'  किसी   भी  प्रतिष्ठित  पद  पर  पहुँचने  के  बाद  सामान्य  व्यक्ति  प्राय :  अपने  सुख - साधनों  की   अभिवृद्धि   में  ही  लग  जाता  है   परन्तु  डॉ.  साहब  इस  आदत  से  सर्वथा  परे  थे  ।  उनका  एक  ही  लक्ष्य  था ----- भारत  का  सांस्कृतिक  पुनरुत्थान  । 
' कोई भी लक्ष्य निर्धारित करने वाले मनुष्य को अनिवार्य रूप से परिश्रमशील तथा सादगी पसंद होना पड़ता है । ' डॉ. साहब ने इन शर्तों को निष्ठां और उत्साहपूर्वक पूरा किया । उच्च प्रतिष्ठित घराने से सम्बंधित होने पर भी उन्होंने सादगी का वरण किया ।
भारतीय संस्कृति के अनन्य पोषक होते हुए भी उन्होंने उन परम्पराओं का कभी समर्थन नहीं किया जिन्होंने देश और समाज को अपार हानि पहुंचाई थी तथा जिनका आधार केवल अन्धविश्वास था । ब्राह्मण और जातिवाद के खिलाफ उन्होंने कलम उठाई और जो तर्कपूर्ण विचार दिए उससे ब्राह्मण समाज में खलबली पैदा हो गई । उन्होंने अपनी पुस्तक ' ब्राह्मण सावधान ' में लिखा कि ब्राह्मणत्व का आधार जन्म और वं श नहीं , कर्म और स्वभाव है । उन्होंने लिखा कि----
' यह कट्टर पन्थी ब्राह्मणों का ही प्रसाद था कि तुलसी को काशी के बाहर रहना पड़ा । और दयानन्द को दम्भी पंडितों और कठमुल्लाओं की यह नगरी छोडनी पड़ी । '
इस कथन की बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई परन्तु उन्होंने बड़ी निडरता के साथ अपना मत प्रतिपादित किया । उनकी द्रष्टि में संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में स्वार्थी और संकुचित मनोवृति के लोगों द्वारा हस्तक्षेप के कारण उत्पन्न हुई इन प्रवृतियों को दूर करना आवश्यक हो गया था । अन्धविश्वास का विरोध और स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन उन्होंने अपनी स्वयं की विवेक बुद्धि के आधार पर किया ।
' कोई भी लक्ष्य निर्धारित करने वाले मनुष्य को अनिवार्य रूप से परिश्रमशील तथा सादगी पसंद होना पड़ता है । ' डॉ. साहब ने इन शर्तों को निष्ठां और उत्साहपूर्वक पूरा किया । उच्च प्रतिष्ठित घराने से सम्बंधित होने पर भी उन्होंने सादगी का वरण किया ।
भारतीय संस्कृति के अनन्य पोषक होते हुए भी उन्होंने उन परम्पराओं का कभी समर्थन नहीं किया जिन्होंने देश और समाज को अपार हानि पहुंचाई थी तथा जिनका आधार केवल अन्धविश्वास था । ब्राह्मण और जातिवाद के खिलाफ उन्होंने कलम उठाई और जो तर्कपूर्ण विचार दिए उससे ब्राह्मण समाज में खलबली पैदा हो गई । उन्होंने अपनी पुस्तक ' ब्राह्मण सावधान ' में लिखा कि ब्राह्मणत्व का आधार जन्म और वं श नहीं , कर्म और स्वभाव है । उन्होंने लिखा कि----
' यह कट्टर पन्थी ब्राह्मणों का ही प्रसाद था कि तुलसी को काशी के बाहर रहना पड़ा । और दयानन्द को दम्भी पंडितों और कठमुल्लाओं की यह नगरी छोडनी पड़ी । '
इस कथन की बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई परन्तु उन्होंने बड़ी निडरता के साथ अपना मत प्रतिपादित किया । उनकी द्रष्टि में संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में स्वार्थी और संकुचित मनोवृति के लोगों द्वारा हस्तक्षेप के कारण उत्पन्न हुई इन प्रवृतियों को दूर करना आवश्यक हो गया था । अन्धविश्वास का विरोध और स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन उन्होंने अपनी स्वयं की विवेक बुद्धि के आधार पर किया ।
