' धर्म सदा से सदाचरण , सज्जनता न्यायशीलता , संयमशीलता करुणा व सेवा परायणता जैसे सद्गुणों के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है । मानव में ये तत्व समाविष्ट रहें , इसके लिये धर्म का अवलंबन जरुरी है । समाज का अस्तित्व तब ही खतरे में पड़ता है , जब व्यक्ति अधार्मिक व अनैतिक हो जाता है । '
महाराज विश्वजित विश्व के सर्वोच्च धर्म की खोज में थे । उन्हें एक ऐसे धर्म की खोज थी जो सब तरह के दोषों से मुक्त हो और सर्वश्रेष्ठ हो । अपने इस अन्वेषण में वह किशोर से वृद्ध हो चले , परंतु उनकी यह खोज पूरी न हो पाई । अब तो उन्हें अपनी मृत्यु भी करीब दिखने लगी , वह बहुत परेशान हो उठे ।
एक दिन एक साधु उनके द्वार पर भीख मांगने आया । राजा को बेहद चिंतित व उदास देखकर उसने कारण पूछा । राजा ने निराशाजनक स्वर में कहा --" बड़े -बड़े पंडित और ज्ञानी मेरी समस्या सुलझा नहीं सके । तुम जानकर क्या करोगे ? " वह भिक्षुक साधु बोला -" कपड़ों से भी क्या साधु -संतों की पहचान होती है । " अब विश्वजित ने उसे गौर से देखा , दीन -हीन वेश में भी उसका चेहरा तेजपूर्ण था । राजा ने कहा --" मैं सर्वोच्च धर्म की खोज कर अपने जीवन को धर्ममय बनाना चाहता था , लेकिन यह नहीं हो सका और अब अंत समय में मैं बेहद परेशान हूँ , दुखी हूँ । मैं अब तक समझ नहीं पाया कि कौन सा धर्म सर्वोच्च है । किसे स्वीकारा जाये । "
साधु बोला --" धर्म की खोज करने से जीवन धर्म नहीं बनता , जीवन के धर्म बनने से धर्म की खोज पूरी होती है । " साधु की बातें बड़ी प्रभावकारी थीं । वह कह रहा था ------
" महाराज ! जो पूर्ण वृत नहीं है , वह वृत ही नहीं है । वृत का होना ही उसकी पूर्णता है । धर्म का होना ही उसकी निर्दोष , निरपेक्ष सत्यता है । धर्म सिर्फ धर्म होता है , इसमें जोड़ने -घटाने जैसा कुछ भी नहीं है । " साधु ने कहा चलो राजधानी के बाहर नदी के पार , वहीँ मैं धर्म के तत्व को बताऊंगा । राजा उस साधु के साथ नदी -तट पर पहुंचे । नदी पार करने के लिये श्रेष्ठतम नावें मंगाई गईं , लेकिन वह साधु प्रत्येक नाव में कोई -न -कोई दोष बता देता । बहुत देर तक देखने व सहने के बाद राजा परेशान हो उठे , उन्होंने कहा --" महात्मन ! हमें तो सिर्फ छोटी सी नदी पार करनी है , छोड़ें इन नावों को , तैरकर ही इसे पार कर लें । विलंब क्यों किया जाये ? "
साधु को जैसे राजा की इसी बात की प्रतीक्षा थी । उसने जवाब में कहा --
" यही तो मैं कहना चाहता हूँ , महाराज । धर्म पंथों की नाव में क्यों अटके हैं ? सच तो यह है कि धर्म की कोई नाव नहीं है । नावों के नाम पर सब मल्लाहों का व्यापार है । एकमात्र मार्ग तो स्वयं ही तैरना है , सत्य स्वयं ही पाना पड़ता है । परमेश्वर की ओर स्वयं ही तैर चलना है ।
धर्म जीवन तभी सार्थक व पूर्ण है जब यह हर पल चेतना को जगाये , मनुष्यता और संवेदना को जगाये और चिंतन , चरित्र व व्यवहार को परिष्कृत करे । धर्म की क्रियाएं और धर्म के कर्म कांड इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये हैं । यदि इनके माध्यम से यह न किया जा सका तो इन सबका अस्तित्व अपनी सार्थकता सिद्ध न कर पायेगा । " साधु की बातों से राजा को तत्वबोध हुआ , जीवन की भटकन रुक गई ।