16 August 2021

WISDOM -------

  श्रीमद भगवद्गीता  में   भगवान  कृष्ण  ने  कर्तव्य  कर्म  को  ही  श्रेष्ठतम  कहा  है   l    पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ----- ' प्रकृति  हमारे  लिए  जिस   कर्तव्य  का  चयन  करती  है  ,  उसका  विरोध  करना  व्यर्थ  है  l   हमारी  उन्नति  का  एकमात्र  उपाय  यह  है   कि   हम  पहले  वह  कर्तव्य  करें  ,  जो  काल  द्वारा  हमारे  सम्मुख  प्रस्तुत  कर  दिया  गया  है   l   यदि  कोई  मनुष्य  छोटा  कार्य  करे  ,  तो  उसके  कारण  वह  छोटा  नहीं  कहा  जा  सकता   l   कर्तव्य  के  मात्र  बाहरी  रूप  से   ही  मनुष्य  की   उच्चता - नीचता  का  निर्णय  ठीक  नहीं  है  ,  देखना  यह  होगा  कि   वह  अपना  कर्तव्य  किस  भाव  से  करता  है   l   शास्त्र  में  एक  कथा   आती  है   -------  एक  संत  ने  अनेक  वर्षों  तक  तप  कर  सिद्धि  प्राप्त  की  ,   अपने  ज्ञान  का  , तप  का  उन्हें  बड़ा  अहंकार  हो  गया   l   तब  आकाशवाणी  हुई   कि   तुम  ज्यादा  ज्ञानी  और  ईश्वर  का  भक्त  वह  व्याध  है  l   संत  को  बड़ा  आश्चर्य  हुआ  कि   मांस  काटने - बेचने  वाला  ज्ञानी  कैसे  हो  सकता  है   l   संत  उससे  मिलने  पहुंचे   ,  वह   मांस     बेच  रहा  था    उसने  कहा  ---- थोड़ी  देर  प्रतीक्षा  करो  ,  मैं  काम  समाप्त  कर  आता  हूँ   l  संत  ने  देखा  कि   उसका  ग्राहकों  से  बहुत  मधुर  व्यवहार  है ,  नाप - तौल  में   ईमानदारी  है  l   काम  समाप्त  कर  वह  संत  के  साथ  घर  आया   और  उन्हें    बैठाकर  वह  अंदर  गया  ,  अपने  वृद्ध  माता - पिता  को  स्नान  कराया , भोजन  कराया   फिर  उस  संत  के  पास  आया   l   संत  ने  उससे  आत्मा - परमात्मा  के  प्रश्न  पूछे  ,  उसने  सभी  का  उत्तर व  उपदेश  दिया  l  तब  संत  ने  कहा  ---- ' इतना  ज्ञानी  होते  हुए  तुम  इतना  घृणित   व  कुत्सित  कार्य  क्यों  करते  हो   ?  व्याध  ने  कहा  ----- " कोई  भी  कार्य   निन्दित  अथवा  अपवित्र  नहीं  है   l   मैं  जन्म  से  ही  इस  परिस्थिति  में  हूँ   ,  यही  मेरा  प्रारब्धजन्य  कर्म  है   ,  कर्तव्य  होने  के  नाते   मैं  इसे  ईमानदारी  व  सच्चाई  से  करता  हूँ  ,  मेरा  कर्तव्य  ही   पूजा  है , उपासना  है   l  गृहस्थ  होने   के  नाते   मैं  परिवार  के  प्रति  अपने  कर्तव्य   का  पालन  करता  हूँ  , माता - पिता  की  सेवा  करता  हूँ   l    मैं  कोई  संन्यासी  नहीं  हूँ   लेकिन  अनासक्त  भाव  से  कर्म  करता  हूँ   l    यह     सब  देख - सुन  कर  संत  को  समझ  में  आया  कि   कर्मफल  में  आसक्ति  रखे  बिना     यदि  कर्तव्य  उचित  रूप  से  किया  जाये   तो  उससे  भगवान  की  कृपा , उनका  संरक्षण  प्राप्त  होता  है    l