचा लेता है | जो ऐसा करता है ,उसका स्वयं ही सब कुछ बच जाता है | "
19 March 2013
पंडित शास्त्री की गणना काशी के महान विद्वानों में होती है | एक दिन उनके एक शिष्य ने उनसे इस सफलता का रहस्य पूछा ,शास्त्रीजी ने शिष्य को एक ताला -चाबी पकड़ाते हुए कहा -"मैंने जीवन में जो भी अर्जित किया ,इससे प्रेरणा पाकर ही किया | शिष्य की उत्सुकता को भाँपते हुए वे बोले -"ये ताला सफलता का प्रतीक है और चाबी पात्रता की | मेरे जीवन भर के अनुभवों का सार यह है कि सफलता का ताला पात्रता की चाबी से खुलता है | | यश प्रतिष्ठा के पीछे भागने के बजाय यदि मनुष्य अपना समय पात्रता विकसित करने में लगाए तो उसका व्यक्तित्व सफलता को उसके जीवन में आने केलिए विवश कर देता है |
इतिहास साक्षी है कि सफलता उन्ही को मिलती है जिन्होंने निजी जीवन में कठोरता अपनायी ,स्वयं पर कड़ा अंकुश लगाकर आत्मानुशासन का अभ्यास किया एवं अपनी बची हुई ऊर्जा को सुनियोजित किया | यदि अनुकरणीय और प्रखर प्रतिभा का धनी बनना है तो एक ही राजमार्ग है -तपश्चर्या से स्वयं को अनुशासित करना ,व्यवहार में सज्जनता शालीनता ,श्रमशीलता ,मितव्ययता ,स्वच्छता ,उदारता आदि श्रेष्ठ गुणों को अपनाते हुए जीनियस बनना ,व्यक्तित्व को बहुआयामी बनाना | चीनी यात्री हुवेन्सांग ने भारत के आरण्यक ,आश्रम और मठों में प्रतिभाओं को गढ़ने के लिये अपनायी जाने वाली कठिन तपश्चर्या प्रणाली की बहुत प्रशंसा की है | मिस्र निवासी सेंट एंथनी ने जिन्हें 'डेज़र्ट फादर 'कहा जाता है ,उन्होंने तीसरी शताब्दी के आरंभिक दिनों में लाल समुद्र के पास प्रतिभाएं निखारने के लिये एक कठोर तपश्चर्यारत जीवन को आधार बनाया | मठ में निवास करने वालों के लिये इटली के संत 'बेनिडिक्ट ऑफ नरसिया 'ने सादगी ,ब्रह्मचर्य और कठोर अनुशासन का विधान किया था |
प्राचीन काल से ही भारतीय ऋषि -मनीषियों का यह निष्कर्ष था कि प्रतिभा -प्रखरता के लिये कठोर तपस्वी जैसा जीवन आवश्यक है अन्यथा तृष्णा और वासना की लिप्सा इतनी सघनता के साथ छायी रहेगी कि अपनी सामर्थ्य की तुलना में औसत पुरुषार्थ भी करते न बन सकेगा |
प्राचीन काल से ही भारतीय ऋषि -मनीषियों का यह निष्कर्ष था कि प्रतिभा -प्रखरता के लिये कठोर तपस्वी जैसा जीवन आवश्यक है अन्यथा तृष्णा और वासना की लिप्सा इतनी सघनता के साथ छायी रहेगी कि अपनी सामर्थ्य की तुलना में औसत पुरुषार्थ भी करते न बन सकेगा |
18 March 2013
MORALITY
'नैतिकता सर्वमान्य योग्यता '
वाराणसी नरेश ब्रह्मदत्त की अपने राजपुरोहित देवमित्र पर अटूट श्रद्धा थी | उनके व्यक्तित्व में प्रतिभा योग्यता ज्ञान के साथ शील ,सदाचार और नैतिकता की सुगंध भी व्याप्त थी | अन्य राज्यों की जनता में उनके प्रति अपार भक्ति भाव था | राजपुरोहित के मन में एक दिन यह प्रश्न उठा कि उनके प्रति राजा और प्रजा के ह्रदय में जो श्रद्धा व सम्मान है उसका कारण क्या है ?उनका शास्त्र ज्ञान और प्रतिभा अथवा उनका शील और सदाचार ?इस प्रश्न के उत्तर के लिये उन्होंने दूसरा आचरण किया _एक दिन राजसभा केसमाप्त होने के बाद घर लौटते समय उन्होंने राजकोष से एक सिक्का उठा लिया | कोषाध्यक्ष ने यह सोचकर कि विशेष कार्य से सिक्का लिया होगा ,कुछ नहीं कहा | दूसरे दिन राजपुरोहित ने फिर सिक्का उठा लिया ,कोषाध्यक्ष ने फिर अनदेखा कर दिया | लेकिन तीसरे दिन राजपुरोहित ने जैसे ही सिक्के उठाये कोषाध्यक्ष ने उनका हाथ पकड़ लिया और सैनिकों से कहा यह धूर्त है ,चोरी करता है इसे न्याय पीठ में उपस्थित करो | पतित आचरण के कारण राजपुरोहित को हाथ बांधकर नंगे पैर ,पैदल न्यायलय में राजा के सामने लाया गया | राजा ने प्रश्न पूछे और आश्वस्त होकर निर्णय दिया कि इसने तीन बार राजकोष से धन चुराया है इसलिये इसके दाहिने हाथ की एक अंगुली काट ली जाये जिससे आगे वह ऐसे कुकर्म से दूर रहे | राजा के इस निर्णय से राजपुरोहित को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया | उन्होंने राजा से कहा -"मैं चोर नहीं हूं ,मैं यह जानना चाहता था कि आप मुझे जो श्रद्धा व सम्मान देते हैं उसकी सच्ची अधिकारिणी मेरी योग्यता ,ज्ञान और प्रतिभा है या मेरा शील और सदाचार है | आज यह स्पष्ट हो गया कि योग्यता ज्ञान का अपना महत्व तो है लेकिन यदि वह शील ,सदाचरण से च्युत हो जाये तो ये क्षमताएं उसकी रक्षा नहीं कर सकतीं | शील सदाचरण और नैतिकता ही मेरे सम्मान का मूल कारण थीं ,उनसे च्युत होते ही मैं दंड का अधिकारी बन गया | "
वाराणसी नरेश ब्रह्मदत्त की अपने राजपुरोहित देवमित्र पर अटूट श्रद्धा थी | उनके व्यक्तित्व में प्रतिभा योग्यता ज्ञान के साथ शील ,सदाचार और नैतिकता की सुगंध भी व्याप्त थी | अन्य राज्यों की जनता में उनके प्रति अपार भक्ति भाव था | राजपुरोहित के मन में एक दिन यह प्रश्न उठा कि उनके प्रति राजा और प्रजा के ह्रदय में जो श्रद्धा व सम्मान है उसका कारण क्या है ?उनका शास्त्र ज्ञान और प्रतिभा अथवा उनका शील और सदाचार ?इस प्रश्न के उत्तर के लिये उन्होंने दूसरा आचरण किया _एक दिन राजसभा केसमाप्त होने के बाद घर लौटते समय उन्होंने राजकोष से एक सिक्का उठा लिया | कोषाध्यक्ष ने यह सोचकर कि विशेष कार्य से सिक्का लिया होगा ,कुछ नहीं कहा | दूसरे दिन राजपुरोहित ने फिर सिक्का उठा लिया ,कोषाध्यक्ष ने फिर अनदेखा कर दिया | लेकिन तीसरे दिन राजपुरोहित ने जैसे ही सिक्के उठाये कोषाध्यक्ष ने उनका हाथ पकड़ लिया और सैनिकों से कहा यह धूर्त है ,चोरी करता है इसे न्याय पीठ में उपस्थित करो | पतित आचरण के कारण राजपुरोहित को हाथ बांधकर नंगे पैर ,पैदल न्यायलय में राजा के सामने लाया गया | राजा ने प्रश्न पूछे और आश्वस्त होकर निर्णय दिया कि इसने तीन बार राजकोष से धन चुराया है इसलिये इसके दाहिने हाथ की एक अंगुली काट ली जाये जिससे आगे वह ऐसे कुकर्म से दूर रहे | राजा के इस निर्णय से राजपुरोहित को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया | उन्होंने राजा से कहा -"मैं चोर नहीं हूं ,मैं यह जानना चाहता था कि आप मुझे जो श्रद्धा व सम्मान देते हैं उसकी सच्ची अधिकारिणी मेरी योग्यता ,ज्ञान और प्रतिभा है या मेरा शील और सदाचार है | आज यह स्पष्ट हो गया कि योग्यता ज्ञान का अपना महत्व तो है लेकिन यदि वह शील ,सदाचरण से च्युत हो जाये तो ये क्षमताएं उसकी रक्षा नहीं कर सकतीं | शील सदाचरण और नैतिकता ही मेरे सम्मान का मूल कारण थीं ,उनसे च्युत होते ही मैं दंड का अधिकारी बन गया | "
MORAL EDUCATION
'शालीनता बिना मोल मिलती है ,परन्तु उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है | '
व्यक्ति के जीवन में जितना महत्व शिक्षा का है ,उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान नैतिकता का है | नैतिक गुणों के बिना मनुष्य का सर्वांगीण विकास संभव नहीं ,इसके अभाव में कोई भी शिक्षा श्रेष्ठ भावना और उत्कृष्ट चिंतन का व्यक्ति बनाने में सदा असफल रहेगी | कोई भी व्यक्ति एक अच्छा समाजनिष्ठ नागरिक तभी बन सकेगा जब उसे आरम्भ से ही नैतिक तत्वों ,शाश्वत मूल्यों की जानकारी होगी | ऐसा शिक्षण ही विद्दार्थी को स्वावलंबी ,सहिष्णु सदाचारी ,संयमी ,कर्तव्यपरायण ,प्रमाणिक तथा परोपकारी बना सकता है | ऐसे व्यक्ति स्वयं ऊँचे उठते हैं ,आगे बढ़ते हैं तथा अपनी विशिष्टता के सहारे इस विश्व उद्दान को सुरभित समुन्नत रख सकते हैं |
नैतिकता अपने में तीन तत्वों का समावेश करती है -कर्तव्यपरायण ,विवेक द्रष्टि और ऊँचा उठने की अभीप्सा | नैतिक व्यक्ति के पास नैतिक बल होता है जो उसकी अपार उर्जा का भंडार होता है ,यह नैतिक बल मन में इतना आत्मविश्वास पैदा कर देता है कि इनसान असंभव को संभव कर दिखाने में सफल हो जाता है | नैतिक व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होता है ,उसके पास विवेक द्रष्टि होती है जिसके आधार पर वह यह निर्णय करने में सक्षम होता है कि कौनसा कार्य करने योग्य है ,किस काम को पहले और कितने समय में करना है | विवेक द्रष्टि हो तो व्यक्ति शुभ अवसर को पहचान लेता है और उसके लिये श्रद्धा पूर्वक अपने ह्रदय का दरवाजा खोल देता है |
