'  यह  नाम  उस  भारतीय  नररत्न   का  है  जिन्हें  भारतीय  क्रान्तिकारी  आन्दोलन  का  जनक  माना  जाता  है  । '  श्यामकृष्ण   वर्मा  ( जन्म  1857 )  ने   संस्कृत , अंग्रेजी  तथा  अन्य  अनेक   भाषाओं   में  प्रकांड  पांडित्य  प्राप्त  किया  था   ।  स्वामी  दयानन्द  उनकी  विद्वता  से  बहुत  प्रभावित  हुए  ।  उन्ही  दिनों  आक्सफोर्ड - विश्वविद्यालय  में  एक  संस्कृत  के  प्राध्यापक  की  आवश्यकता  हुई   ।  वहां  के  प्रधान  ने  स्वामी  दयानन्द  को   इस   संबंध  में  सहायता  करने  को  लिखा  ,  तब  स्वामीजी  ने  वर्मा जी  को  ही  वहां  भेजने  के  लिए  उपयुक्त  माना  l
इंग्लैंड पहुंचकर श्यामकृष्ण वर्मा ने अध्यापन के साथ अध्ययन का क्रम भी चालू रखा l इंग्लैंड की धार्मिक , साहित्यिक , सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृतियों का अध्ययन कर उन्होंने यह पाया कि अंग्रेजों में देशभक्ति , प्रगतिशीलता , परिश्रम , समय एवं नियम पालन की द्रढ़ता आदि अनेक ऐसे गुण हैं जिनका प्रसार भारतीयों में होना नितान्त आवश्यक है । लेकिन भारतीय पराधीन हैं और जब तक पराधीनता को दूर नहीं किया जायेगा उत्थान अथवा कल्याण का स्वप्न देखना स्वप्न ही रह जायेगा । अत: वे देश की स्वाधीनता के प्रयास में लग गये ।
इस दिशा में सबसे पहला प्रयास उन्होंने यह किया कि लन्दन में
' इण्डिया हाउस ' नाम से एक विशाल छात्रावास स्थापित किया जिससे लन्दन के तरुण भारतीय छात्र एक स्थान पर एक साथ रह सकें , जिससे उनमे संगठन हो सके , एक साथ बैठकर देश की स्वाधीनता पर विचार कर सकें ।
' इण्डिया हाउस ' के पूरा होते ही लन्दन के सारे भारतीय छात्र उसमे आकर रहने लगे । वर्मा जी उनके बीच आते और उनमे देशभक्ति और स्वतंत्रता संघर्ष की भावनाएं भरते । श्री वर्मा की प्रेरणा से भारतीय छात्रों में ज्वलंत देशभक्ति का जागरण हो उठा और सब के सब संघर्ष में कूद पड़ने के लिए उतावले हो उठे ।
दूसरा काम उन्होंने यह किया कि छात्रों को अधिकाधिक आकर्षित करने के लिए स्वामी दयानन्द, फावर्ड स्पेनर , छत्रपति शिवाजी तथा महाराणा प्रताप के नाम से चार छात्रवृतियों की योजना भी चलाई । छात्रावास में रहने तथा छात्रवृति पाने वाले विद्दार्थियों को एक प्रतिज्ञा भी करनी होती थी ---- वह यह कि वे पढ़ - लिख कर अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगे और आजीवन देश की स्वाधीनता के लिए अपनी योग्यता तथा शक्ति का उपयोग करेंगे ।
श्री वर्मा ने लन्दन में ' भारतीय होम लीग ' की स्थापना की । वे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जयंती भी मनाने लगे । उन्होंने ' इण्डियन गाशिपालाजिस्ट ' नाम की एक पत्रिका निकालने लगे उसके मध्यम से क्रान्तिकारी विचारों का प्रसार करने लगे । बाद में वे पेरिस चले गये । उनके देहावसान के बाद उनकी इच्छा के अनुसार उनकी पत्नी ने उनका विशाल पुस्तकालय पेरिस विश्वविद्यालय को दान कर दिया । स्वाधीनता के लिए उनके किये गये प्रयासों के लिए वे सदा श्रद्धा - पात्र रहेंगे ।
  
इंग्लैंड पहुंचकर श्यामकृष्ण वर्मा ने अध्यापन के साथ अध्ययन का क्रम भी चालू रखा l इंग्लैंड की धार्मिक , साहित्यिक , सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृतियों का अध्ययन कर उन्होंने यह पाया कि अंग्रेजों में देशभक्ति , प्रगतिशीलता , परिश्रम , समय एवं नियम पालन की द्रढ़ता आदि अनेक ऐसे गुण हैं जिनका प्रसार भारतीयों में होना नितान्त आवश्यक है । लेकिन भारतीय पराधीन हैं और जब तक पराधीनता को दूर नहीं किया जायेगा उत्थान अथवा कल्याण का स्वप्न देखना स्वप्न ही रह जायेगा । अत: वे देश की स्वाधीनता के प्रयास में लग गये ।
इस दिशा में सबसे पहला प्रयास उन्होंने यह किया कि लन्दन में
' इण्डिया हाउस ' नाम से एक विशाल छात्रावास स्थापित किया जिससे लन्दन के तरुण भारतीय छात्र एक स्थान पर एक साथ रह सकें , जिससे उनमे संगठन हो सके , एक साथ बैठकर देश की स्वाधीनता पर विचार कर सकें ।
' इण्डिया हाउस ' के पूरा होते ही लन्दन के सारे भारतीय छात्र उसमे आकर रहने लगे । वर्मा जी उनके बीच आते और उनमे देशभक्ति और स्वतंत्रता संघर्ष की भावनाएं भरते । श्री वर्मा की प्रेरणा से भारतीय छात्रों में ज्वलंत देशभक्ति का जागरण हो उठा और सब के सब संघर्ष में कूद पड़ने के लिए उतावले हो उठे ।
दूसरा काम उन्होंने यह किया कि छात्रों को अधिकाधिक आकर्षित करने के लिए स्वामी दयानन्द, फावर्ड स्पेनर , छत्रपति शिवाजी तथा महाराणा प्रताप के नाम से चार छात्रवृतियों की योजना भी चलाई । छात्रावास में रहने तथा छात्रवृति पाने वाले विद्दार्थियों को एक प्रतिज्ञा भी करनी होती थी ---- वह यह कि वे पढ़ - लिख कर अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगे और आजीवन देश की स्वाधीनता के लिए अपनी योग्यता तथा शक्ति का उपयोग करेंगे ।
श्री वर्मा ने लन्दन में ' भारतीय होम लीग ' की स्थापना की । वे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जयंती भी मनाने लगे । उन्होंने ' इण्डियन गाशिपालाजिस्ट ' नाम की एक पत्रिका निकालने लगे उसके मध्यम से क्रान्तिकारी विचारों का प्रसार करने लगे । बाद में वे पेरिस चले गये । उनके देहावसान के बाद उनकी इच्छा के अनुसार उनकी पत्नी ने उनका विशाल पुस्तकालय पेरिस विश्वविद्यालय को दान कर दिया । स्वाधीनता के लिए उनके किये गये प्रयासों के लिए वे सदा श्रद्धा - पात्र रहेंगे ।
