प्रतिकूलताओं मे भी जो देने की आकांक्षा रखता हो वही सही अर्थों में देवता होते हैं ।
महाभारत में एक कथा है----- एक ब्राह्मण परिवार अनुष्ठान कर रहा था, भयंकर अकाल की स्थिति थी । ऐसे में उनने नौ दिन पश्चात् बचा हुआ भोजन लेने का विचार किया था । नवें दिन भावनात्मक पूर्णाहुति कर जैसे ही ब्राह्मण परिवार भोजन के लिए बैठा तो एक चांडाल समने आ गया, उसने कहा, हमें भूख लगी है, हम खाना चाहते हैं । ब्राह्मण ने अपना भोजन उसे दे दिया । भोजन कर लेने के बाद उसने कहा कि पेट नहीं भरा, तो ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपना भोजन उसके सामने रख दिया । इस भोजन से भी उसकी भूख शांत नहीं हुई तो ब्राह्मण के दोनों पुत्रों ने भी अपना भोजन जो कि अब अंतिम आस के रूप में रखा था, चांडाल को दे दिया ।
चांडाल ने पूछा कि अब आप क्या खायेंगे ? ब्राह्मण ने कहा कि पानी पीकर ही परायण कर लेंगे । सोचेंगे यही भगवान की इच्छा है । अतिथि भूखे चले जायें, यह कैसे हो सकता है ? चांडाल ने भोजन समाप्त किया, ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया एवं अच्छी तरह कुल्ला कर तृप्ति का भाव प्रकट किया । ज्योंही ब्राह्मण देव सपरिवार चांडाल रूपी अतिथि को प्रणाम करने झुके वहां भगवान नारायण प्रकट हो गये । स्वयं भगवान चांडाल का रूप धर ब्राह्मण कि त्याग वृति को परखने आये थे । भगवान ने कहा प्रतिकूलताओं में भी जो देने की आकांक्षा रखता हो, जिसकी भावनाएँ पुष्ट हों वही सही अर्थों में देवता है एवं ऐसे देवताओं के होते हुए दुर्भिक्ष नहीं होना चाहिए । भगवान के ऐसा कहते ही घनघोर घटाएँ बरसने लगीं एवं अकाल की स्थिति चली गई ।
निष्काम भाव से मानव जाति की, समाज की सेवा स्वरुप किया गया श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है, इसके परिणाम स्वरुप आत्मसंतोष, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि प्राप्त होता है । ऐसे अहंकाररहित निष्काम कर्म मन को अनिर्वचनीय शांति से भर देते हैं ।
महाभारत में एक कथा है----- एक ब्राह्मण परिवार अनुष्ठान कर रहा था, भयंकर अकाल की स्थिति थी । ऐसे में उनने नौ दिन पश्चात् बचा हुआ भोजन लेने का विचार किया था । नवें दिन भावनात्मक पूर्णाहुति कर जैसे ही ब्राह्मण परिवार भोजन के लिए बैठा तो एक चांडाल समने आ गया, उसने कहा, हमें भूख लगी है, हम खाना चाहते हैं । ब्राह्मण ने अपना भोजन उसे दे दिया । भोजन कर लेने के बाद उसने कहा कि पेट नहीं भरा, तो ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपना भोजन उसके सामने रख दिया । इस भोजन से भी उसकी भूख शांत नहीं हुई तो ब्राह्मण के दोनों पुत्रों ने भी अपना भोजन जो कि अब अंतिम आस के रूप में रखा था, चांडाल को दे दिया ।
चांडाल ने पूछा कि अब आप क्या खायेंगे ? ब्राह्मण ने कहा कि पानी पीकर ही परायण कर लेंगे । सोचेंगे यही भगवान की इच्छा है । अतिथि भूखे चले जायें, यह कैसे हो सकता है ? चांडाल ने भोजन समाप्त किया, ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया एवं अच्छी तरह कुल्ला कर तृप्ति का भाव प्रकट किया । ज्योंही ब्राह्मण देव सपरिवार चांडाल रूपी अतिथि को प्रणाम करने झुके वहां भगवान नारायण प्रकट हो गये । स्वयं भगवान चांडाल का रूप धर ब्राह्मण कि त्याग वृति को परखने आये थे । भगवान ने कहा प्रतिकूलताओं में भी जो देने की आकांक्षा रखता हो, जिसकी भावनाएँ पुष्ट हों वही सही अर्थों में देवता है एवं ऐसे देवताओं के होते हुए दुर्भिक्ष नहीं होना चाहिए । भगवान के ऐसा कहते ही घनघोर घटाएँ बरसने लगीं एवं अकाल की स्थिति चली गई ।
निष्काम भाव से मानव जाति की, समाज की सेवा स्वरुप किया गया श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है, इसके परिणाम स्वरुप आत्मसंतोष, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि प्राप्त होता है । ऐसे अहंकाररहित निष्काम कर्म मन को अनिर्वचनीय शांति से भर देते हैं ।