व्यक्ति के जीवन में जितना महत्व शिक्षा का है ,उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान नैतिकता का है | नैतिक गुणों के बिना मनुष्य का सर्वांगीण विकास संभव नहीं ,इसके अभाव में कोई भी शिक्षा श्रेष्ठ भावना और उत्कृष्ट चिंतन का व्यक्ति बनाने में सदा असफल रहेगी | कोई भी व्यक्ति एक अच्छा समाजनिष्ठ नागरिक तभी बन सकेगा जब उसे आरम्भ से ही नैतिक तत्वों ,शाश्वत मूल्यों की जानकारी होगी | ऐसा शिक्षण ही विद्दार्थी को स्वावलंबी ,सहिष्णु सदाचारी ,संयमी ,कर्तव्यपरायण ,प्रमाणिक तथा परोपकारी बना सकता है | ऐसे व्यक्ति स्वयं ऊँचे उठते हैं ,आगे बढ़ते हैं तथा अपनी विशिष्टता के सहारे इस विश्व उद्दान को सुरभित समुन्नत रख सकते हैं |
नैतिकता अपने में तीन तत्वों का समावेश करती है -कर्तव्यपरायण ,विवेक द्रष्टि और ऊँचा उठने की अभीप्सा | नैतिक व्यक्ति के पास नैतिक बल होता है जो उसकी अपार उर्जा का भंडार होता है ,यह नैतिक बल मन में इतना आत्मविश्वास पैदा कर देता है कि इनसान असंभव को संभव कर दिखाने में सफल हो जाता है | नैतिक व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होता है ,उसके पास विवेक द्रष्टि होती है जिसके आधार पर वह यह निर्णय करने में सक्षम होता है कि कौनसा कार्य करने योग्य है ,किस काम को पहले और कितने समय में करना है | विवेक द्रष्टि हो तो व्यक्ति शुभ अवसर को पहचान लेता है और उसके लिये श्रद्धा पूर्वक अपने ह्रदय का दरवाजा खोल देता है |
17 March 2013
ALTRUISM
जो परमार्थ में लीन हैं ,तन मन और धन से परोपकार एवं परहित में निरत हैं ,वही सज्जन हैं ,सत्पुरुष हैं और वही धनवान हैं |
ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य के शिष्य 120 वर्ष जीवित रहे | एक बार वे प्रवास पर थे | उस क्षेत्र में लगातार 4 वर्ष पानी नहीं गिरा था ,कुएँ -तालाब का पानी सूख गया था | सभी आए ,कहा महाराज !उपाय बताएं | वे बोले -"पुण्य होंगे तो प्रसन्न होगा भगवान | "लोगों ने पूछा ,'क्या पुण्य करें ?'तो वे बोले "सामने तालाब है ,उसमे थोड़ा ही पानी है ,इसमें मछलियां मर रहीं हैं ,पानी डालो | "लोग बोले -"हमारे लिये ही पानी नहीं है ,मछलियों को पानी कहां से दें ?"उन्होंने कहा -"कहीं से भी लाओ ,तालाब में डालो | "सभी ने पानी तालाब में डालना शुरू किया | तीसरे दिन बादल आए ,घटाएँ भरकर महीने भर बरसीं | सारा दुर्भिक्ष -पानी का अभाव दूर हो गया | 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई | '
ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य के शिष्य 120 वर्ष जीवित रहे | एक बार वे प्रवास पर थे | उस क्षेत्र में लगातार 4 वर्ष पानी नहीं गिरा था ,कुएँ -तालाब का पानी सूख गया था | सभी आए ,कहा महाराज !उपाय बताएं | वे बोले -"पुण्य होंगे तो प्रसन्न होगा भगवान | "लोगों ने पूछा ,'क्या पुण्य करें ?'तो वे बोले "सामने तालाब है ,उसमे थोड़ा ही पानी है ,इसमें मछलियां मर रहीं हैं ,पानी डालो | "लोग बोले -"हमारे लिये ही पानी नहीं है ,मछलियों को पानी कहां से दें ?"उन्होंने कहा -"कहीं से भी लाओ ,तालाब में डालो | "सभी ने पानी तालाब में डालना शुरू किया | तीसरे दिन बादल आए ,घटाएँ भरकर महीने भर बरसीं | सारा दुर्भिक्ष -पानी का अभाव दूर हो गया | 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई | '
उस धन से क्या लाभ ,जो याचक को नहीं दिया जाता ,उस बल से क्या ,जो शत्रु को रोक न सके ,उस ज्ञान से क्या ,जो आचरण में न आ सके और उस आत्मा (व्यक्ति )से क्या जो जितेंद्रिय न बन सके |
कारूँ को अल्लाह ने बहुत बढ़ा खजाना दिया | कहा -इस दौलत को नेकी में खर्च कर | 'कारूँ दौलत पाकर फूला न समाया | उसने दौलत को बेहिसाब उड़ाना आरम्भ किया ,राग -रंग ,ऐशो -आराम में नष्ट करने लगा | खजाना खर्च होने लगा | एक दिन जमीन हिली और कारूँ का महल मय दौलत के उसमे फंस गया | बची दौलत का थोड़ा सा ही हिस्सा मिल जाये ,यह सोच कर उसने आवाज लगाई | कोई भी नहीं आया | खुदा के कहर से उसे निजात नहीं मिली | कारूँ की तरह रातों -रात अमीर बनने वालों ने इससे एक सीख ली और सोचा कि अल्लाह की मरजी पर अपनी मरजी नहीं रखनी चाहिये | परमात्मा की विभूतियाँ सद उद्देश्य के लिये हैं ,उनका दुरूपयोग विनाशकारी ही होता है |
कारूँ को अल्लाह ने बहुत बढ़ा खजाना दिया | कहा -इस दौलत को नेकी में खर्च कर | 'कारूँ दौलत पाकर फूला न समाया | उसने दौलत को बेहिसाब उड़ाना आरम्भ किया ,राग -रंग ,ऐशो -आराम में नष्ट करने लगा | खजाना खर्च होने लगा | एक दिन जमीन हिली और कारूँ का महल मय दौलत के उसमे फंस गया | बची दौलत का थोड़ा सा ही हिस्सा मिल जाये ,यह सोच कर उसने आवाज लगाई | कोई भी नहीं आया | खुदा के कहर से उसे निजात नहीं मिली | कारूँ की तरह रातों -रात अमीर बनने वालों ने इससे एक सीख ली और सोचा कि अल्लाह की मरजी पर अपनी मरजी नहीं रखनी चाहिये | परमात्मा की विभूतियाँ सद उद्देश्य के लिये हैं ,उनका दुरूपयोग विनाशकारी ही होता है |
16 March 2013
'संसार में वैभव रखना ,धनवान होना कोई बुरी बात नहीं ,बुराई तो धन के अभिमान में है | वही
व्यक्ति को गिराता है | 'साधन -संपति ,वैभव बढ़ जाने से जीवन में खुशहाली बढ़नी चाहिये ,लेकिन खुशहाली नहीं बढ़ी ,मन की शांति ख़त्म हो गई है | धन -दौलत के साथ यदि द्रष्टिकोण परिष्कृत हो जाता ,ह्रदय विशाल हो जाता ,सह्रदयता बढ़ती तो स्वयं के साथ समाज का भी कल्याण होता |
'वैभव असीम मात्रा में कमाया तो जा सकता है ,पर उसे एकाकी पचाया नहीं जा सकता | '
धन -संपति ,शिक्षा और ज्ञान में वृद्धि के साथ यदि मनुष्य का चिंतन परिष्कृत हो उसमे ईमानदारी उदारता ,सेवा आदि सद्गुण हों तभी वह धन और ज्ञान सार्थक है ,अन्यथा 'पैनी अक्ल 'और अमीरी विनाश के साधन होंगे | आध्यात्मिक मनोविज्ञानी कार्ल जुंग की यह द्रढ़ मान्यता थी कि मनुष्य की धर्म ,न्याय ,नीति में अभिरुचि होनी चाहिये ,उसके लिये वह सहज स्वभाव है | यदि इस दिशा में प्रगति न हो पाई तो अंतत:मनुष्य टूट जाता है और उसका जीवन निस्सार हो जाता है | 'ब्रिटिशसंसद में वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर दार्शनिकों की राय जानने के लिये कुछ विशेषज्ञों को बुलाया गया उसमे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री -जॉन स्टुअर्ट मिल भी थे | उन्होंने तुरंत कहा -"मजदूरों का वेतन न बढ़ाया जाये | वेतन बढ़ाने के मैं सख्त खिलाफ हूं | उन्होंने अपनी गवाही में कहा जो वेतन बढ़ाया जा रहा है ,उसकी तुलना में उनके लिये स्कूलों का ,उनके पढ़ने -लिखने का प्रबंध किया जाये ,उनकी चिकित्सा -दवा का प्रबंध किया जाये और जब वे सभ्य एवं सुसंस्कृत होने लगें तब उनके वेतन में वृद्धि की जाये ,अन्यथा वेतन की वृद्धि करने से मुसीबत आ जायेगी ,ये मजदूर तबाह हो जायेंगे | "बात ख़त्म हो गई | सभी ने एक मत से मजदूरों का वेतन डेढ़ गुना बढ़ा दिया | तीन वर्ष बाद जब जानकारी ली गई कि डेढ़ गुना वेतन जो बढ़ाया गया ,उसका क्या फायदा हुआ ?तब ज्ञात हुआ कि मजदूरों की बस्तियों में जो शिकायतें पहले थीं ,वे पहले से दोगुनी हो गईं ,शराबखाने पहले से दोगुने हो गये गुप्तरोग पहले जितने मजदूरों को होते थे ,उससे दूने -चौगुने हो गये | यह देखकर लोगों ने कहा कि जॉन स्टुअर्ट मिल की गवाही सही थी कि वेतन नहीं बढ़ना चाहिये | अनुभवी गुरुजनों का मत है कि वेतन जरुर बढ़ना चाहिये लेकिन पैसा बढ़ने के साथ -साथ लोगों का ईमान ,लोगों का द्रष्टिकोण ,लोगों का चिंतन भी बढ़ना चाहिये |
व्यक्ति को गिराता है | 'साधन -संपति ,वैभव बढ़ जाने से जीवन में खुशहाली बढ़नी चाहिये ,लेकिन खुशहाली नहीं बढ़ी ,मन की शांति ख़त्म हो गई है | धन -दौलत के साथ यदि द्रष्टिकोण परिष्कृत हो जाता ,ह्रदय विशाल हो जाता ,सह्रदयता बढ़ती तो स्वयं के साथ समाज का भी कल्याण होता |
'वैभव असीम मात्रा में कमाया तो जा सकता है ,पर उसे एकाकी पचाया नहीं जा सकता | '
