9 June 2013

FAMILY RELATIONSHIP

'गृहस्थ एक तपोवन है जिसमे संयम ,सेवा और सहिष्णुता की साधना की जाती है | '
         गृहस्थ धर्म के परिपालन के लिये किया गया कोई भी प्रयास किसी तप से कम नहीं है | मनुष्य की सहज वृति कामवासना को पति -पत्नी में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठा में परिवर्तित कर कामोपभोग को एक सांस्कृतिक संस्कार बनाकर सामाजिक मूल्य का रूप देना गृहस्थ आश्रम की ही देन है |
         श्रेष्ठ संतान ,सुसंतति देने की खान गृहस्थ धर्म को ही माना गया है | परिवार के बीच ही महामानव प्रशिक्षण पाकर निकलते और किसी समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं |
        श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं -"एक हाथ से ईश्वर के चरणकमल पकड़े रहो और दूसरे हाथ से गृहस्थी का काम करते रहो | भगवान को लेकर ही गृहस्थी में रहना होगा ,उन्हें छोड़कर नहीं | जितने दिन सांसारिक दायित्व हैं ,उतने दिन मन का एक अंश ईश्वर में ,दूसरा अंश संसार के कार्यों में रहे | दायित्व जैसे -जैसे घटे ,भगवान में उतना ही मन बढ़ाते जाओ | दायित्व पूर्ण होते ही दोनों हाथों से भगवान के चरणों को पकड़ लो ,समूचे मन से उन्ही का चिंतन करो | तभी यह संसार आनंद -कानन में परिणत होगा | 

RELATION

मानव जीवन में पनपने वाला संबंध भावनाओं के तल पर उपजता है | भावना मानव जीवन की आधार शिला है | भावनाओं की परिष्कृति एवं स्थिरता संबंधों को स्वस्थ एवं सुद्रढ़ बनाती है | भावनाएं संबंधों को पोषण देती हैं एवं विकसित करती हैं |
            यदि संबंध अच्छे होते हैं तो जीवन की सुंदरता ,खूबसूरती बढ़ जाती है और यदि संबंधों में कटुता पनपती है तो जीवन नरकतुल्य अर्थहीन लगता है | ऐसा इसलिये होता है क्योंकि संबंधों का आधार ही भावनाएं हैं |
              भावना का विकास ही संबंधों की पूर्णता है | यही जीवन का सच्चा सौंदर्य एवं सुख है | भावना के बिना अधूरेपन एवं अपूर्णता का कष्ट हमेशा चुभता रहता है और अपनों के बिना जीवन वीराना और शुष्क हो जाता है | यही अनेक मनोविकारों का मूल कारण है | अत:हमें अपनी भावनाओं को परिष्कृत एवं विकसित करना चाहिये ,जिससे हमारे संबंध प्रेमपूर्ण एवं सुखदायक हों |