मनुष्य किसी भी व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हो पाता । इनसान समग्रता में जीना चाहता है और सभी आयामों में विकसित होना चाहता है । समग्रता का तात्पर्य है -- शारीरिक , मानसिक एवं भावनात्मक रूप से समृद्ध होना । वह शारीरिक रूप से तृप्त होना चाहता है , उसकी इंद्रियां अतृप्त रहना नहीं चाहतीं ।
शारीरिक रूप से तृप्ति होने के बाद वह मानसिक रूप से तुष्ट होना चाहता है ।
जब व्यक्ति शरीर एवं मन से तृप्त एवं तुष्ट हो जाता है तो वह भावनात्मक रूप से पुष्ट होना चाहता है । जब तक उसे भावनात्मक संबल नहीं मिलता है , तब तक वह सब कुछ पाकर भी कुछ खोये हुए को पाने के लिये भाग - दौड़ मचाता रहता है । यह भाग - दौड़ भावनात्मक एवं आत्मीयता के सतरंगी सौंदर्य को पाने के लिये होती है । यही है समग्रता और व्यक्ति इसी में जीना चाहता है ।
व्यक्ति ऊँची उड़ान भरना चाहता है , आसमान की सर्वोच्च बुलंदियों को छू लेना चाहता है । वह वहाँ भी रहना चाहता है और वहाँ से वापस आकर जमीन में भी जीना चाहता है । वह न तो केवल जमीन से ही जुड़े रहना चाहता है और न ही पंख लगाये केवल आसमान में उड़ते रहना चाहता है । वह दोनों जगत में समान रूप से जीना चाहता है ।
यही तो अध्यात्म है ।
उपनिषदों में इसी अप्रतिम और सर्वोच्च उड़ान की कल्पना की गई है ।
व्यक्ति ऐसी व्यवस्था चाहता है जहां वह समग्र रूप से विकास कर सके । शरीर से , मन से एवं भावनाओं से वह सभी रूपों में संतुष्टि प्राप्त कर सके ।
आज ऐसे ही समग्र समाज की आवश्यकता है , जहां व्यक्ति श्रेष्ठ एवं सभ्य हो और अपने विचारों एवं भावनाओं से ऊँची उड़ान भर सकता हो ।
ऐसी नवीन मानवता के लिये व्यक्ति को स्वयं को बदलना होगा , अपने मनोभावों को श्रेष्ठता के प्रति समर्पित करना होगा ।
जीवन में संवेदना , सेवा , सहायता एवं पवित्रता के बीज का अंकुरण करके ही समग्रता को प्राप्त किया जा सकता है ।
शारीरिक रूप से तृप्ति होने के बाद वह मानसिक रूप से तुष्ट होना चाहता है ।
जब व्यक्ति शरीर एवं मन से तृप्त एवं तुष्ट हो जाता है तो वह भावनात्मक रूप से पुष्ट होना चाहता है । जब तक उसे भावनात्मक संबल नहीं मिलता है , तब तक वह सब कुछ पाकर भी कुछ खोये हुए को पाने के लिये भाग - दौड़ मचाता रहता है । यह भाग - दौड़ भावनात्मक एवं आत्मीयता के सतरंगी सौंदर्य को पाने के लिये होती है । यही है समग्रता और व्यक्ति इसी में जीना चाहता है ।
व्यक्ति ऊँची उड़ान भरना चाहता है , आसमान की सर्वोच्च बुलंदियों को छू लेना चाहता है । वह वहाँ भी रहना चाहता है और वहाँ से वापस आकर जमीन में भी जीना चाहता है । वह न तो केवल जमीन से ही जुड़े रहना चाहता है और न ही पंख लगाये केवल आसमान में उड़ते रहना चाहता है । वह दोनों जगत में समान रूप से जीना चाहता है ।
यही तो अध्यात्म है ।
उपनिषदों में इसी अप्रतिम और सर्वोच्च उड़ान की कल्पना की गई है ।
व्यक्ति ऐसी व्यवस्था चाहता है जहां वह समग्र रूप से विकास कर सके । शरीर से , मन से एवं भावनाओं से वह सभी रूपों में संतुष्टि प्राप्त कर सके ।
आज ऐसे ही समग्र समाज की आवश्यकता है , जहां व्यक्ति श्रेष्ठ एवं सभ्य हो और अपने विचारों एवं भावनाओं से ऊँची उड़ान भर सकता हो ।
ऐसी नवीन मानवता के लिये व्यक्ति को स्वयं को बदलना होगा , अपने मनोभावों को श्रेष्ठता के प्रति समर्पित करना होगा ।
जीवन में संवेदना , सेवा , सहायता एवं पवित्रता के बीज का अंकुरण करके ही समग्रता को प्राप्त किया जा सकता है ।