धन -संपति ,शिक्षा और ज्ञान में वृद्धि के साथ यदि मनुष्य का चिंतन परिष्कृत हो उसमे ईमानदारी उदारता ,सेवा आदि सद्गुण हों तभी वह धन और ज्ञान सार्थक है ,अन्यथा 'पैनी अक्ल 'और अमीरी विनाश के साधन होंगे | आध्यात्मिक मनोविज्ञानी कार्ल जुंग की यह द्रढ़ मान्यता थी कि मनुष्य की धर्म ,न्याय ,नीति में अभिरुचि होनी चाहिये ,उसके लिये वह सहज स्वभाव है | यदि इस दिशा में प्रगति न हो पाई तो अंतत:मनुष्य टूट जाता है और उसका जीवन निस्सार हो जाता है | 'ब्रिटिशसंसद में वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर दार्शनिकों की राय जानने के लिये कुछ विशेषज्ञों को बुलाया गया उसमे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री -जॉन स्टुअर्ट मिल भी थे | उन्होंने तुरंत कहा -"मजदूरों का वेतन न बढ़ाया जाये | वेतन बढ़ाने के मैं सख्त खिलाफ हूं | उन्होंने अपनी गवाही में कहा जो वेतन बढ़ाया जा रहा है ,उसकी तुलना में उनके लिये स्कूलों का ,उनके पढ़ने -लिखने का प्रबंध किया जाये ,उनकी चिकित्सा -दवा का प्रबंध किया जाये और जब वे सभ्य एवं सुसंस्कृत होने लगें तब उनके वेतन में वृद्धि की जाये ,अन्यथा वेतन की वृद्धि करने से मुसीबत आ जायेगी ,ये मजदूर तबाह हो जायेंगे | "बात ख़त्म हो गई | सभी ने एक मत से मजदूरों का वेतन डेढ़ गुना बढ़ा दिया | तीन वर्ष बाद जब जानकारी ली गई कि डेढ़ गुना वेतन जो बढ़ाया गया ,उसका क्या फायदा हुआ ?तब ज्ञात हुआ कि मजदूरों की बस्तियों में जो शिकायतें पहले थीं ,वे पहले से दोगुनी हो गईं ,शराबखाने पहले से दोगुने हो गये गुप्तरोग पहले जितने मजदूरों को होते थे ,उससे दूने -चौगुने हो गये | यह देखकर लोगों ने कहा कि जॉन स्टुअर्ट मिल की गवाही सही थी कि वेतन नहीं बढ़ना चाहिये | अनुभवी गुरुजनों का मत है कि वेतन जरुर बढ़ना चाहिये लेकिन पैसा बढ़ने के साथ -साथ लोगों का ईमान ,लोगों का द्रष्टिकोण ,लोगों का चिंतन भी बढ़ना चाहिये |
विश्वविजय का स्वप्न देखने वाला सिकंदर नित्य शराब पीने और राग -रंग में मस्त रहने के कारण इतना निर्बल हो चुका था कि मच्छरों के काटने पर उसका शरीर प्रतिरोध न कर सका और बेबिलोन में जाकर उसकी मृत्यु हुई | उसने जीवन भर युद्ध लड़े ,जीवन के अंत समय में उसे उन दो लड़कियों की स्मृति आ गई ,जिनने उसे नैतिक द्रष्टि से पराजित किया था | भारत के उत्तर पश्चिम प्रांत के एक गांव के पास उसकी सेनाओं ने डेरा डाला था | गांव में एक जलसा चल रहा था ,ग्रामीण युवा युवतियों के मोहक नृत्य को देखकर सिकंदर अपनी सुध -बुध खो बैठा | उसने वहीँ खाना मंगाया | दो सुंदर ग्रामीण युवतियां एक थाली को कीमती चादर से ढक कर लाईं | चादर हटाते ही सिकंदर क्रुद्ध हो उठा ,उस थाली में सोने चांदी के आभूषण थे | युवतियों ने कहा -"नाराज न हो सम्राट !हमने सुना है आप इसी के लिये भूखे हैं | इसी के लिये हजारों लाखों को मारकर आप हमारे बीच आयें हैं ,हमें हमारी जान जाने की चिंता नहीं है | आप भोजन स्वीकार करें एवं हमारा सिर काट लें | "कहते हैं इसके बाद सिकंदर विक्षिप्त हो उठा और वापस लौट गया |
15 March 2013
TRUE LOVE
वासना ,तृष्णा और अहंता से मुक्त भावनाओं का नाम प्रेम है | प्रेम केवल दिया जाता है उसमे पाने की मांग नहीं होती | सच्चा प्रेम सेवा ,करुणा एवं श्रद्धा के रूप में प्रकट होता है | गेटे की एक कविता है -प्रेमी प्रेमिका से कहता है -"यह देह तो अंतत:मिट्टी में मिल जायेगी ,पर इसकी कर्मठता सदा अविस्मरणीय बनी रहेगी ,दूसरों को प्रेरणा देती रहेगी ,हाथों की भवितव्यता को भी गल गल कर समाप्त होना है ,पर इसकी कुशलता लोगों के मन -मस्तिष्क में बनी रहेगी | पैर भी अब असमर्थ हो चले हैं ,किंतु समाज को इसने जो गति व दिशा दी है ,वह निश्चित रूप से अभिनंदनीय और चिरस्थायी बन कर रहेगी | कानों ने सदा अच्छे सुने ,आँखों ने सर्वत्र सुदर्शन किये ,चिंतन -चेतना ने इन्ही को सुंदर काव्य का रूप दिया | वाणी ने जब इनकी तान छेड़ी ,तो वह इतना मधुमय और महान बन गया कि अमर गीत की तरह लोगों के दिलों में स्थायी स्थान बना लिया | अत:हे प्रियतमे !तुम मेरे इस नाशवान शरीर से नहीं वरन अनश्वर ऐश्वर्य से ,आंतरिक गुणों से अनुराग कर | "कितना उच्च कोटि का आदर्श है इस प्रेमी का ,जो शारीरिक आकर्षण में विश्वास नहीं रखता ,सद्गुणों का उपासक है और इसी की शिक्षा अपनी प्रेयसी को देता है |
वासना और तृष्णा की खाई इतनी चौड़ी और गहरी है कि उसे पाटने में कुबेर की संपदा और इंद्र की समर्थता भी कम पड़ती है |
बढ़त -बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ जाय | घटत -घटत फिर न घटे बस समूल कुम्हलाय | भाव यह है कि कमल का फूल पानी में डूबता नहीं है | पानी बढ़ने से कमलनाल बढ़ती जाती है ,पर पानी घटने से घटती नहीं है ,समूल कुम्हला जाती है | सम्पतिवानों की इच्छाएं असीम बढ़ती जाती हैं ,पर जैसे ही संपति गई ,इच्छाएं घटती नहीं आदत बनी रहती हैं |
महाराज ययाति ने सब सुख भोगे ,तृष्णा बढ़ती चली गई | देह जवाब दे गई ,मृत्यु आने को थी | औरों से पुण्य लेकर समय बढ़ा लिया ,वह काल भी समाप्त हो गया | काल आ गया | बोला -"जवानी किसी और से मांग लो | "ययाति ने अपने बेटों से भोगने के लिये जवानी मांगी सबसे छोटा बेटा पुरु बोला -"आप जवानी मुझसे ले लें | जिन इंद्रियों से आपकी तृष्णा शांत नहीं हुई ,हमारी क्या होगी -आप भोग लें | "तृष्णा कभी जीर्ण -कमजोर नहीं होती ,हम ही जीर्ण होते चले जाते हैं |
बढ़त -बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ जाय | घटत -घटत फिर न घटे बस समूल कुम्हलाय | भाव यह है कि कमल का फूल पानी में डूबता नहीं है | पानी बढ़ने से कमलनाल बढ़ती जाती है ,पर पानी घटने से घटती नहीं है ,समूल कुम्हला जाती है | सम्पतिवानों की इच्छाएं असीम बढ़ती जाती हैं ,पर जैसे ही संपति गई ,इच्छाएं घटती नहीं आदत बनी रहती हैं |
महाराज ययाति ने सब सुख भोगे ,तृष्णा बढ़ती चली गई | देह जवाब दे गई ,मृत्यु आने को थी | औरों से पुण्य लेकर समय बढ़ा लिया ,वह काल भी समाप्त हो गया | काल आ गया | बोला -"जवानी किसी और से मांग लो | "ययाति ने अपने बेटों से भोगने के लिये जवानी मांगी सबसे छोटा बेटा पुरु बोला -"आप जवानी मुझसे ले लें | जिन इंद्रियों से आपकी तृष्णा शांत नहीं हुई ,हमारी क्या होगी -आप भोग लें | "तृष्णा कभी जीर्ण -कमजोर नहीं होती ,हम ही जीर्ण होते चले जाते हैं |
14 March 2013
एक लालाजी थे ,गांव में रहते थे | हर किसी के खिलाफ मुकदमा लगाते रहते थे | कभी ब्याज के नाम पर कभी झूठे मुकदमे | जब बीमार पड़े तो गांव वालों से कहा -"अब हम मरने वाले हैं ,हमने तुम्हे बहुत कष्ट दिया | सोच रहे हैं प्रायश्चित कर लें | मरने के बाद आप सब हमारी छाती में खूंटा गाड़ देना ,यह सोचकर कि यह दुष्ट आत्मा है ,इसे शांति मिले | तभी हमारी आत्मा को शांति मिलेगी | वह मर गये | गांव वालों ने वैसा ही किया ,जैसा वे कह गये थे | तुरंत पुलिस आ गई ,बहुतों को पकड़ कर ले गई | वास्तव में मरने से पहले वे पुलिस में रिपोर्ट लिखा गये थे कि गांव के लोग हमारी छाती में खूंटा गाड़कर मारने का प्लान बना रहे हैं | मर कर भी लालाजी ने पूरे गांव को छोड़ा नहीं | दुष्ट आत्मा ऐसी ही होती हैं |
TACT
अंत;करण में विवेक और मन में संतोष ही स्थायी सुख शांति और प्रसन्नता
देते हैं | प्रत्येक मनुष्य ,यहां तक कि प्रत्येक जीवधारी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है | जैसे सर्प की प्रकृति क्रोध है ,इस क्रोध के कारण ही वह फुफकारते हुए काटता है और अपने अंदर का जहर उंडेल देता है | कोई उसे कितना ही दूध पिलाये ,उसकी प्रकृति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता | इसी तरह नागफनी और बबूल को काँटों से विहीन नहीं किया जा सकता ,जो भी इनसे उलझेगा उसे ये काँटे चुभेंगे ही | जो विवेकवान हैं ,जिनका द्रष्टिकोण परिष्कृत है ,जो इस सत्य को जानते हैं ,वे प्रत्येक घटनाक्रम का जीवन के लिये सार्थक उपयोग कर लेते हैं | जैसे अमृत की मधुरता तो उपयोगी है ही ,परन्तु यदि विष को औषधि में परिवर्तित कर लिया जाये तो वह भी अमृत की भांति जीवन दाता हो जाता है |
