27 January 2022

WISDOM -----

   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ----- "  मनुष्य  जिन  बड़ी - बड़ी  बीमारियों   और  विक्षिप्तताओं   से  परिचित  है  ,  महत्वाकांक्षा   से  बड़ी  बीमारी  इनमें  से  कोई  नहीं   l   जिस  व्यक्ति  में  अति  की  महत्वाकांक्षा  है , शांति , संगीत  और  आनंद  उसके  भाग्य  में  नहीं  हो  सकते  l "     महर्षि   रमण   से  पश्चिमी  विचारक  पॉल   ब्रन्टन   ने  पूछा  था  ---- " इस  महत्वाकांक्षा  की  जड़  क्या  है  ? "   तब  महर्षि  ने  कहा  था   --- " हीनता  का भाव  ,  अभाव  का  बोध  l  "  हीनता  स्वयं  से  छुटकारा  पाने  की  कोशिश  में   महत्वाकांक्षा  बन  जाती    है   और  बहुमूल्य - से - बहुमूल्य  साज - सज्जा  के   बावजूद  वह  न  तो  मिटती   है   और  न  नष्ट  होती  है  l   आचार्य श्री  लिखते  हैं ---- "  महत्वाकांक्षी   मन  की  प्रत्येक  सफलता  आत्मघाती   है  ,  क्योंकि   वह  अग्नि  में  घृत  का  काम  करती  है   l   सफलता  तो  आ  जाती  है  ,  पर  हीनता  नहीं  मिटती ,  इसलिए  और  बड़ी  सफलताएं  जरुरी  लगने  लगती  हैं  l   यह  हीनता  का  निरंतर  बढ़ते  जाना  है   l    विश्व  का  ज्यादातर  इतिहास  ऐसे  ही  बीमार   लोगों  से  भरा  पड़ा  है  - तैमूर ,  सिकंदर ,  हिटलर ------- l  "  आचार्य श्री  लिखते  हैं ---- " थोड़े  बहुत  रूप  में  इस  बीमारी  के  कीटाणु  हम  में  भी  तो  हैं  l   प्राय:  सभी  इस  रोग  से  संक्रमित  हैं  ,  यही  कारण  है  कि   यह  महारोग    जल्दी   किसी  को  नजर  नहीं  आता   l   महत्वाकांक्षा  रुग्ण  चित   से  निकली  घृणा   है ,  ईर्ष्या  है   l   युद्ध  इसी  का  व्यापक  रूप  है   l  "    इस  महारोग  का  इलाज  अध्यात्म  में  है  ,  स्वस्थ  और  शांत  चित   विध्वंस  नहीं  करता  ,  सृजन  करता  है   l