30 June 2019

WISDOM ---

पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य  ने  वाड्मय  ' हमारी  संस्कृति  --- इतिहास  के  कीर्ति  स्तम्भ ' में  लिखा  है ---- " हिन्दू  धर्म  आत्मज्ञान  का  सबसे  बड़ा  ज्ञाता  और  प्रचारक  माना  गया  है  ,  पर  उसके  अनुयायिओं  में  जितना  पार्थक्य , ऊँच - नीच  का  भाव ,  छुआछूत  और  दूसरों  को  नीच  तथा  घ्रणित  समझने  की  प्रवृति   पाई  जाती  है  ,  वैसी  शायद  संसार  की  किसी  दर्जे  की  अज्ञानी  जाति  में  भी  नहीं  पाई  जा  सकती  l  भारतवर्ष  के  संत पुरुष  जैसे नानक , कबीर , नामदेव , तुकाराम , दादूदयाल , रामकृष्ण परमहंस , स्वामी  दयानन्द, स्वामी  विवेकानन्द  आदि  ने   हिन्दू  समाज  के  इस जाति - पांति  रूपी  घुन  को  दूर करने की  चेष्टा  की  l  (  आधुनिक  वैज्ञानिक  युग  में भी  जाति - पांति  रूपी  घुन   को  समाप्त  करने  का   कोई  इलाज   नहीं  हो  पाया  l )
 आचार्य जी  आगे  लिखते  हैं  --- ' वर्तमान  समय  में   हिन्दू  समाज  की  निर्बलता  के  अनेक  कारणों में  से  एक  मुख्य   कारण  उसकी  रूढ़िग्रस्तता  भी  है  l  यहाँ  का  शूद्र  और  ग्रामीण  वर्ग  ही  नहीं  , नगरों  में  रहने  वाले  अधिकांश  पढ़े - लिखे  हिन्दू  भी  रूढ़ियों  को  धर्म  का  एक  अंग  मानने  लगे  हैं  l  यद्दपि  उनको  यह  बात  समझायी  जाती  है  कि  सभी  रूढ़ियाँ  समय - समय  पर   किसी  सामयिक  आवश्यकता वश  आरम्भ  की  जाती  हैं  ,  उनमे  समयानुसार  परिवर्तन  होते  रहते  हैं  l  किन्तु  यदि  उनसे  किसी  समय  के  प्रतिकूल  रूढ़ि  को  त्यागने  को  कहा  जाये  तो  वे  कभी  उसके  लिए  तैयार  नहीं  होते  और  तुरंत  प्रथा  व  परंपरा  की दुहाई  देने  लगते  हैं   l  उनकी  समझ  में  यह  बात  आती  ही  नहीं  कि  प्रथाएं  और  परम्पराएँ   व्यक्तियों  और  समाज  की  सुविधा  के  लिए  हैं  न  कि  उनको  बन्धनों  में  डालने  के  लिए  l  जब  परिस्थितियों  के  बदल  जाने  से  कोई  प्रथा  हानिकारक  सिद्ध  होने  लगती  है  तो  उसको  त्यागना  या  बदल  देना  ही समझदारों  का  कर्तव्य  है  l    यद्दपि  रूढ़ियाँ   न्यूनाधिक  मात्रा    सर्वत्र  हैं  किन्तु  भारत  में  विशेषत:  हिन्दू  समाज  में   उनका   जैसा  कुप्रभाव   देखने  में  आता  है  वैसा  अन्यत्र  नहीं  है  l  इन  लोगों  ने  सती-प्रथा    जैसी  क्रूरता  और  निर्दयतापूर्ण  रूढ़ि  को  भी  राजी - खुशी  से  नहीं  छोड़ा  l  उनके  ऊपर  जब  राज्य  का    अत्याधिक  दबाव  पड़ा   और  उसके  लिए  दंड  दिए  जाने  का  कानून  बना  दिया  गया  तब  कहीं  जाकर  उस   कुप्रथा    छोड़  सके  l   आज ऐसे  विद्वान्  और  कर्मवीर  व्यक्तियों  की  आवश्यकता   है   जो  जनता  को  समझा  सकने  के  साथ  स्वयं  उन   सुधारों  पर  अमल  करे  l