देते हैं | प्रत्येक मनुष्य ,यहां तक कि प्रत्येक जीवधारी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है | जैसे सर्प की प्रकृति क्रोध है ,इस क्रोध के कारण ही वह फुफकारते हुए काटता है और अपने अंदर का जहर उंडेल देता है | कोई उसे कितना ही दूध पिलाये ,उसकी प्रकृति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता | इसी तरह नागफनी और बबूल को काँटों से विहीन नहीं किया जा सकता ,जो भी इनसे उलझेगा उसे ये काँटे चुभेंगे ही | जो विवेकवान हैं ,जिनका द्रष्टिकोण परिष्कृत है ,जो इस सत्य को जानते हैं ,वे प्रत्येक घटनाक्रम का जीवन के लिये सार्थक उपयोग कर लेते हैं | जैसे अमृत की मधुरता तो उपयोगी है ही ,परन्तु यदि विष को औषधि में परिवर्तित कर लिया जाये तो वह भी अमृत की भांति जीवन दाता हो जाता है |
WILL POWER
सफलता के लिये अनुकूल परिस्थितियों की बाट नहीं जोही जाती | संकल्प शक्ति को जगाया ,उभारा और विकसित किया जाता है | आशातीत सफलता जीवन के हर क्षेत्र में प्राप्त करने का एक ही राज मार्ग है -प्रतिकूलताओं से धैर्य और विश्वास के साथ टकराना और अपने अंदर छिपी सामर्थ्य को उभारना | जीवन हर पल जीने ,उत्साह -उमंग के साथ उसे अनुभव करने का नाम है | हर दिन का शुभारम्भ उत्साह के साथ ऐसे हो ,जैसे नया जन्म हुआ हो | यदि चिंतन सकारात्मक ,मात्र सकारात्मक हो तो सफलताओं के शीर्ष तक पहुंचने में ज्यादा विलंब नहीं होगा |
13 March 2013
LABOUR----LAW OF SUCCESS
'धीरे धीरे चलती हुई चींटी भी हजार योजन तक चली जाती है और न चलता हुआ गरुड़ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता | '
मानव में छिपी अनंत सामर्थ्य तथा गौरव गरिमा के बहिरंग में प्रकटीकरण का एक ही उपाय है -अनवरत श्रम | ठाली न बैठे रह स्थूल शरीर का पूर्ण उपयोग कर ईश्वर के इस उद्द्यान को और भी सुंदर बनाना | श्रम एक प्रकार की साधना है जिसमे निराकार को साकार में परिणत किया जाता है और साकार को सुविकसित बनाया जाता है | श्रम से ही व्यक्ति का अहंकार गलता है तथा सेवा -साधना की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है | पदार्थ का छोटे से छोटा परमाणु भी बिना विश्राम किये अनवरत गति से सक्रिय है | पवन को एक क्षण के लिये भी चैन नहीं है ,वह सतत प्रवाहित होता रहता है | सूर्य और तारे सभी अपने -अपने नियत कर्मों में संलग्न है ,अवकाश लेने की नहीं सोचते | वस्तुत;पसीने से पवित्र और कुछ नहीं ,जिस ललाट पर वह झलकता है उसे समुन्नत बनाता चला जाता है | अनगढ़ पत्थरों को देव प्रतिमा के रूप में पूजनीय बनाने का श्रेय श्रम के देवता को ही दिया जा सकता है | जो भी कुछ इस संसार में शुभ है ,सुखद है ,श्रेष्ठ है उसे केवल श्रम साधना से ही पाया जा सकता है |
मानव में छिपी अनंत सामर्थ्य तथा गौरव गरिमा के बहिरंग में प्रकटीकरण का एक ही उपाय है -अनवरत श्रम | ठाली न बैठे रह स्थूल शरीर का पूर्ण उपयोग कर ईश्वर के इस उद्द्यान को और भी सुंदर बनाना | श्रम एक प्रकार की साधना है जिसमे निराकार को साकार में परिणत किया जाता है और साकार को सुविकसित बनाया जाता है | श्रम से ही व्यक्ति का अहंकार गलता है तथा सेवा -साधना की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है | पदार्थ का छोटे से छोटा परमाणु भी बिना विश्राम किये अनवरत गति से सक्रिय है | पवन को एक क्षण के लिये भी चैन नहीं है ,वह सतत प्रवाहित होता रहता है | सूर्य और तारे सभी अपने -अपने नियत कर्मों में संलग्न है ,अवकाश लेने की नहीं सोचते | वस्तुत;पसीने से पवित्र और कुछ नहीं ,जिस ललाट पर वह झलकता है उसे समुन्नत बनाता चला जाता है | अनगढ़ पत्थरों को देव प्रतिमा के रूप में पूजनीय बनाने का श्रेय श्रम के देवता को ही दिया जा सकता है | जो भी कुछ इस संसार में शुभ है ,सुखद है ,श्रेष्ठ है उसे केवल श्रम साधना से ही पाया जा सकता है |
12 March 2013
ART OF LIVING
'जिसे जीना आ गया ,वही है सच्चा कलाकार '
मानव जीवन एक बहुमूल्य निधि है | यह हमारा सौभाग्य है कि जो सुअवसर स्रष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला ,वह हमें मिला | हमारे जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम परमेश्वर की इस श्रेष्ठ संरचना ,दुनिया के सौंदर्य का रसास्वादन करते हुए निज को धन्य बनाये और इस तरह जियें जिसमे पुष्प जैसी मृदुलता ,चन्दन जैसी सुगंध ,और दीपक जैसी रोशनी भरी हो | जीवन को सही ढंग से जीना एक कला है ,एक कौशल है | जीवन कला जिसे आती है वह कलाकार अपने पास के स्वल्प साधनों से ही महान अभिव्यंजना प्रस्तुत करते हैं | जिसे जीना आ गया वही सच्चा शिल्पी है ,जीवन रूपी खेल का श्रेष्ठतम खिलाडी है |
मानव जीवन एक बहुमूल्य निधि है | यह हमारा सौभाग्य है कि जो सुअवसर स्रष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला ,वह हमें मिला | हमारे जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम परमेश्वर की इस श्रेष्ठ संरचना ,दुनिया के सौंदर्य का रसास्वादन करते हुए निज को धन्य बनाये और इस तरह जियें जिसमे पुष्प जैसी मृदुलता ,चन्दन जैसी सुगंध ,और दीपक जैसी रोशनी भरी हो | जीवन को सही ढंग से जीना एक कला है ,एक कौशल है | जीवन कला जिसे आती है वह कलाकार अपने पास के स्वल्प साधनों से ही महान अभिव्यंजना प्रस्तुत करते हैं | जिसे जीना आ गया वही सच्चा शिल्पी है ,जीवन रूपी खेल का श्रेष्ठतम खिलाडी है |
KNOWLEDGE
ज्ञान प्रकाश है ,जबकि अज्ञान अंधियारा है | इस अंधियारे में औरों का प्रकाश काम नहीं आता ,प्रकाश अपना ही हो ,तो भरोसेमंद साथी है | -बाबा फरीद ने अपने शिष्य से कहा -"ज्ञान को उपलब्ध करो | इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है | "शिष्य नम्र भाव से बोला -"बाबा !रोगी तो हमेशा वैद्दय के पास जाता है ,स्वयं चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान अर्जित करने के फेर में नहीं पड़ता | आप मेरे मार्गदर्शक हैं ,गुरु हैं | यह मैं जानता हूं आप मेरा कल्याण करेंगे ,तब फिर स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता है | "यह सुनकर बाबा फरीद ने बड़ी गंभीरता पूर्वक एक कथा सुनाई | वे बोले -"एक गांव में एक वृद्ध रहता था मोतियाबिंद के कारण वह अंधा हो गया ,तो उसके बेटों ने उसकी आँख की चिकित्सा करानी चाही ,लेकिन वृद्ध ने अस्वीकार कर दिया | वह बोला -"भला मुझे आँखों की क्या जरुरत !तुम आठ मेरे पुत्र हो आठ पुत्रवधु हैं ,तुम्हारी माँ है | ये 34 आँखे तो मुझे मिली हैं | मेरी दो नहीं हैं तो क्या हुआ | "पिता ने पुत्र की बात नहीं मानी | कुछ दिन बाद एक रात अचानक घर में आग लग गई ,सभी अपनी जान बचाने के लिये भागे ,वृद्ध की याद किसी को नहीं रही | वह उस आग में जलकर भस्म हो गया |
कथा सुनाने के बाद बाबा ने अपने शिष्य से कहा -"बेटा !ज्ञान स्वयं की आँखे हैं ,इसका कोई विकल्प नहीं है | सत्य न तो शास्त्रों में मिलता है ,न शास्ताओं में | इसे तो स्वयं ही पाना होता है ,स्वयं का ज्ञान ही असहाय मनुष्य का एकमात्र सहारा होता है |
कथा सुनाने के बाद बाबा ने अपने शिष्य से कहा -"बेटा !ज्ञान स्वयं की आँखे हैं ,इसका कोई विकल्प नहीं है | सत्य न तो शास्त्रों में मिलता है ,न शास्ताओं में | इसे तो स्वयं ही पाना होता है ,स्वयं का ज्ञान ही असहाय मनुष्य का एकमात्र सहारा होता है |
11 March 2013
कैसी भी स्थिति हो धैर्य रखकर अनिवार्य दुःख को वीरता पूर्वक झेलता हुआ भी कोई परेशान ,अधीर न हो उसे शांत व्यक्ति कहते हैं | राजा बालीक ने अपने प्रधान सचिव विश्वदर्शन को पद से हटाकर राज्य से निकाल दिया | विश्वदर्शन एक गांव में आकर बड़े परिश्रम का जीवन बिताने लगे | एक दिन राजा बालीक वेष बदलकर विश्वदर्शन के गांव पहुंचे ,यह देखने कि उनकी कैसी स्थिति है | राजा ने देखा विश्वदर्शन बड़े प्रसन्न हैं उनके घर के सामने अनेकों आदमी बैठे बातचीत कर रहे हैं | वेष बदले हुए राजा ने उनसे पूछा -"महोदय !आपको तो राजा ने पद से हटा दिया फिर भी आप इतने प्रसन्न हैं ,इसका रहस्य क्या है ?"विश्वदर्शन राजा को पहचान गये और बोले -"महाराज !पहले तो लोग मुझसे डरते थे ,पर अब वह डर नहीं है ,इसलिए लोगों से खुल कर बात करने सेवा ,सहयोग ,आत्मीयता व्यक्त करने में बड़ा आनंद आता है | "राजा बालीक ने अनुभव किया ,सचमुच पद से लोग डर सकते हैं ,सम्मान तो मनुष्यता के श्रेष्ठ गुणों का होता है | लौटते समय राजा विश्वदर्शन को अपने साथ ले आये और उन्हें उनका पद फिर दे दिया |
LAW OF NATURE
