1 May 2020

WISDOM ------

  संसार  में  जब  भी  भीषण  नर - संहार  हुए  हैं  , उसके  पीछे  किसी  व्यक्ति  या  समूह  की  आसुरी  प्रवृति  की  प्रमुखता  रही  है  l    रावण  यद्द्पि  विद्वान्  था  ,  लेकिन  उसकी  आसुरी  प्रवृति  के  कारण  राम - रावण  युद्ध  हुआ   l   दुर्योधन  में  आसुरी  प्रवृति  थी  ,  जीवन  भर  छल - छद्द्म  और  षड्यंत्र  करता  रहा  ,  और  महाभारत  के  लिए  उत्तरदायी  था  l   इसी  प्रकार  हम  इतिहास  देखें  तो  प्रथम  और  द्वितीय  विश्व - युद्ध  के  भीषण  नर - संहार  के  लिए   आसुरी  शक्तियां  ही  जिम्मेदार  थीं  l
  यह  एक  प्रश्न  उपस्थित  होता  है   कि   व्यक्ति  जन्म  से  बुरा  नहीं  होता  ,  फिर  ऐसा  क्या  हो  जाता  है  कि   उस  पर  आसुरी  प्रवृति  हावी  हो  जाती  है    जो  उसके  माध्यम  से   संसार  में  नकारात्मक  कार्यों  को  ,  जन - सामान्य  के  उत्पीड़न   और  एक  भीषण  नर - संहार  को  अंजाम  देती  है   l   इस  प्रश्न  का  उत्तर  हमारे  पुराण  की  कथा  में  है  -------   जब   महाराज   परीक्षित  के  काल  में   कलियुग  का    आरम्भ  हुआ  ,  तो  कलियुग   उत्पात  मचाने   ,  जनता  बहुत  दुखी  होने  लगी  l  तब  महाराज  परीक्षित  ने  कलियुग  से  कहा  -- तुम  इस  तरह  जनता  को  दुखी  नहीं  कर  सकते  l
 तब  कलियुग  ने  कहा  ---  ईश्वर  के  विधान  के  अनुसार  ,  अब  कलियुग    का  आरम्भ  हुआ  है  तो  मुझे  तो  धरती  पर  रहना  ही  है  l
राजा  ने  कहा --- तुम्हारे  क्रिया - कलापों  से  सम्पूर्ण  धरती  पर  त्राहि - त्राहि  मच  जाएगी  इसलिए  तुम  धरती  पर  केवल  छह  स्थानों  पर  रहो ----- स्वर्ण (  अकूत  धन सम्पदा ), झूठ , जुआ , नशा , व्यभिचार ,  चोरी - हत्या  l
  उस  दिन  से  कलियुग  इन्ही  छह  स्थानों  पर  रहने  लगा  l   इन  छह  स्थानों  में  सबसे  प्रमुख   ' स्वर्ण ' है  l   जिसके  पास   असीमित  धन - सम्पदा  है  ,  उसको    अहंकार   हो  जाता  है  l   सारा  दोष  धन  में  है  ,  धन  के  साथ   झूठ , नशा , जुआ  आदि  बुराइयां   खींची  चली  आती  हैं  l
जिनके  पास   स्वर्ण  अर्थात  बहुत  धन - सम्पदा  है  ,  उन  पर  कलियुग  सवार  हो  जाता  है   और  उनके  माध्यम  से  वह  संसार  में  नकारात्मक  कार्यों  को  अंजाम  देता  है   l  शिक्षा , कला , साहित्य ,  चिकित्सा  ,  कृषि   आदि   सभी  का  स्तर  गिर  जाता  है  ,  इसकी  वजह  से  संसार  में  तनाव ,  अपराध ,  मानसिक  विकृतियां  ,   पागलपन , आत्महत्या ,   रोग , महामारी , बच्चों  का  उत्पीड़न     आदि   दिखाई  देने  लगते  हैं  l   तृष्णा  समाप्त  नहीं  होती  ,  इसलिए  और  अधिक  धन  कमाने  के  लिए    वे  प्रकृति  का  शोषण  करते  हैं  ,  जिससे  पूरा  पर्यावरण  प्रदूषित  हो  जाता  है  ,  प्राकृतिक  आपदाएं  आने  लगती  हैं   l
 कलियुग  के  ऐसे  भीषण  प्रहार  से  बचने  का  एकमात्र  उपाय  यही  है    कि   किसी  व्यक्ति  विशेष  या  संस्था  - विशेष  के  पास  असीमित  धन  - संग्रह  न  होने  पाए  ,  उसकी  एक  सीमा  निर्धारित  होनी   चाहिए   ताकि  वह  अपने  धन  के  दम्भ  पर  संसार  में  उत्पात  न  मचा  पाए  l
 यह  सत्य  है  कि   कलियुग  किसी  को  नहीं  छोड़ता  l   स्वयं  राजा  परीक्षित    स्वर्ण मुकुट  पहन  कर  जंगल  में  शिकार  करने  गए  ,  तो  कलियुग  उनके  मुकुट  में  छिपकर  बैठ  गया  l   वहां  आश्रम  में  उन्होंने   प्यास   लगने  पर  ऋषि  से  पानी  माँगा  ,  ऋषि  समाधि   में  थे  l   कलियुग  के  प्रभाव  से  राजा  की  बुद्धि  भ्रष्ट  हो  गई  , उन्होंने  ऋषि  के  गले  में  मरा   हुआ  सर्प  डाल   दिया  l   वापिस  महल  आने  पर  जब  उन्होंने  मुकुट  उतारकर  रखा  ,  तब  उन्हें  होश  आया  कि   उन्होंने  यह  क्या  अनर्थ  कर  दिया  l   लेकिन  तब  तक   बहुत  देर  हो  चुकी  थी  ,  उन्हें  ऋषि  ने  शाप  दे  दिया  था   कि   उस  दिन  के   सातवें  दिन  उन्हें  तक्षक  नाग  डस   लेगा   l
इसी  तरह  भगवान  कृष्ण  के  धरती  से  जाने  के  बाद   कलियुग  के  प्रभाव  से  ही   उनका  पूरा  यादव  वंश   आपस  में  ही  लड़ - भिड़कर  समाप्त  हो  गया   l 
पुराणों  की  कथाएं  हमें  शिक्षण  देती  हैं   की  समस्या  के  मूल  कारण  को  समाप्त  करना   चाहिए  l  उसके  साथ  जुड़ी   हुई  अनेक  समस्याएं  स्वत:  ही  हल  हो  जाएँगी  

