मनुष्य के शत्रु दो प्रकार के हैं --- एक वे शत्रु जो दिखाई देते हैं -- इसमें वे लोग सम्मिलित होते हैं जो अपने से द्वेष भाव रखते हैं , हानि पहुँचाने की कोशिश करते हैं l इसमें वे जीव जैसे सिंह , सांप , बिच्छू आदि भी हैं जो अवसर मिलने पर आक्रमणकारी हो जाते हैं l इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के रोग भी हमारे बैरी हैं जो धन व प्राणों पर संकट उपस्थित करते है l -- ये सब शत्रु या हमारे बैरी ऐसे हैं जिनको हम देखते हैं , पहचानते हैं और उनसे अपनी रक्षा के विभिन्न उपाय भी कर लेते हैं l
दूसरे प्रकार के शत्रु वे हैं जो हमें दिखाई नहीं देते , पकड़ में नहीं आते l ये हैं हमारे आंतरिक शत्रु , हमारे मनोविकार --- काम , क्रोध , लोभ , छल ,कपट , अहंकार , मद , मत्सर आदि अनेक दुर्गुण हैं , मनोविकार हैं जिन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो ये मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं l ये भीतरी शत्रु लकड़ी में लगे घुन की तरह मनुष्य के व्यक्तित्व को खोखला करते रहते हैं और इन्ही दुर्गुणों के कारण मनुष्य स्वयं अशांत रहता है , अपने आसपास के लोगों को परेशान करता है और समाज में अशांति फैलाता है l इन आसुरी प्रवृतियों को नियंत्रित कर के ही समाज में सुख - शांति से रहा जा सकता है l
दूसरे प्रकार के शत्रु वे हैं जो हमें दिखाई नहीं देते , पकड़ में नहीं आते l ये हैं हमारे आंतरिक शत्रु , हमारे मनोविकार --- काम , क्रोध , लोभ , छल ,कपट , अहंकार , मद , मत्सर आदि अनेक दुर्गुण हैं , मनोविकार हैं जिन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो ये मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं l ये भीतरी शत्रु लकड़ी में लगे घुन की तरह मनुष्य के व्यक्तित्व को खोखला करते रहते हैं और इन्ही दुर्गुणों के कारण मनुष्य स्वयं अशांत रहता है , अपने आसपास के लोगों को परेशान करता है और समाज में अशांति फैलाता है l इन आसुरी प्रवृतियों को नियंत्रित कर के ही समाज में सुख - शांति से रहा जा सकता है l