'सुख और दुःख चक्र की तरह घूमते रहते हैं | आ पड़ने वाले सुख और दुःख का एक सा सेवन करना चाहिये | 'एक अंधियारी रात में कोई प्रौढ़ व्यक्ति नदी के तट से कूदकर आत्म हत्या करने पर विचार कर रहा था | मूसलाधार वर्षा थी ,नदी पूरी बाढ़ पर थी | वह नदी में कूदने के लिये जैसे ही चट्टान के किनारे पहुंचा कि दो वृद्ध किंतु मजबूत हाथों ने उसे थाम लिया | तभी बिजली चमकी और उसने देखा कि आचार्य रामानुज उसे पकड़े हुए हैं | वह उस क्षेत्र का सबसे धनी व्यक्ति था | आचार्य ने उससे इस अवसाद का कारण पूछा | सारी कथा सुनकर वे हँसने लगे और बोले -"तो तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे ?"वह बोला -"हाँ ,तब मेरे सौभाग्य का सूर्य चमक रहा था और अब सिवाय अंधियारे के मेरे जीवन में और कुछ भी बाकी नहीं है | "यह सुनकर आचार्य रामानुज ने कहा -"दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन | जब दिन नहीं टिका तो रात्रि कैसे टिकेगी !परिवर्तन प्रकृती का शाश्वत नियम है जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे | जो इस शाश्वत नियम को जान लेता है ,उसका जीवन उस अडिग चट्टान की भांति हो जाता है ,जो वर्षा और धूप में समान ही बनी रहती है | "सुख और दुःख का आना जाना ठीक वसंत व पतझड़ के आने व जाने की तरह है | यही इस जगत का शाश्वत नियम है |
10 March 2013
GAYTRI MANTR
गायत्री मन्त्र हमारी चेतना के रूपांतरण का मन्त्र है | गायत्री मन्त्र से आत्म परिष्कार होता है ,यह हमारी प्रकृती को ही बदल देता है | गायत्री मंत्र के जप से आत्म -विश्वास में वृद्धि होती है ,बुद्धि परिमार्जित होकर मेधा ,प्रज्ञा ,विवेक एवं परम ज्ञान में रूपांतरित हो जाती है | गायत्री की 24 प्रधान शक्तियों में एक प्राणाग्नि है | गायत्री मंत्र के जप से प्राण शक्ति में वृद्धि होती है |
गायत्री मन्त्र हमारी चेतना के रूपांतरण का मन्त्र है | गायत्री मन्त्र से आत्म परिष्कार होता है ,यह हमारी प्रकृती को ही बदल देता है | गायत्री मंत्र के जप से आत्म -विश्वास में वृद्धि होती है ,बुद्धि परिमार्जित होकर मेधा ,प्रज्ञा ,विवेक एवं परम ज्ञान में रूपांतरित हो जाती है | गायत्री की 24 प्रधान शक्तियों में एक प्राणाग्नि है | गायत्री मंत्र के जप से प्राण शक्ति में वृद्धि होती है |
आँखे खुली हों तो पूरा जीवन ही विश्व -विद्यालय है | जीवन का हर क्षण स्वयं में विश्व की कोई न कोई विद्या समेटे है और फिर जिसे सीखने की ललक है ,वह प्रत्येक व्यक्ति ,प्रत्येक घटना से सीख लेता है | महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहा करते थे -"हर व्यक्ति ,जिससे मैं मिलता हूं ,किसी न किसी बात में मुझसे श्रेष्ठ है | वही मैं उससे सीखने की कोशिश करता हूं | "एक बार वे किसी दूसरे देश मेंव्याख्यान माला के आयोजन में गये | एक दिन व्याख्यान समाप्त कर वे शाम को घूमने निकले | राह में उन्होंने देखा कि एक कुम्हार मिट्टी के सुंदर बरतन बना रहा है | आइन्स्टीन उसका कौशल देखते रहे और उससे कहा -"ईश्वर की खातिर मुझे भी अपना बनाया हुआ बरतन देंगे क्या ?"उनके मुख से ईश्वर का नाम सुनकर कुम्हार चौंका फिर उसने अपने बना| ये हुए बरतनों में से सबसे सुंदर बरतन उठाकर बड़े ही सुंदर ढंग से आइन्स्टीन के हाथों में थमाया बरतन हाथ में लेने के बाद उन महान वैज्ञानिक ने उसे देने के लिये पैसे निकाले ,परन्तु कुम्हार ने उन पैसों को लेने से इनकार करते हुए कहा -"महोदय !आपने तो ईश्वर की खातिर बरतन देने को कहा था ,पैसों की खातिर नहीं | "आइन्स्टीन उस घटना का जिक्र करते हुए अपनी मित्र मंडली में कहते थे -"जो मैं कभी किसी विश्व -विद्यालय में नहीं सीख सका ,वह मुझे उस कुम्हार ने सिखा दिया | मैंने उससे निष्काम ईश्वर भक्ति सीखी | "
9 March 2013
प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम शांत और संतुलित मस्तिष्क द्वारा ही पूरे किये जा सकते हैं | संसार में मनुष्य ने अब तक जो कुछ भी उपलब्धियां प्राप्त की हैं ,उनके मूल में धीर -गंभीर ,शांत मस्तिष्क ही रहें हैं |
स्कॉटलैंड का सम्राट ब्रूस अभी गद्दी पर बैठ भी नहीं पाया था कि दुश्मनों का आक्रमण हो गया | संभल ही पाया था कि फिर दोबारा हमला हो गया हारते -हारते बचा | फिर सेना व्यवस्थित की ,पर कई राजाओं ने मिलकर हमला किया तो राजगद्दी छिन गई | लगातार चौदह बार उसने राजगद्दी पाने का प्रयास किया ,पर असफल रहा | उसके सैनिक भी उसके भाग्य को कोसने लगे और उसे छोड़ कर जाने लगे | निराश ब्रूस एक दिन एक खंडहर में बैठा था | एक मकड़ी हवा में उड़कर एक दूसरे पेड़ की टहनी से जोड़कर जाला बनाने का प्रयास कर रही थी | मकड़ी खंडहर में थी ,पेड़ बाहर था ,जाला हर बार टूट जाता था | बीस बार प्रयास किया ,हर बार टूट गया | 21 वीं बार में वह सफल हो गई | ब्रूस उछल कर खड़ा हो गया | बोला -"अभी तो सात अवसर मेरे लिये बाकी हैं | हिम्मत क्यों हारू ?"पूरी शक्ति लगाकर व्यवस्थित सेना के साथ उसने फिर हमला किया ,सभी दुश्मनों को हराकर उसने राज्य वापस लिया और सारे देश का सम्राट बन गया |
एकाग्रता ,मनोयोग ,शक्ति संचय ही सफलता की धुरी हैं |
स्कॉटलैंड का सम्राट ब्रूस अभी गद्दी पर बैठ भी नहीं पाया था कि दुश्मनों का आक्रमण हो गया | संभल ही पाया था कि फिर दोबारा हमला हो गया हारते -हारते बचा | फिर सेना व्यवस्थित की ,पर कई राजाओं ने मिलकर हमला किया तो राजगद्दी छिन गई | लगातार चौदह बार उसने राजगद्दी पाने का प्रयास किया ,पर असफल रहा | उसके सैनिक भी उसके भाग्य को कोसने लगे और उसे छोड़ कर जाने लगे | निराश ब्रूस एक दिन एक खंडहर में बैठा था | एक मकड़ी हवा में उड़कर एक दूसरे पेड़ की टहनी से जोड़कर जाला बनाने का प्रयास कर रही थी | मकड़ी खंडहर में थी ,पेड़ बाहर था ,जाला हर बार टूट जाता था | बीस बार प्रयास किया ,हर बार टूट गया | 21 वीं बार में वह सफल हो गई | ब्रूस उछल कर खड़ा हो गया | बोला -"अभी तो सात अवसर मेरे लिये बाकी हैं | हिम्मत क्यों हारू ?"पूरी शक्ति लगाकर व्यवस्थित सेना के साथ उसने फिर हमला किया ,सभी दुश्मनों को हराकर उसने राज्य वापस लिया और सारे देश का सम्राट बन गया |
एकाग्रता ,मनोयोग ,शक्ति संचय ही सफलता की धुरी हैं |
8 March 2013
इंग्लैंड के इतिहास में अल्फ्रेड को 'अल्फ्रेड दी ग्रेट 'कहा जाता है उन्होंने इंग्लैंड की प्रजा की भलाई के लिये काफी काम किये ,जिनके लिये उन्हें यह नाम मिला | वैभव -विलास का जीवन जीने तथा आलस -प्रमाद का शिकार होने के कारण अल्फ्रेड का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया ,उन्हें गददी से उतारकर भगा दिया | विवश होकर उन्हें एक किसान के घर नौकरी करनी पड़ी | छिपे वेश में वह घरेलू काम करता वहां पड़ा रहा | एक दिन किसान की पत्नी किसी जरुरी काम से बाहर गई ,जाते समय उसने पतीली में दाल चढ़ाई और कह दिया कि ध्यान रखना इसे उतार लेना | जब वह लौटी तो देखा कि पतीली की दाल जल चुकी है और अल्फ्रेड एक कोने में बैठा कुछ सोच रहा है | किसान की पत्नी बोली -"मूर्ख !लगता है तुझ पर अल्फ्रेड की छाया पड़ चुकी है ,जिसने अपना राज्य यों ही बैठे हुए गंवा दिया | तू भी उसकी तरह ऐसे मारा -मारा घूमेगा | "उस बहन को कहां मालुम था कि जिससे वह यह सब कह रही है ,वही अल्फ्रेड है |
पर अल्फ्रेड को जीवन का सबक मिल गया | उसने द्रढ़ संकल्प कर लिया कि अब जो भी करूंगा ,एकाग्र चित होकर करूंगा ,कल्पना के महल नहीं बनाऊंगा | अल्फ्रेड वहां से निकलकर अपने सहयोगियों से मिला ,धन संग्रह किया सेना एकत्र की और लंदन पर राज्य स्थापित कर 'अल्फ्रेड दी ग्रेट 'बना | उसका अनुशासन आज भी याद किया जाता है | मनोनिग्रह एवं व्यवस्थित चिंतन से कुछ भी किया जा सकता है |
पर अल्फ्रेड को जीवन का सबक मिल गया | उसने द्रढ़ संकल्प कर लिया कि अब जो भी करूंगा ,एकाग्र चित होकर करूंगा ,कल्पना के महल नहीं बनाऊंगा | अल्फ्रेड वहां से निकलकर अपने सहयोगियों से मिला ,धन संग्रह किया सेना एकत्र की और लंदन पर राज्य स्थापित कर 'अल्फ्रेड दी ग्रेट 'बना | उसका अनुशासन आज भी याद किया जाता है | मनोनिग्रह एवं व्यवस्थित चिंतन से कुछ भी किया जा सकता है |
SELF KNOWLEDGE
