' जो हम कहते हैं वह अमल में भी होना चाहिए l '
हिन्दी साहित्य के महान कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध जी ' का जन्म 1865 में एक जमीदार परिवार में हुआ था l जमींदारी और पंडिताई उनका पैतृक धंधा था l उन्होंने मिडिल स्कूल की परीक्षा पास कर ली l
एक दिन उन्होंने अपने जमीदार पिता से किसी किसान को पिटते देखा l उस समय तो वे कुछ नहीं बोले l समय मिलने पर पूछा ---- ' क्या पिताजी इस दुनिया में यह सब चलता है l आप तो कथाओं में लोगों से कहा करते हैं कि किसी निरपराध प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए l '
अपने किये पर पुत्र को टीका - टिपण्णी करते देख पिता को क्रोध आ गया , वे बोले --- " तू जानता है कि उसने कोई अपराध किया है या नहीं किया है l "
पुत्र ने कहा ---- " मेरी जानकारी में तो नहीं है l क्या आप बताने का कष्ट करेंगे l "
पिता उन्हें जमींदारी सिखाना चाहते थे , अत: कुछ शांत होकर बोले ---- " सारी फसल तो बेचकर खा गया और लगान के नाम पर वह कह रहा था कि कुछ हुआ ही नहीं l "
अयोध्या सिंह जी बोले ---- " इस साल तो पानी नहीं बरसा l यह बात तो हम लोग भी जानते हैं l फसल कहाँ से पैदा हुई होगी l "
पिता बोले --- " मिडिल पास कर ली तो खुद को मुझसे ज्यादा समझदार मानने लगा है l मैं जो कह रहा हूँ क्या वह तेरे लिए झूठ है l " यह कहकर वे बेटे की और लपके l
इस घटना ने उन्हें धर्म क्षेत्र में फैले हुए आडम्बर का बोध कराया l लोगों को दया , प्रेम का उपदेश देकर अपने स्वार्थ के लिए स्वयं उनके साथ मारपीट करना तो गलत है l जो हम कहते हैं उस पर अमल भी होना चाहिए l
अपने भावी जीवन के बारे में वे सोच रहे थे कि जमींदारी का धन्धा और पंडिताई ये दोनों काम नहीं बन सकते l कृषक की विवशता को समझकर भी उसे उपेक्षित करते हुए अमानवीय अत्याचार करना उन्हें गौरव अनुकूल नहीं लगा l जमींदारी करते हुए पंडिताई दूभर है l अब वे स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका चलाने लगे l भारतेन्दु जी के संपर्क में आकर उन्हें सार्थक साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली l समाज में व्याप्त कुरीतियों , मर्यादाहीन ब्राह्मण - पंडितों , बाल विवाह , वृद्ध विवाह जैसे विषयों पर उन्होंने अपनी कवितायेँ लिखीं l
हिन्दी साहित्य के महान कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध जी ' का जन्म 1865 में एक जमीदार परिवार में हुआ था l जमींदारी और पंडिताई उनका पैतृक धंधा था l उन्होंने मिडिल स्कूल की परीक्षा पास कर ली l
एक दिन उन्होंने अपने जमीदार पिता से किसी किसान को पिटते देखा l उस समय तो वे कुछ नहीं बोले l समय मिलने पर पूछा ---- ' क्या पिताजी इस दुनिया में यह सब चलता है l आप तो कथाओं में लोगों से कहा करते हैं कि किसी निरपराध प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए l '
अपने किये पर पुत्र को टीका - टिपण्णी करते देख पिता को क्रोध आ गया , वे बोले --- " तू जानता है कि उसने कोई अपराध किया है या नहीं किया है l "
पुत्र ने कहा ---- " मेरी जानकारी में तो नहीं है l क्या आप बताने का कष्ट करेंगे l "
पिता उन्हें जमींदारी सिखाना चाहते थे , अत: कुछ शांत होकर बोले ---- " सारी फसल तो बेचकर खा गया और लगान के नाम पर वह कह रहा था कि कुछ हुआ ही नहीं l "
अयोध्या सिंह जी बोले ---- " इस साल तो पानी नहीं बरसा l यह बात तो हम लोग भी जानते हैं l फसल कहाँ से पैदा हुई होगी l "
पिता बोले --- " मिडिल पास कर ली तो खुद को मुझसे ज्यादा समझदार मानने लगा है l मैं जो कह रहा हूँ क्या वह तेरे लिए झूठ है l " यह कहकर वे बेटे की और लपके l
इस घटना ने उन्हें धर्म क्षेत्र में फैले हुए आडम्बर का बोध कराया l लोगों को दया , प्रेम का उपदेश देकर अपने स्वार्थ के लिए स्वयं उनके साथ मारपीट करना तो गलत है l जो हम कहते हैं उस पर अमल भी होना चाहिए l
अपने भावी जीवन के बारे में वे सोच रहे थे कि जमींदारी का धन्धा और पंडिताई ये दोनों काम नहीं बन सकते l कृषक की विवशता को समझकर भी उसे उपेक्षित करते हुए अमानवीय अत्याचार करना उन्हें गौरव अनुकूल नहीं लगा l जमींदारी करते हुए पंडिताई दूभर है l अब वे स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका चलाने लगे l भारतेन्दु जी के संपर्क में आकर उन्हें सार्थक साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली l समाज में व्याप्त कुरीतियों , मर्यादाहीन ब्राह्मण - पंडितों , बाल विवाह , वृद्ध विवाह जैसे विषयों पर उन्होंने अपनी कवितायेँ लिखीं l