27 July 2019

WISDOM ---- कृतज्ञता पुण्य है

  हमारे  महाकाव्य  हमें  सिखाते  हैं  कि  धर्म  क्या  है  ?  और  अधर्म  क्या  है  ?   और  श्रेष्ठ  व्यक्ति  अपने  दिए  हुए  वचन  को  अवश्य  पूरा  करते  हैं  ----
 महाभारत  का  एक  प्रसंग  है  ----पांडव  वनवास  में  थे   l एक  यक्ष  ने  हस्तिनापुर  पर  आक्रमण  कर  के  छल  से  दुर्योधन  को  बंदी  बना  लिया  और  उसे  लेकर  विमान  से  यक्षपुरी   जा  रहा  था  l  विमान  उस  स्थान  से  निकला  जहाँ  पांचो  पांडव  द्रोपदी  के  साथ  विश्राम  कर  रहे  थे  l  विमान  में  यक्ष  के  साथ  युद्ध  कर  रहे  दुर्योधन  को  युधिष्ठिर  ने  पहचान  लिया  और  अर्जुन  को आज्ञा  दी  कि  यक्ष  से  युद्ध  कर  भाई दुर्योधन   को  छुड़ा  दो  l  अर्जुन  ने  कहा --- " महाराज  !  दुर्योधन  की  कुटिलता  के  कारण  ही  हम  जंगलों  में  भटक  रहे  हैं  l  शत्रु  को  बचाना  भला  कोई  धर्म  है  ? " 
युधिष्ठिर ने  गंभीरता  से  कहा --- " दुर्योधन  ने  हमें  संत्रस्त  करने  में  कोई  कसर  नहीं  छोड़ी  लेकिन  नीति  कहती  है   जब  बाहरी  आक्रमण  हो  तो  आंतरिक  द्वेष भूलकर   परस्पर  मदद  करनी  चाहिए  l  दुर्योधन  आखिर  अपना  भाई  है   और  भाई  की  रक्षा  करना  धर्म  है ,  अधर्म  नहीं  l  "  
  अर्जुन   ने  यक्ष  से  युद्ध  कर   दुर्योधन  को  छुड़ा  लिया  l   दुर्योधन  ने  विनीत  भाव  से  युधिष्ठिर  से  कहा  ---- " इस  उपकार  के  बदले  वे  क्या  चाहते  हैं   ? "  युधिष्ठिर  ने  कहा  -- अवसर  आने  पर  मांगूंगा  अभी  आप  हस्तिनापुर  लौट  जाएँ   l 
  समय  बीता  l  जब  महाभारत  का  युद्ध  शुरू  हुआ  तो  भीष्म  पितामह  सेनापति  बने   l  शुरू  के नौ  दिन  में  पांडव  सेना  की  भरी  क्षति  हुई  l  भीष्म  को  इच्छा  मृत्यु  का  वरदान  था  ,  पांडव बड़े  चिंतित  हुए  और  भीष्म  पितामह  की  मृत्यु  का  कारण   उन्ही  से  जानने  का  निश्चय  किया  l  भीष्म  की  प्रतिज्ञा  थी  कि  वे  यह  रहस्य  केवल  दुर्योधन  को  बताएँगे  l  अत:  पांडवों  ने   अर्जुन  को  दुर्योधन  के  पास  भेजा    जंगल  में  दिए  गए  वचन   के  अनुसार  राजमुकुट  मांग  लाने  को  कहा  l    अर्जुन  ने  दुर्योधन  के  पास  जा  कर  कहा ---  भाई  !  आपने  एक  वचन  दिया  था  उसे  पूरा  कीजिये  और  कुछ  समय  के  लिए  राजमुकुट  मुझे  दे  दीजिये   l  "  पास में  उपस्थित  अश्वत्थामा  ने   कहा  -- शत्रु  पर  कभी  विश्वास  नहीं  करना  चाहिए  l
तब  दुर्योधन  ने  कहा ---- " किये  हुए  उपकार  को  भूल  जाना  और  दिए  हुए  वचन  को  पूरा  न  करना  दोनों  ही    पाप  और  असभ्यता  है  l  इस  कृतध्नता  से  मैं  अपनी  आत्मा  को  कलंकित  करना  नहीं  चाहता   l  "  --- उसने  अपना  मुकुट  उतार  कर  अर्जुन  को  दे  दिया   l     परिणाम   जानते    हुए  भी   दुर्योधन  ने  मानवीयता  का  सम्मान  किया  और  शत्रु  के  उपकारों  को  भी  नहीं  भुला   l