'स्वयं के भीतर प्रकाश की छोटी सी टिमटिमाती ज्योति हो तो सारे ब्रह्मांड का सारा अंधेरा पराजित हो जाता है ,लेकिन यदि स्वयं के केंद्र पर अंधियारा हो तो बाह्य आकाश के कोटि -कोटि सूर्य भी उसे मिटा नहीं सकते | '
अपने लिये अंतरिक्ष के द्वार खोलने वाले मनुष्य ने स्वयं के अंतस के द्वार बंद कर लिये हैं | जब व्यक्ति स्वयं को बदलना चाहे ,अपने ह्रदय में सद्ज्ञान का दीप जलाये तभी उसका सुधार संभव है | पांडवों और कौरवों के बीच मध्यस्थता कराने भगवान श्री कृष्ण स्वयं शांति दूत बनकर गये लेकिन दुर्योधन का विवेक नष्ट हो चुका था उसने शांति के बजाययुद्ध का निर्णय लिया | जब तक व्यक्ति स्वयं न सुधरना चाहे उसे भगवान भी नहीं सुधार सकते | -'ईश्वर मात्र उन्ही की सहायता करते हैं ,जो अपनी सहायता आप करते हैं | '
अपने लिये अंतरिक्ष के द्वार खोलने वाले मनुष्य ने स्वयं के अंतस के द्वार बंद कर लिये हैं | जब व्यक्ति स्वयं को बदलना चाहे ,अपने ह्रदय में सद्ज्ञान का दीप जलाये तभी उसका सुधार संभव है | पांडवों और कौरवों के बीच मध्यस्थता कराने भगवान श्री कृष्ण स्वयं शांति दूत बनकर गये लेकिन दुर्योधन का विवेक नष्ट हो चुका था उसने शांति के बजाययुद्ध का निर्णय लिया | जब तक व्यक्ति स्वयं न सुधरना चाहे उसे भगवान भी नहीं सुधार सकते | -'ईश्वर मात्र उन्ही की सहायता करते हैं ,जो अपनी सहायता आप करते हैं | '
7 March 2013
SUPERIOR MAN
'जीवन शास्त्र तो कर्मों के अक्षरों और भावनाओं की स्याही से लिखा जाता है | इसे जो जान लेता है ,पढ़ लेता है ,समझ लेता है ,वही पंडित है ,ज्ञानी है | '
लगभग एक सौ पचास वर्ष पूर्व की बात है | जापान के एक प्रतिष्ठित बौद्ध भिक्षुक ने पाली में प्राप्त उपदेशों को जापान में प्रचारित करने के लिए जापानी भाषा में अनुदित किया | प्रकाशन के लिए धन जरुरी था ,संघ के नियम अनुसार किसी से मांगना नियम विरुद्ध था | स्वयं को ही भिक्षा से जितना धन मिल जाये उतने से ही व्यवस्था बनानी थी | पांच वर्ष में इतना धन एकत्र हो गया कि प्रकाशन की व्यवस्था बन सके | अचानक जापान के एक क्षेत्र में ऐसा घोर दुर्भिक्ष पड़ा कि स्थिति देख| भिक्षु करुणा से भर गये ,उन्होंने सारा धन आकाल पीड़ितों की सेवा -भूखों को भोजन ,वस्त्रहीन को वस्त्र ,आदि में लगा दिया | जब दुर्भिक्ष के बादल छंट गये तब फिर धन संग्रह करना शुरू किया ,दस वर्षों में धन राशि एकत्र हुई ,प्रकाशन की व्यवस्था बनाने लगे तभी उस क्षेत्र में बाढ़ आ गई| इस बार महा भिक्षु ने एकत्र किया सारा धन बाढ़ पीड़ितों की सेवा में लगा दिया | अब उनके सभी अनुयायियों ने उनका साथ छोड़ दिया किंतु महा भिक्षु ने दान संग्रह जारी रखा | योग ऐसा रहा कि पुस्तक प्रकाशित हो गई ,उसके ऊपर लिखा था -तृतीय संस्करण | लोगों ने पूछा कि पहले दो संस्करण कौन से हैं ?महा भिक्षु बोले "वे उन्हीं को दिखायी देंगे जिनके पास सेवा और प्रेम की आँखे हैं | यह ग्रंथ अति लोकप्रिय हुआ एवं बौद्ध धर्म का आधार बनाने में सफल हुआ |
लगभग एक सौ पचास वर्ष पूर्व की बात है | जापान के एक प्रतिष्ठित बौद्ध भिक्षुक ने पाली में प्राप्त उपदेशों को जापान में प्रचारित करने के लिए जापानी भाषा में अनुदित किया | प्रकाशन के लिए धन जरुरी था ,संघ के नियम अनुसार किसी से मांगना नियम विरुद्ध था | स्वयं को ही भिक्षा से जितना धन मिल जाये उतने से ही व्यवस्था बनानी थी | पांच वर्ष में इतना धन एकत्र हो गया कि प्रकाशन की व्यवस्था बन सके | अचानक जापान के एक क्षेत्र में ऐसा घोर दुर्भिक्ष पड़ा कि स्थिति देख| भिक्षु करुणा से भर गये ,उन्होंने सारा धन आकाल पीड़ितों की सेवा -भूखों को भोजन ,वस्त्रहीन को वस्त्र ,आदि में लगा दिया | जब दुर्भिक्ष के बादल छंट गये तब फिर धन संग्रह करना शुरू किया ,दस वर्षों में धन राशि एकत्र हुई ,प्रकाशन की व्यवस्था बनाने लगे तभी उस क्षेत्र में बाढ़ आ गई| इस बार महा भिक्षु ने एकत्र किया सारा धन बाढ़ पीड़ितों की सेवा में लगा दिया | अब उनके सभी अनुयायियों ने उनका साथ छोड़ दिया किंतु महा भिक्षु ने दान संग्रह जारी रखा | योग ऐसा रहा कि पुस्तक प्रकाशित हो गई ,उसके ऊपर लिखा था -तृतीय संस्करण | लोगों ने पूछा कि पहले दो संस्करण कौन से हैं ?महा भिक्षु बोले "वे उन्हीं को दिखायी देंगे जिनके पास सेवा और प्रेम की आँखे हैं | यह ग्रंथ अति लोकप्रिय हुआ एवं बौद्ध धर्म का आधार बनाने में सफल हुआ |
मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है | मनुष्य जैसा सोचता है ,वैसा ही करता है और वैसा ही बन जाता है |
हमारे भले -बुरे कर्म ही संकट और सौभाग्य बनकर सामने आते हैं | इसलिए अपनी दीन -हीन ,दयनीय स्थिति के लिये किसी दूसरे को दोष देने से अच्छा है अपनी भावना मान्यता ,आकांक्षा ,विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाये | यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो अपना सुधरा प्रतिबिम्ब व्यक्तियों और परिस्थितियों में चमकता दिखायी पड़ने लगता है | 'यह संसार गुम्बद की तरह अपने ही उच्चारण को प्रतिध्वनित करता है | अपने जैसे लोगों का जमघट ही साथ में जुड़ जाता है |
हमारे भले -बुरे कर्म ही संकट और सौभाग्य बनकर सामने आते हैं | इसलिए अपनी दीन -हीन ,दयनीय स्थिति के लिये किसी दूसरे को दोष देने से अच्छा है अपनी भावना मान्यता ,आकांक्षा ,विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाये | यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो अपना सुधरा प्रतिबिम्ब व्यक्तियों और परिस्थितियों में चमकता दिखायी पड़ने लगता है | 'यह संसार गुम्बद की तरह अपने ही उच्चारण को प्रतिध्वनित करता है | अपने जैसे लोगों का जमघट ही साथ में जुड़ जाता है |
6 March 2013
UNDERSTANDING--WAY OF LIFE
हम सबको इतिहास की भीषणतम लड़ाई लड़नी है ,परन्तु यह लड़ाई स्वयं से लड़नी है -यह युद्ध अपने अंतर्जगत के विकारों से करना है -अनीति के विरुद्ध जीवन मूल्यों के लिए यह महासंग्राम है | मनुष्य की अंतरात्मा उसे ऊँचा उठने के लिए कहती है लेकिन सिर पर लदी दोष -दुर्गुणों की भारी चट्टानें उसे नीचे गिरने को बाधित करती हैं | स्वार्थ सिद्धि की ललक उसकी बुद्धि को भ्रमित कर देती है ,वह लाभ को हानि और हानि को लाभ समझता है | वासनाएँ आदमी को नीबू की तरह निचोड़ लेती हैं ,जीवन में से स्वास्थ्य ,आयुष्य सब कुछ निचोड़कर उसे छिलके जैसा निस्तेज कर देती हैं |
भूल समझ आने पर उल्टे पैरों लौट आने में कोई बुराई नहीं है | मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है | उसे कभी -कभी बंधन समझती है तो रोती भी है ,किंतु जब भी वस्तु स्थिति की अनुभूति होती है तो समूचा मकड़ जाल समेट कर उसे गोली बना लेती है और पेट में निगल लेती है तथा अनुभव करती है कि सारे बंधन कट गये और वेदनाएँ सदा के लिए समाप्त हो गईं इसी तरह मनुष्य अपने स्तर की दुनियां अपने हाथों रचता है ,वही अपने हाथों गिरने के लिए खाई खोदता है | वह चाहे तो उठने के लिए समतल सीढ़ियों वाली मीनार भी चुन सकता है | मनुष्य अपनी विवेक शक्ति को जाग्रत कर संकल्प भरी साहसिकता से अपने व्यक्तित्व और कर्तव्य को ऊँचा उठाकर महानता की मंजिल तक पहुंच सकता है |
भूल समझ आने पर उल्टे पैरों लौट आने में कोई बुराई नहीं है | मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है | उसे कभी -कभी बंधन समझती है तो रोती भी है ,किंतु जब भी वस्तु स्थिति की अनुभूति होती है तो समूचा मकड़ जाल समेट कर उसे गोली बना लेती है और पेट में निगल लेती है तथा अनुभव करती है कि सारे बंधन कट गये और वेदनाएँ सदा के लिए समाप्त हो गईं इसी तरह मनुष्य अपने स्तर की दुनियां अपने हाथों रचता है ,वही अपने हाथों गिरने के लिए खाई खोदता है | वह चाहे तो उठने के लिए समतल सीढ़ियों वाली मीनार भी चुन सकता है | मनुष्य अपनी विवेक शक्ति को जाग्रत कर संकल्प भरी साहसिकता से अपने व्यक्तित्व और कर्तव्य को ऊँचा उठाकर महानता की मंजिल तक पहुंच सकता है |
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है |