WISDOM -----

 पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  लिखा  है ---- '  धन  का  संचय  तो  कितनी  ही  बड़ी  मात्रा  में   बिना  उचित - अनुचित  का  विचार  किए  हुए  किया  जा  सकता  है  ,  पर  उसके  उपयोग  के  लिए  एक  सीमा  निर्धारित  है  l   कोई  अमीर  भी    एक  मन  भोजन  नहीं  कर  सकता  ,  सौ   फुट  लम्बे  पलंग  पर  सोने   और  उतना  ही  बड़ा  बिस्तर  बिछाते   किन्ही  धनिकों  को  भी  नहीं  देखा  जा  सकता   l   अधिक  उपार्जन  और  अधिक  संग्रह   मन  बहलाने  भर  का  है   l  अंतत:  वह  इसी  धरती  पर  पड़ा  रह  जाता  है   l   जिस  पर  वह  अनादि  काल  से  पड़ा  हुआ  है   और  अनंत  काल  तक  पड़ा  रहेगा   l  सम्पदा  का  इस  हाथ  से  उस  हाथ  हस्तांतरण   तो  हो  सकता  है  ,  पर  इससे  शरीर  निर्वाह  में   काम  आने  वाले   साधनों  को  छोड़कर   शेष  को  इसी  दुनिया  की   सुरक्षित  पूंजी  के  रूप  में  जहाँ  का  तहाँ   छोड़ना  पड़ता  है   l  यह  तथ्य  सामान्य  समय  में  समझ  में  नहीं  आता  l   बादशाह  सिकन्दर   ने   मरते  समय   अपने  दोनों  हाथ  ताबूत  से  बाहर   निकाल  दिए  थे  कि  अपार  धन  सम्पदा   का  स्वामी  होते  हुए  भी   बिना  एक  पाई  साथ  लिए   खाली  हाथ  चला  गया   l
 आचार्य श्री  लिखते  हैं  --- जीवन  सम्पदा  महत्वपूर्ण  कार्यों  के  लिए  धरोहर   के  रूप  में  मिली  है  l  उसे  उन्ही  प्रयोजनों  में  खर्च  किया  जाना  चाहिए  , जिसके  निमित  ईश्वर  ने   सौंपा  है  l   यदि  अत्यधिक  धन - संपदा   है   तो  उसका  उपयोग  परमार्थ  प्रयोजन  में ,   पिछड़े  को  बढ़ाने  और  गिरे  हुओं  को   उठाने  में   करना  चाहिए  l   तभी  उस  धन  की  सार्थकता  है  l    दुरूपयोग  की  नीति   अपनाने  पर  तो  अमृत  भी  विष  बन  जाता  है   l