विदुर जी ने जब देखा धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते , तो सोचा कि इनका अन्न और इनका सान्निध्य मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा , इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पत्नी सहित रहने लगे l जंगल से भाजी तोड़ लेते , उबाल कर खा लेते और अपना समय सत्कार्यों और प्रभु - स्मरण में लगाते l श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गई , तो वे धृतराष्ट्र , दुर्योधन, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार कर के विदुर जी के यहाँ जा पहुंचे और वहां भोजन करने की इच्छा प्रकट की l विदुर जी को यह संकोच हुआ कि प्रभु को शक - भाजी परोसने पड़ेंगे ? पूछा , ' आप भूखे भी थे , भोजन का समय भी था और उनका आग्रह भी , फिर आपने भोजन क्यों नहीं किया ? " भगवान बोले ---- " चाचाजी ! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा , जो आपके गले नहीं उतरा , वह मुझे भी कैसे रुचता ? जिसमें आपने स्वाद पाया , उसमे मुझे स्वाद न मिलेगा , ऐसा आप कैसे सोचते हैं ? " विदुर जी भाव - विह्ल हो गए l प्रभु तो प्रेम और भावना के भूखे हैं l
7 December 2020
WISDOM ----- अहंकार व्यक्ति को पतन के मार्ग पर ले जाता है
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' जब सृष्टि का सृजेता शाश्वत ईश्वर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का कभी कोई प्रयास नहीं करता , तब हम मरणधर्मा होते हुए स्वयं को श्रेष्ठ मानने व सिद्ध करने का अहंकार किस आधार पर कर सकते हैं ? ' अहंकार व्यक्ति को पतन के मार्ग पर ले जाता है , इसलिए मनुष्य को जो कुछ भी विशेषता प्राप्त हो उसके आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के बजाय इसका सदुपयोग स्वयं के विकास में एवं दूसरों के कल्याण के लिए करना चाहिए l उसे यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जिन उपलब्धियों के कारण आज वह गर्वोन्मत हो रहा है , उन्हें नष्ट होने में क्षणमात्र भी नहीं लगेगा l ' पुराण में एक कथा है ------ सम्राट भरत ने जब सम्पूर्ण भूमण्डल को जीत लिया तो उसने देवराज इंद्र के पास जाकर कहा ---- " अब मुझे अपनी कीर्ति को अक्षय - अमर रखने के लिए वृषभाचल पर अपना नाम अंकित करना है l " इंद्र ने इसमें अपनी सहमति व्यक्त की l सम्राट भरत वृषभाचल पर पहुंचे , पर यह देखकर अचंभित रह गए कि पूरा पर्वत चक्रवर्ती सम्राटों के नामों से भरा है , उसमे इतना स्थान भी खाली नहीं है कि एक नाम और लिखा जा सके l बहुत खिन्न मन से वे इंद्र के पास लौट आए और बोले ---- " उसमें तो मेरा नाम लिखने योग्य स्थान ही नहीं है , अब मैं अपना नाम कैसे लिखूं ? " इंद्र बोले ---- " तुम किसी का नाम मिटाकर अपना नाम लिख दो l सहस्त्रों - सहस्त्रों वर्षों से यही परंपरा चली आ रही है l " इस पर भरत ने कहा --- " तो फिर भविष्य में मेरा नाम मिटाकर कोई अन्य व्यक्ति अपना नाम लिख सकता है l " इंद्र ने कहा --- " हाँ , ऐसा हो सकता है l " तब भरत बोले ---- " तो फिर ऐसी उपलब्धि पर अहंकार करने से क्या लाभ , जिसका कोई स्थायी अस्तित्व न हो l " वे अनुभव करने लगे कि इस विराट जगत में अपना अस्तित्व , अपना स्थान है ही कितना l यह सोचना कितना गलत है कि जो मैंने किया , वह कोई कर ही नहीं सकता l यह सोचकर भरत इंद्रलोक से वापस लौट आए l