कहते हैं प्रार्थना में , भगवान के नाम स्मरण में बहुत शक्ति है l इससे ईश्वर प्रसन्न होते हैं लेकिन मनुष्य को मिलता वही है जैसी उसकी प्रवृति होती है l कलियुग का एक लक्षण है कि लोग केवल दिखावे के लिए भगवान का नाम लेते हैं , उनके आचरण पवित्र नहीं है l ईश्वर हमारे अंतर्मन , हमारी भावनाओं को समझते हैं और उसी के अनुरूप परिणाम मिलता है l ईश्वर का नाम लेने से वे सुनते अवश्य हैं , लेकिन भावनाएं कलुषित होने के कारण प्रकृति में यही सन्देश जाता है कि इन लोगों को झगड़ा , तनाव आदि नकारात्मकता ही पसंद है इसलिए प्रकृति मनुष्य की पसंद के अनुसार उसे तनाव , बीमारी , महामारी , आपदा जैसे सामूहिक दंड देती है l हमें भक्ति साधना नारद जी से सीखनी चाहिए जो सच्चे भक्त होते हैं उन्हें भगवान पतन के गर्त में गिरने से बचाते हैं l एक कथा है ------- एक बार नारद जी को कामवासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था l उन्होंने उसे भगवान विष्णु के सामने भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया l अहंकार पतन का कारण होता है इसलिए भगवान ने सोचा कि भक्त के मन में अहंकार नहीं होना चाहिए l भगवान ने माया रची ---- नारद जी ने देखा कि एक बहुत सुरम्य और बड़े नगर के राजा की अति सुन्दर विश्वमोहिनी पुत्री का स्वयंवर है l उसे देखकर नारद जी के मन में यह इच्छा बलवती हो गई कि वे उस कन्या से विवाह कर लें l वे सोचने लगे कि कन्या तो इतनी सुन्दर है और उनका रूप ? वो उनके गले में वरमाला कैसे डालेगी ? नारद जी तो सच्चे भक्त थे वे विष्णु भगवान के पास गए , अपनी इच्छा बताई और कहा कि कुछ समय के लिए वो अपना सुन्दर रूप उन्हें दे दें , जिससे उनका विवाह उस राजकन्या से हो जाये l भगवान तो बहुत दयालु होते हैं , उनने कहा --- ' तथास्तु ' l अब नारद जी बड़े - बड़े क़दमों से अति प्रसन्न होकर स्वयंवर भूमि पहुंचे l सब लोग नारद जी की शक्ल देखकर मुस्करा रहे थे , भगवान ने उन्हें बन्दर का रूप दे दिया था l राजकन्या ने भी उनका बन्दर सा मुख देखकर मुँह फेर लिया और मनुष्य के वेश में आए भगवान विष्णु के गले में जयमाला डाल दी l नारद जी को सबके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ कि उनके सुन्दर रूप पर भी लोग ऐसे हँस रहे हैं , उन्होंने पानी में अपनी शक्ल बन्दर जैसी देखी तो उन्हें भगवान पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने भगवान को श्राप दे डाला l अब भगवान ने अपनी माया समेट ली l अब वहां न महल था , न राजकन्या l नारद जी की आँखें खुली की खुली रह गईं , उन्होंने भगवान से क्षमायाचना की और पूछा कि आपने मुझे बन्दर का रूप क्यों दे दिया , मना कर देते l भगवान ने कहा --- कामवासना पर विजय संभव नहीं है , लेकिन तुम्हे अहंकार हो गया था , उसे मिटाने के लिए ही यह माया रची l भगवान अपने भक्त की केवल बाहरी शत्रु से ही नहीं आंतरिक शत्रुओं से भी रक्षा करते हैं l कोई व्याकुल रोगी वैद्य से कुपथ्य मांगे तो वैद्य उसके जीवन की रक्षा के लिए उसे कुपथ्य कभी नहीं देगा l '