हमारे महाकाव्य हमें सिखाते हैं कि धर्म क्या है ? और अधर्म क्या है ? और श्रेष्ठ व्यक्ति अपने दिए हुए वचन को अवश्य पूरा करते हैं ----
महाभारत का एक प्रसंग है ----पांडव वनवास में थे l एक यक्ष ने हस्तिनापुर पर आक्रमण कर के छल से दुर्योधन को बंदी बना लिया और उसे लेकर विमान से यक्षपुरी जा रहा था l विमान उस स्थान से निकला जहाँ पांचो पांडव द्रोपदी के साथ विश्राम कर रहे थे l विमान में यक्ष के साथ युद्ध कर रहे दुर्योधन को युधिष्ठिर ने पहचान लिया और अर्जुन को आज्ञा दी कि यक्ष से युद्ध कर भाई दुर्योधन को छुड़ा दो l अर्जुन ने कहा --- " महाराज ! दुर्योधन की कुटिलता के कारण ही हम जंगलों में भटक रहे हैं l शत्रु को बचाना भला कोई धर्म है ? "
युधिष्ठिर ने गंभीरता से कहा --- " दुर्योधन ने हमें संत्रस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन नीति कहती है जब बाहरी आक्रमण हो तो आंतरिक द्वेष भूलकर परस्पर मदद करनी चाहिए l दुर्योधन आखिर अपना भाई है और भाई की रक्षा करना धर्म है , अधर्म नहीं l "
अर्जुन ने यक्ष से युद्ध कर दुर्योधन को छुड़ा लिया l दुर्योधन ने विनीत भाव से युधिष्ठिर से कहा ---- " इस उपकार के बदले वे क्या चाहते हैं ? " युधिष्ठिर ने कहा -- अवसर आने पर मांगूंगा अभी आप हस्तिनापुर लौट जाएँ l
समय बीता l जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो भीष्म पितामह सेनापति बने l शुरू के नौ दिन में पांडव सेना की भरी क्षति हुई l भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था , पांडव बड़े चिंतित हुए और भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण उन्ही से जानने का निश्चय किया l भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे यह रहस्य केवल दुर्योधन को बताएँगे l अत: पांडवों ने अर्जुन को दुर्योधन के पास भेजा जंगल में दिए गए वचन के अनुसार राजमुकुट मांग लाने को कहा l अर्जुन ने दुर्योधन के पास जा कर कहा --- भाई ! आपने एक वचन दिया था उसे पूरा कीजिये और कुछ समय के लिए राजमुकुट मुझे दे दीजिये l " पास में उपस्थित अश्वत्थामा ने कहा -- शत्रु पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए l
तब दुर्योधन ने कहा ---- " किये हुए उपकार को भूल जाना और दिए हुए वचन को पूरा न करना दोनों ही पाप और असभ्यता है l इस कृतध्नता से मैं अपनी आत्मा को कलंकित करना नहीं चाहता l " --- उसने अपना मुकुट उतार कर अर्जुन को दे दिया l परिणाम जानते हुए भी दुर्योधन ने मानवीयता का सम्मान किया और शत्रु के उपकारों को भी नहीं भुला l
महाभारत का एक प्रसंग है ----पांडव वनवास में थे l एक यक्ष ने हस्तिनापुर पर आक्रमण कर के छल से दुर्योधन को बंदी बना लिया और उसे लेकर विमान से यक्षपुरी जा रहा था l विमान उस स्थान से निकला जहाँ पांचो पांडव द्रोपदी के साथ विश्राम कर रहे थे l विमान में यक्ष के साथ युद्ध कर रहे दुर्योधन को युधिष्ठिर ने पहचान लिया और अर्जुन को आज्ञा दी कि यक्ष से युद्ध कर भाई दुर्योधन को छुड़ा दो l अर्जुन ने कहा --- " महाराज ! दुर्योधन की कुटिलता के कारण ही हम जंगलों में भटक रहे हैं l शत्रु को बचाना भला कोई धर्म है ? "
युधिष्ठिर ने गंभीरता से कहा --- " दुर्योधन ने हमें संत्रस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन नीति कहती है जब बाहरी आक्रमण हो तो आंतरिक द्वेष भूलकर परस्पर मदद करनी चाहिए l दुर्योधन आखिर अपना भाई है और भाई की रक्षा करना धर्म है , अधर्म नहीं l "
अर्जुन ने यक्ष से युद्ध कर दुर्योधन को छुड़ा लिया l दुर्योधन ने विनीत भाव से युधिष्ठिर से कहा ---- " इस उपकार के बदले वे क्या चाहते हैं ? " युधिष्ठिर ने कहा -- अवसर आने पर मांगूंगा अभी आप हस्तिनापुर लौट जाएँ l
समय बीता l जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो भीष्म पितामह सेनापति बने l शुरू के नौ दिन में पांडव सेना की भरी क्षति हुई l भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था , पांडव बड़े चिंतित हुए और भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण उन्ही से जानने का निश्चय किया l भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे यह रहस्य केवल दुर्योधन को बताएँगे l अत: पांडवों ने अर्जुन को दुर्योधन के पास भेजा जंगल में दिए गए वचन के अनुसार राजमुकुट मांग लाने को कहा l अर्जुन ने दुर्योधन के पास जा कर कहा --- भाई ! आपने एक वचन दिया था उसे पूरा कीजिये और कुछ समय के लिए राजमुकुट मुझे दे दीजिये l " पास में उपस्थित अश्वत्थामा ने कहा -- शत्रु पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए l
तब दुर्योधन ने कहा ---- " किये हुए उपकार को भूल जाना और दिए हुए वचन को पूरा न करना दोनों ही पाप और असभ्यता है l इस कृतध्नता से मैं अपनी आत्मा को कलंकित करना नहीं चाहता l " --- उसने अपना मुकुट उतार कर अर्जुन को दे दिया l परिणाम जानते हुए भी दुर्योधन ने मानवीयता का सम्मान किया और शत्रु के उपकारों को भी नहीं भुला l