खलील जिब्रान ने अपने ' निफ्स ऑफ वेली ' नामक संग्रह में लिखा है ---- " अपने को सभ्य कहने वाला मनुष्य आज कितना बनावटी हो चला है l बात - बात पर अभिनय करने वाला , समय - समय पर भिन्न - भिन्न मुखौटे ओढ़ने की विडम्बना में फंसा हुआ आज का मनुष्य बोता तो बहुत है किन्तु काटता कुछ नहीं l उसके जीवन का सारा रस ही इस दोहरेपन ने चूस लिया है l "
खलील जिब्रान ने एक छोटी सी कथा लिखी है ----- उनका एक मित्र अचानक एक दिन पागलखाने में रहने चला गया l वह जब उससे मिलने गए तो उन्होंने देखा उनका वह मित्र पागलखाने के बाग में एक पेड़ के नीचे बैठा मुस्करा रहा था l पूछने पर उसने कहा ---- " मैं यहाँ पर बड़े मजे से हूँ l मैं बाहर के उस बड़े पागलखाने को छोड़कर इस छोटे पागलखाने में शांति से हूँ l यहाँ पर कोई किसी को परेशान नहीं करता l किसी के व्यक्तित्व पर कोई मुखौटा नहीं है l जो जैसा है , वह वैसा है l न कोई आडम्बर है , न कोई ढोंग l "
खलील जिब्रान ने एक छोटी सी कथा लिखी है ----- उनका एक मित्र अचानक एक दिन पागलखाने में रहने चला गया l वह जब उससे मिलने गए तो उन्होंने देखा उनका वह मित्र पागलखाने के बाग में एक पेड़ के नीचे बैठा मुस्करा रहा था l पूछने पर उसने कहा ---- " मैं यहाँ पर बड़े मजे से हूँ l मैं बाहर के उस बड़े पागलखाने को छोड़कर इस छोटे पागलखाने में शांति से हूँ l यहाँ पर कोई किसी को परेशान नहीं करता l किसी के व्यक्तित्व पर कोई मुखौटा नहीं है l जो जैसा है , वह वैसा है l न कोई आडम्बर है , न कोई ढोंग l "