भाग्य और पुरुषार्थ जिंदगी के दो छोर हैं | जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है | भाग्य का दायरा बढ़ा है जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है ,जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा | पुरुषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है ,जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय | जिस तरह छोटे से दीखने वाले' सूर्य मंडल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है |
पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरंतर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने और मनचाहे नये भाग्य के बनने में देर नहीं | पुरुषार्थ का प्रचंड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी | आवरणों को छिन्न -भिन्न कर देता है | तब ऐसे संकल्पनिष्ठ पुरुषार्थी की आत्म शक्ति से प्रत्येक असंभव संभव और साकार होता है | तभी तो ऋषि वाणी कहती है -'मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है|
भाग्य और पुरुषार्थ जिंदगी के दो छोर हैं | जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है | भाग्य का दायरा बढ़ा है जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है ,जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा | पुरुषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है ,जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय | जिस तरह छोटे से दीखने वाले' सूर्य मंडल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है |
पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरंतर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने और मनचाहे नये भाग्य के बनने में देर नहीं | पुरुषार्थ का प्रचंड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी | आवरणों को छिन्न -भिन्न कर देता है | तब ऐसे संकल्पनिष्ठ पुरुषार्थी की आत्म शक्ति से प्रत्येक असंभव संभव और साकार होता है | तभी तो ऋषि वाणी कहती है -'मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है|
5 March 2013
इच्छा शक्ति परमात्मा का मनुष्य को सबसे शक्तिशाली एवं दिव्य वरदान है |
भौतिक जीवन में सफलता और आत्म बल का संपादन प्रबल इच्छा शक्ति के बिना संभव नहीं हो सकता | मनुष्य को महानता के शिखर पर पहुँचाने में इच्छा शक्ति या संकल्प बल सर्वोपरि है | संकल्प में आकांक्षा ,योजना और आगे बढ़ने के लायक साहसिकता जुड़ी रहती है | यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल है | प्रत्येक मनुष्य में अपनी इच्छा शक्ति होती है | यदि उसे ईश्वर अर्पित कर श्रेष्ठ कार्यों के लिये सदुपयोग किया जाये तो जीवन में कोई कमी नहीं रहती | मानव जीवन का परम पुरुषार्थ यही है कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता ,लोभ ,मोह और अहंकार की जंजीरों को तोड़ने का द्रढ़ संकल्प ले और अपनी प्राणशक्ति का प्रयोग सत्प्रयोजन व उदारता के लिये करे | इसी में जीवन की सार्थकता है |
भौतिक जीवन में सफलता और आत्म बल का संपादन प्रबल इच्छा शक्ति के बिना संभव नहीं हो सकता | मनुष्य को महानता के शिखर पर पहुँचाने में इच्छा शक्ति या संकल्प बल सर्वोपरि है | संकल्प में आकांक्षा ,योजना और आगे बढ़ने के लायक साहसिकता जुड़ी रहती है | यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल है | प्रत्येक मनुष्य में अपनी इच्छा शक्ति होती है | यदि उसे ईश्वर अर्पित कर श्रेष्ठ कार्यों के लिये सदुपयोग किया जाये तो जीवन में कोई कमी नहीं रहती | मानव जीवन का परम पुरुषार्थ यही है कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता ,लोभ ,मोह और अहंकार की जंजीरों को तोड़ने का द्रढ़ संकल्प ले और अपनी प्राणशक्ति का प्रयोग सत्प्रयोजन व उदारता के लिये करे | इसी में जीवन की सार्थकता है |
EGO
'जिस प्रकार सूखे बांस आपस की रगड़ से ही जलकर भस्म हो जाते हैं .उसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति आपस में टकराते हैं और कलह की अग्नि में जल मरते हैं | '
अहंकार एक रोग है इसके कारण सही सोच -समझ और सम्यक जीवन द्रष्टि समाप्त हो जाती है | इसकी पीड़ा से हर कोई पीड़ित है | अहंकार के रोग की खास बात यह है कि यदि व्यक्ति सफल होता है तो उसका अहंकार भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और वह एक विशाल चट्टान की भाँति जीवन के सुपथ को रोक लेता है | इसके विपरीत यदि व्यक्ति असफल हुआ तो उसका अहंकार एक घाव की भाँति रिसने लगता है और धीरे धीरे मन में हीनता की ग्रंथि बन जाती है | सद्विवेक और सद्ज्ञान ही इस अहंकार के रोग की औषधि व उपचार है | सद्विवेक होने पर व्यक्ति कार्य की सफलता या विफलता से प्रभावित नहीं होता | विवेक कठिन परिस्थितियों में शान्ति और धैर्य के साथ संघर्षशील रहने की प्रेरणा देता है | जब कार्य को ईश्वर की पूजा समझकर किया जाता है तब वहां अहंकार नहीं होता ,केवल विवेक होता है |
अहंकार एक रोग है इसके कारण सही सोच -समझ और सम्यक जीवन द्रष्टि समाप्त हो जाती है | इसकी पीड़ा से हर कोई पीड़ित है | अहंकार के रोग की खास बात यह है कि यदि व्यक्ति सफल होता है तो उसका अहंकार भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और वह एक विशाल चट्टान की भाँति जीवन के सुपथ को रोक लेता है | इसके विपरीत यदि व्यक्ति असफल हुआ तो उसका अहंकार एक घाव की भाँति रिसने लगता है और धीरे धीरे मन में हीनता की ग्रंथि बन जाती है | सद्विवेक और सद्ज्ञान ही इस अहंकार के रोग की औषधि व उपचार है | सद्विवेक होने पर व्यक्ति कार्य की सफलता या विफलता से प्रभावित नहीं होता | विवेक कठिन परिस्थितियों में शान्ति और धैर्य के साथ संघर्षशील रहने की प्रेरणा देता है | जब कार्य को ईश्वर की पूजा समझकर किया जाता है तब वहां अहंकार नहीं होता ,केवल विवेक होता है |
4 March 2013
'दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करने वाली शक्ति न तो चिरस्थायी होती है न शान्ति देती है | शक्ति वह है जो स्वयं बढ़े और दूसरों को बढ़ाये | "
प्रकृति की मर्यादाओं ,नियमों की अनुकूल दिशा में चलकर ही सुखी ,शान्त और संपन्न रहा जा सकता है | ग्रह -नक्षत्र ,तारे ,उपग्रह एक नियम मर्यादा के अनुसार चलते हैं | प्रकृति ने अपने परिवार के समस्त सदस्यों को इस मर्यादा में बांध रखा है कि वे अपना मार्ग न छोड़ें | इसीलिये सारी व्यवस्था सुचारु रुप से चल रही है | केवल मनुष्य ही ऐसा है जो बार -बार नियति के विरुद्ध जाने की ध्रष्टता करता है ,नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करता है | धूर्तता के बल पर आज कितने ही अपराधी सामाजिक भर्त्सना से और राजदंड से बच निकलने में सफल हो जाते हैं लेकिन असत्य का आवरण आखिर फटता ही है | जनमानस में व्याप्त नफरत का सूक्ष्म प्रभाव उस मनुष्य पर अद्रश्य रुप से पड़ता है | जो लोग उससे लाभ उठाते हैं समय आने पर वे ही उसके शत्रु बन जाते हैं | जिसकी आत्मा धिक्कारेगी उसके लिये देर -सबेर सभी धिक्कारने वाले बन जायेंगे | ऐसी धिक्कार एकत्रित करके मनुष्य जीवित भी रहा तो उसका जीना व्यर्थ है | विपुल साधन -संपन्न होते हुए भी व्यक्ति इसी कारण सुख शान्ति पूर्वक नहीं रह पाते | उनकी उपलब्धियों के मूल में छुपी अनैतिकता व्यक्ति की चेतना को विक्षुब्ध किये रहती है |
प्रकृति की मर्यादाओं ,नियमों की अनुकूल दिशा में चलकर ही सुखी ,शान्त और संपन्न रहा जा सकता है | ग्रह -नक्षत्र ,तारे ,उपग्रह एक नियम मर्यादा के अनुसार चलते हैं | प्रकृति ने अपने परिवार के समस्त सदस्यों को इस मर्यादा में बांध रखा है कि वे अपना मार्ग न छोड़ें | इसीलिये सारी व्यवस्था सुचारु रुप से चल रही है | केवल मनुष्य ही ऐसा है जो बार -बार नियति के विरुद्ध जाने की ध्रष्टता करता है ,नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करता है | धूर्तता के बल पर आज कितने ही अपराधी सामाजिक भर्त्सना से और राजदंड से बच निकलने में सफल हो जाते हैं लेकिन असत्य का आवरण आखिर फटता ही है | जनमानस में व्याप्त नफरत का सूक्ष्म प्रभाव उस मनुष्य पर अद्रश्य रुप से पड़ता है | जो लोग उससे लाभ उठाते हैं समय आने पर वे ही उसके शत्रु बन जाते हैं | जिसकी आत्मा धिक्कारेगी उसके लिये देर -सबेर सभी धिक्कारने वाले बन जायेंगे | ऐसी धिक्कार एकत्रित करके मनुष्य जीवित भी रहा तो उसका जीना व्यर्थ है | विपुल साधन -संपन्न होते हुए भी व्यक्ति इसी कारण सुख शान्ति पूर्वक नहीं रह पाते | उनकी उपलब्धियों के मूल में छुपी अनैतिकता व्यक्ति की चेतना को विक्षुब्ध किये रहती है |
