8 September 2021

WISDOM ------

   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ----- आधिपत्य  की  इस  दौड़  में    सभी  के  जीवन  की  दशा  बिगड़  गई      क्योंकि  हम  त्याग  का  मूलमंत्र   ही  भूल  गए  हैं   l   यदि  हम  त्याग  की   डगर  में  थोड़ा  सा  आगे  बढ़ेंगे   तो  हमारे  जीवन  में  अमृत  घुलने  लगेगा  ,  हमारे   जीवन  से    विषैलापन     समाप्त  होता  जायेगा   l  '  आचार्य श्री  आगे  लिखते  हैं  -- भगवान  श्रीराम  अपना  अधिकार  त्यागने  के  लिए   तत्पर   हैं   और   भरत   अपने  सुख  को   त्यागने  के  लिए  तत्पर  हैं   तो   कोई    झगड़ा  नहीं  है     l                   लेकिन  जब  दुर्योधन   कहता  है  की   पांच  गांव  तो  बहुत  दूर  की  बात  है  ,  मैं  सुई  की  नोंक  बराबर  भी  भूमि  नहीं  दूंगा   तब  झगड़ा  खड़ा  होता  है , महाभारत  हो  जाता  है   l   आज  बात  देश  की  हो  या  विश्व  की  हो   भीषण  रूप  से  छिना - झपटी   मची  हुई  है  ,  आधिपत्य  की  होड़  है   l   जब  कोई  त्याग  में    प्रतिष्ठित  हो  जाता  है   तब   उसके  अंत:करण   में  प्रसन्नता  और   शांति  हिलोरें     लेती  है    और  तब  बाहर  कुछ  पाने  की  इच्छा  नहीं  होती    लेकिन  जो  अंदर  से रिक्त  है  ,  कंगाल  हैं  ,  वही   बाहर  के  लिए  भागते - दौड़ते  हैं   l  ------- तैमूर  लंग   लंगड़ा  था  ,  कहते  हैं  एक  बार  उसने  एक  राज्य  पर  आक्रमण  किया  , वहां  का  सुल्तान   भी    अपंग    था , काना  था   l  हमले  के  बाद  सुलह  हुई ,  समझौता  हुआ   उसके  बाद  दोनों  मिल  बैठकर  बातें  कर  रहे  थे   l   इस  अवसर  पर  बहुत  से  लोग   आमंत्रित  थे  ,  उनमें  एक  फकीर   भी  था   l     उस  समय  तैमूर  लंग   हँसता  हुआ  सुल्तान  से  बोला   ---- मैं  लंगड़ा  और  तुम  काने  ,  ये  खुदा  को  भी  क्या  हो  गया  है   ?    लंगड़े - कानों  को   सुल्तान  बनाता   रहता  है   l  तैमूर  परिहास  की  मनोदशा  में  था ,  हँसी   कर  रहा  था   l   लेकिन  उस  समय  सभा  में  उपस्थित   उस  फकीर   ने  कहा  ----- " हुजूर  !   लंगड़े  - कानों  को  ही  सल्तनत  की  जरुरत  होती  है   l  वे  आत्महीनता  की   ग्रंथि  से  ग्रस्त  रहते  हैं   l   वे  अपने  अंदर  कुछ  कमी  महसूस  करते  हैं  ,  जिसको  वे  बाहर  पूरा  करना  चाहते  हैं  l   जो  अपने  आप  में    जितना  संतुष्ट  है  , संतृप्त    होता  है  ,  वो  बाहर  की   उपलब्धियों   की  तरफ  आँख  उठाकर  भी  नहीं  देखता  हैं  l   त्याग  ही  सर्वोच्च  संतुष्ट  का  प्रमाण  है   l