पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " एक विभूतिहीन व्यक्ति यदि समाज का बहुत बड़ा हित सम्पादित नहीं कर सकता है तो उससे समाज को बहुत बड़ी हानि होने की संभावना भी नहीं है l पर जो विभूतिवान हैं वह यदि स्वार्थी , संकीर्ण और पथ - भ्रमित हुआ तो समाज को अकल्पित हानि पहुंचा सकता है l इस मान्यता की पुष्टि आज के अधिकांश धनपति , कलाकार , वैज्ञानिक और साहित्यकार कर ही रहे हैं l " टालस्टाय ने लिखा है ---- " दुनिया की हर बुराई और बेइंसाफी की अधिकतम जिम्मेदारी से विद्वान् , साहित्यकार और कलाकार बच नहीं सकते l " महान इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने लिखा है ---- ' आधुनिक विज्ञानं के फलस्वरूप मनुष्य की आत्मा में आध्यात्मिक रिक्तता उत्पन्न हुई है , उसे आधुनिक मानव कैसे पूरी करेगा ? विज्ञानं ने मनुष्य को जड़ शक्ति और मानव शरीर पर नियंत्रण स्थापित करने की क्षमता प्रदान कर दी है लेकिन आत्मनियंत्रण के कार्य में वह असफल है l " आत्मनियंत्रण के अभाव में मनुष्य का मन बेलगाम घोड़े की तरह होता है l कामना , वासना और तृष्णा उस पर हावी हो जाते हैं l ऐसा व्यक्ति यदि सामान्य स्तर का है तो उसका अशांत और अनियंत्रित मन सीमित क्षेत्र में हो कोहराम मचाएगा लेकिन यदि पद बड़ा है , सामर्थ्य ज्यादा है तो ऐसे व्यक्ति का अशांत मन उतने ही बड़े क्षेत्र को अशांत कर देगा l इसलिए विज्ञानं के साथ अध्यात्म का समन्वय अनिवार्य है l महान वैज्ञानिक मैक्स प्लैंक को जब शोध कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिला , उस अवसर पर उन्होंने कहा था ---- " विज्ञानं यदि मानवता के अहित की दिशा में अपने कदम बढ़ाता है तो वह विज्ञानं ही नहीं है l विज्ञानं हमेशा लोकहितकारी बना रहे इसके लिए उसे आध्यात्मिक संवेदनों से स्पंदित होना चाहिए l "