'मनुष्य की अपनी इच्छाशक्ति एवं उसके कर्म ही जीवन - प्रवाह के नये-नये मोड़ों का कारण बनते हैं | '
कौशल नरेश प्रसेनजित को अपने महाबलवान हाथी 'बद्धरेक ' पर गर्व था | महायुद्धों में उसका पराक्रम देखते ही बनता था | लेकिन काल के प्रवाह ने उसे वृद्ध बना दिया था | एक दिन जब वह तालाब में नहाने के लिये उतरा तो पता नहीं कैसे वह तालाब की कीचड़ में फँस गया | उस हाथी ने अनेक प्रयास कर डाले, लेकिन उस कीचड़ से स्वयं को निकालने में समर्थ न हो सका |
महाराज के सेवकों ने भी बहुत प्रयास किया, लेकिन सब कुछ असफल हो गया
अपने परमप्रिय हाथी की ऐसी दुर्दशा देखकर सभी दुखी थे | तालाब पर भारी भीड़ जमा हो गई, स्वयं महाराज प्रसेनजित भी तालाब पर जा पहुँचे | वह हाथी जो कभी किसी समय बड़ी-से-बड़ी दलदल को एक ही आवेग में चीरता हुआ पार कर लेता था, आज तालाब के कीचड़ से नहीं उबर पा रहा था | ऐसे में महाराज को अपने पुराने महावत की याद आई जो हाथी ' बद्धरेक ' की देखभाल किया करता था | वह महावत अब सेवा से निवृत होकर भगवान तथागत के उपदेशों में डूबा रहता था | महाराज की खबर पाते ही वह बूढ़ा महावत हाजिर हो गया |
अपने प्यारे हाथी को कीचड़ में फँसा देखकर उसके मस्तिष्क में कुछ विद्दुत की भांति कौंध गया उसने महाराज से निवेदन किया कि यहाँ पर संग्राम भेरी बजाई जाये, आज यहाँ युद्ध के सभी वाद्द बजने चाहिये | उस महावत की सलाह पर तुरंत अमल किया गया |
तुरंत संग्राम भेरी बजने लगी, युद्ध के नगाड़ों की आवाज सुनकर अचानक ही वह बूढ़ा हाथी जवान हो गया, उसका सोया हुआ योद्धा जाग गया और वह कीचड़ से उठकर किनारे आ गया |
भगवान तथागत के बहुत से भिक्षु भी महावत के साथ तालाब पर पहुँच गये थे | उन्होंने सारी घटना जाकर भगवान को सुनाई | तब भगवान ने सभी उपस्थित भिक्षुओं से कहा -----
" अरे ! तुम सब उस हाथी से कुछ सीखो | उसने तो कीचड़ से अपना उद्धार कर लिया, तुम कब तक इस कीचड़ में फँसे रहोगे, तुम देखते नहीं मैं कब से संग्राम भेरी बजा रहा हूँ | " " भिक्षुओं ! जागो और जगाओ अपने संकल्प बल को | चुनौती लो उस हाथी से | अति दुर्बल बूढ़ा हाथी जो कर सका तो मनुष्य होकर क्या तुम कुछ न कर सकोगे | "
एक क्षण में क्रांति घट सकती है, बस ! केवल भीतर जो सोया है, जग जाये | फिर न कोई दुर्बलता, न कोई दीनता, अपनी शक्ति पर श्रद्धा चाहिये |