3 March 2013
चिंतन और चरित्र यदि निम्न स्तर का है तो उसका प्रतिफल भी दुखद ,संकटग्रस्त एवं विनाशकारी होगा | उसके दुष्परिणाम को कर्ता स्वयं तो भोगता ही है ,साथ ही अपने संबद्ध परिकर को भी दलदल में घसीट ले जाता है | नाव की तली में छेद हो जाने पर उसमे बैठे सभी यात्री मझधार में डूबते हैं | स्वार्थी ,विलासी और कुकर्मी स्वयं तो आत्म -प्रताड़ना ,लोक भर्त्सना और दैवी दंड विधान की आग में जलता ही है ,साथ ही अपने परिवार ,संबंधी ,मित्रों ,स्वजनों को भी अपने जाल -जंजाल में फंसाकर अपनी ही तरह दुर्गति भुगतने के लिये बाधित करता है | इससे समूचा वातावरण विकृत ,दुर्गन्धित होता है | सुगंध की अपेक्षा दुर्गन्ध का विस्तार अधिक होता है | एक नशेड़ी ,जुआरी ,दुर्व्यसनी ,कुकर्मी अनेकों संगी साथी बना सकने में सहज सफल हो जाता है लेकिन आदर्शों का ,श्रेष्ठता का अनुकरण करने की क्षमता कम होती है | पानी नीचे की ओर तेजी से बहता है लेकिन ऊपर चढ़ाने के लिये प्रयास करना पड़ता है | गीता पढ़कर इतने आत्म ज्ञानी नहीं बने जितने कि दूषित साहित्य ,अश्लील द्रश्य अभिनय से प्रभावित होकर कामुक अनाचार अपनाने में प्रवृत हुए | कुकुरमुतों की फसल और मक्खी मच्छरों का परिकर भी तेजी से बढ़ता है पर हाथी की वंश वृद्धी अत्यंत धीमी गति से होती है | समाज में छाये हुए अनाचार ,दुष्प्रवृतियों का मात्र एक ही कारण है कि जन साधारण की आत्म चेतना मूर्छित हो गई है | चिन्तन में आदर्शों का समावेश ,द्रष्टिकोण में उत्कृष्टता और व्यवहार में सज्जनता तथा स्वार्थ के स्थान पर पुण्य परमार्थ की प्रवृति को जगाकर ही आत्मिक विकास संभव है | यही सच्ची प्रगतिशीलता है
अहंकार सारी अच्छाइयों का द्वार बंद कर देता है |
रावण परम शिव भक्त था .वेद और शास्त्र का ज्ञाता ,प्रकाण्ड पंडित ,महाशक्तिशाली था लेकिन वह अहंकारी था | रावण मायावी था ,रुप बदल लेता था | एक भिक्षुक का वेश धारण कर उसने सीता हरण तो कर लिया पर निरंतर लंका में अशोक वन में सीताजी से प्रार्थना ही करता रहा कि तुम मेरी पटरानी बन जाओ ,मंदोदरी तुम्हारी सेवा करेगी | सलाहकारों ने कहा -"आपके पास तो ढेरों विद्द्या हैं ,एक दिन राम बनकर चले जाओ और कहो कि मैं तुम्हें छुड़ाने आया हूं | "रावण ने कहा -"ऐसा नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की | मैं राम बना ,पर उसके बाद परनारी का विचार तक नहीं आया | यह काम तो रावण बनकर ही संभव है | "
बुरे काम करना है ,आसुरी कर्म करना है तो रावण ही बनना होगा | यदि राम बनने का अभ्यास किया जाये तो ऐसी दयनीय स्थिति नहीं होगी |
रावण परम शिव भक्त था .वेद और शास्त्र का ज्ञाता ,प्रकाण्ड पंडित ,महाशक्तिशाली था लेकिन वह अहंकारी था | रावण मायावी था ,रुप बदल लेता था | एक भिक्षुक का वेश धारण कर उसने सीता हरण तो कर लिया पर निरंतर लंका में अशोक वन में सीताजी से प्रार्थना ही करता रहा कि तुम मेरी पटरानी बन जाओ ,मंदोदरी तुम्हारी सेवा करेगी | सलाहकारों ने कहा -"आपके पास तो ढेरों विद्द्या हैं ,एक दिन राम बनकर चले जाओ और कहो कि मैं तुम्हें छुड़ाने आया हूं | "रावण ने कहा -"ऐसा नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की | मैं राम बना ,पर उसके बाद परनारी का विचार तक नहीं आया | यह काम तो रावण बनकर ही संभव है | "
बुरे काम करना है ,आसुरी कर्म करना है तो रावण ही बनना होगा | यदि राम बनने का अभ्यास किया जाये तो ऐसी दयनीय स्थिति नहीं होगी |
2 March 2013
मन एक दर्पण है जो हमारे भले -बुरे कर्मो का साक्षी होता है | जब कोई व्यक्ति कोई अपराध या गलती करता है तो उस समय वह भले ही इसे कितना ही छिपाए या इस पर तर्क का परदा डाले ,लेकिन उसका मन इसका साथी अवश्य होता है | हिंसा हमें पशु बनाती है और दया हमें सच्चा इन्सान बनाती है | यह हमें ही चयन करना है कि हमें क्या बनना है और किस ओर बढ़ना है | पशु बनना आसान है ,सरल है परन्तु इन्सान बनना कठिन और समय साध्य प्रक्रिया है | यदि हमें देवत्व की ओर बढ़ना है तो धैर्य और संयमपूर्वक अपने अंदर की हिंसक वृति को काबू में लाना होगा | संकल्पपूर्वक हिंसा की राह छोड़कर दया और करुणा के पथ पर अग्रसर होना होगा |
ऊँचा व्यक्तित्व लम्बाई से नहीं होता ,अहिंसा ,त्याग ,परोपकार ,श्रम निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है | एक ईश्वर विश्वासी ने अपनी सारी धन -दौलत लोक -कल्याण के कार्यों में लगा दी और संयम का जीवन व्यतीत करना शुरु कर दिया | अब तो उनके सत्कार्यों की सर्वत्र चर्चा होने लगी | जनता के कुछ प्रतिनिधियों ने उनसे निवेदन किया -"आपका त्याग प्रशंसनीय है | आपकी सेवाओं से समाज ऋणी है | हम सब सार्वजनिक रुप से आपका अभिनन्दन करना चाहते हैं | उन्होंने मुस्कराते हुए कहा -"मैंने कोई त्याग नहीं किया ,लाभ लिया है | दुकानदार ग्राहक को वस्तु देकर कोई त्याग नहीं करता ,वह तो बदले में उसकी कीमत लेकर लाभ कमाता है | उसी प्रकार क्रोध ,लोभ मोह आदि को छोड़कर अपने स्वभाव में अहिंसा ,परोपकार और क्षमा आदि को स्थान देना ,वास्तव में त्याग नहीं ,ये तो लाभ का सौदा है | इन सद्गुणों की पूंजी पर ही दैवी अनुदान मिलते हैं औरजीवन सफल होता है | '
1 March 2013
जीवन की हर कसौटी पर खरे उतरने वाले सद्गुणी व्यक्ति ही अपनी अंतिम साँस तक आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं | क्षमताओं और संवेदनाओं के सम्मिलन की साधना व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है | जॉन कैनेडी ने एक प्रेस इंटरव्यू में अपने आकर्षक व्यक्तित्व एवं सफलताओं का रहस्य बताते हुए कहा था कि मेरी माँ सिद्धांतों एवं आदर्शों की द्रष्टि से अधिक कठोर और संवेदनाओं की द्रष्टि से मोम से भी अधिक मुलायम थीं | उनके अगाध स्नेह ने ही मुझे वर्तमान स्थिति तक पहुंचाया है |
'सच्चा सौंदर्य तो आत्मा का होता है '| सद्गुण ,श्रेष्ठ विचार और सद्व्यवहार से ही व्यक्तित्व आकर्षक बनता है |
शरीर और आत्मा में परस्पर संवाद चल रहा था | शरीर ने कहा -"मैं कितना सुंदर हूं ,आकर्षक व बलवान हूं | "आत्मा बोली -तुम अपनी अपेक्षा मुझे अधिक सुंदर ,आकर्षक और बलवान बना दो ,तुम्हारी ये विशेषताएँ मेरे सुंदर हुए बिना क्षणिक ही हैं | मुझे सुंदर बनाकर तुम भी शाश्वत सौंदर्य से युक्त हो जाओगे | किंतु शरीर को समझ में कुछ न आया | वह सांसारिक आकर्षणों में उलझा रहा ,जीवन समाप्त करता रहा | शरीर से आत्मा के विच्छेद का समय आ पहुंचा ,अब शरीर को ज्ञात हुआ कि यदि आत्मा को भी उसने सुंदर बनाया होता ,शक्ति दी होती तो उसका स्वरुप भी निखर गया होता -मरने के बाद भी उसे याद किया जाता | चलते समय आत्मा बोली -मैं तो जाती हूं | यदि तुम पहले से चेते होते .प्राप्त अधिकार का सदुपयोग कर अपने मन को ,आत्मा को सुंदर बनाते तो अमर हो जाते ,महामानव कहलाते | शरीर सिर धुनता रहा और विदा हो गई आत्मा नया शरीर पाने को |
शरीर और आत्मा में परस्पर संवाद चल रहा था | शरीर ने कहा -"मैं कितना सुंदर हूं ,आकर्षक व बलवान हूं | "आत्मा बोली -तुम अपनी अपेक्षा मुझे अधिक सुंदर ,आकर्षक और बलवान बना दो ,तुम्हारी ये विशेषताएँ मेरे सुंदर हुए बिना क्षणिक ही हैं | मुझे सुंदर बनाकर तुम भी शाश्वत सौंदर्य से युक्त हो जाओगे | किंतु शरीर को समझ में कुछ न आया | वह सांसारिक आकर्षणों में उलझा रहा ,जीवन समाप्त करता रहा | शरीर से आत्मा के विच्छेद का समय आ पहुंचा ,अब शरीर को ज्ञात हुआ कि यदि आत्मा को भी उसने सुंदर बनाया होता ,शक्ति दी होती तो उसका स्वरुप भी निखर गया होता -मरने के बाद भी उसे याद किया जाता | चलते समय आत्मा बोली -मैं तो जाती हूं | यदि तुम पहले से चेते होते .प्राप्त अधिकार का सदुपयोग कर अपने मन को ,आत्मा को सुंदर बनाते तो अमर हो जाते ,महामानव कहलाते | शरीर सिर धुनता रहा और विदा हो गई आत्मा नया शरीर पाने को |
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