' सही शिक्षा वह है जो हमें आत्म निर्भर होने के साथ-साथ अच्छा इनसान बनाये '
प्रचलित शिक्षा का ढांचा-ढर्रा मानवीय हितों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं है | अलग-अलग विषयों की ढेरों जानकारी जमा कर लेने से वृतियों का, व्यक्तित्व का परिष्कार नहीं होता । प्राथमिक कक्षा से लेकर उच्चतम कक्षा तक की पढाई पूरी करने के बावजूद इनसान व्यक्तित्व की द्रष्टि से अनगढ़ बना रह जाता है, यहाँ तक कि पी. एच. डी. जैसी उपाधियाँ भी उसे जीवन जीने का सही ढंग नहीं सिखा पातीं । सभी देशों में योग्यता का एक ही मानक है--- बहुत सारा धन कमा सकने में प्रवीणता । सहिष्णुता, दया, करुणा, संवेदना जैसी अच्छा इनसान बनने की प्रवृतियों की ओर किसी की कोई अभिरुचि नहीं है ।
आज की शिक्षा आशाएँ जगाती है, कठिन कर्म कराती है, बहुत सारा ज्ञान होने का भ्रम पैदा करती है और परिणाम में व्यक्ति को धन का लालची राक्षस, वैभव-विलास की आशाओं में डूबने वाला असुर और दुर्गुणों-दुराचार में सदा सम्मोहित रहने वाला विचित्र प्राणी बना देती है । ऐसा व्यक्ति जो साक्षर और शिक्षित होकर भी संस्कारविहीन और संस्कृति की संवेदना से रहित रह जाता है ।
जबकि सही शिक्षा तो वह है, जिसके लिये भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं---
' ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम । ।
सच्चा ज्ञान का साधक तो वह है जो अपने अर्जित ज्ञान को सेवाकार्य का माध्यम बना लेता है । सेवा भी ऐसी, जिससे स्वयं का सुधार-परिष्कार हो और दूसरे के दुःख-दरद का एहसास करके उनके निमित स्वयं को अर्पित करता है । अपनी इसी भावना के विस्तार में वह भगवान को विश्वरूप में अनुभव करने लगता है ।
समाज में श्रेष्ठतम कार्यों के लिये श्रेष्ठतम व्यक्तित्व भी आवश्यक हैं । ऐसे व्यक्ति जहाँ, जिस क्षेत्र में होंगे, वहां स्वाभाविक रूप से सकारात्मक परिवर्तन होते रहेंगे ।
प्रचलित शिक्षा का ढांचा-ढर्रा मानवीय हितों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं है | अलग-अलग विषयों की ढेरों जानकारी जमा कर लेने से वृतियों का, व्यक्तित्व का परिष्कार नहीं होता । प्राथमिक कक्षा से लेकर उच्चतम कक्षा तक की पढाई पूरी करने के बावजूद इनसान व्यक्तित्व की द्रष्टि से अनगढ़ बना रह जाता है, यहाँ तक कि पी. एच. डी. जैसी उपाधियाँ भी उसे जीवन जीने का सही ढंग नहीं सिखा पातीं । सभी देशों में योग्यता का एक ही मानक है--- बहुत सारा धन कमा सकने में प्रवीणता । सहिष्णुता, दया, करुणा, संवेदना जैसी अच्छा इनसान बनने की प्रवृतियों की ओर किसी की कोई अभिरुचि नहीं है ।
आज की शिक्षा आशाएँ जगाती है, कठिन कर्म कराती है, बहुत सारा ज्ञान होने का भ्रम पैदा करती है और परिणाम में व्यक्ति को धन का लालची राक्षस, वैभव-विलास की आशाओं में डूबने वाला असुर और दुर्गुणों-दुराचार में सदा सम्मोहित रहने वाला विचित्र प्राणी बना देती है । ऐसा व्यक्ति जो साक्षर और शिक्षित होकर भी संस्कारविहीन और संस्कृति की संवेदना से रहित रह जाता है ।
जबकि सही शिक्षा तो वह है, जिसके लिये भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं---
' ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम । ।
सच्चा ज्ञान का साधक तो वह है जो अपने अर्जित ज्ञान को सेवाकार्य का माध्यम बना लेता है । सेवा भी ऐसी, जिससे स्वयं का सुधार-परिष्कार हो और दूसरे के दुःख-दरद का एहसास करके उनके निमित स्वयं को अर्पित करता है । अपनी इसी भावना के विस्तार में वह भगवान को विश्वरूप में अनुभव करने लगता है ।
समाज में श्रेष्ठतम कार्यों के लिये श्रेष्ठतम व्यक्तित्व भी आवश्यक हैं । ऐसे व्यक्ति जहाँ, जिस क्षेत्र में होंगे, वहां स्वाभाविक रूप से सकारात्मक परिवर्तन होते रहेंगे ।