' अहिंसात्मक असहयोग ' का रास्ता कितने आत्मसंयम और परमेश्वर पर भरोसा रखकर आगे बढ़ते चले जाने का होता है । मोंटगुमरी की ' बस बायकाट ' की घटना डॉ. मार्टिन लूथर किंग (1929 - 1968 ) के आन्दोलनकारी जीवन का प्रथम अध्याय थी ।
मोंटगुमरी नगर में रोजापार्क नाम की नीग्रो युवती बस में बैठी जा रही थी, एक स्थान पर कुछ गोरे यात्री बस में चढ़े तो ड्राइवर ने सीट पर बैठे नीग्रो लोगों से पीछे चले जाने को कहा । तीन व्यक्ति तो चले गये पर रोजापार्क नहीं हटी । अत: उसे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया , जहाँ उसे दस डालर जुर्माने की सजा दी गई । यह अपमानपूर्ण व्यवहार वर्षों से था लेकिन अब इन पददलित लोगों में स्वाभिमान की भावना बढ़ती जा रही थी । नीग्रो नेताओं ने जिनके अध्यक्ष थे -- डॉ. मार्टिन लूथर किंग --- ने यह निश्चय किया कि जब तक भेदभाव की नीति का अंत नहीं किया जायेगा तब तक कोई नीग्रो बस में नहीं चढ़ेगा ------ उस दिन मोंट गुमरी की सड़कों पर एक विचित्र द्रश्य दिखाई पड़ा --- हजारों नीग्रो खच्चरों अथवा घोड़ों से खींची जाने वाली गाड़ियों से चल रहे थे , हजारों निजी मोटरों से जा रहे थे और हजारों ही पैदल रास्ता तय कर रहे थे बस में एक भी व्यक्ति ने पैर भी नहीं रखा । वर्ष भर हड़ताल चली ।
गोरे अधिकारियों ने उनमे भेद पैदा करने की बहुत कोशिश की । एक वर्ष तक हानि उठाने के पश्चात् नीग्रों लोगों की मांगें स्वीकार कर ली गईं ।
अपने सजातीयों से उनका कहना था कि अपना न्याययुक्त स्थान पाने के लिए हमको किसी दूषित कर्म का अपराधी नहीं बनना चाहिए ।
मोंटगुमरी नगर में रोजापार्क नाम की नीग्रो युवती बस में बैठी जा रही थी, एक स्थान पर कुछ गोरे यात्री बस में चढ़े तो ड्राइवर ने सीट पर बैठे नीग्रो लोगों से पीछे चले जाने को कहा । तीन व्यक्ति तो चले गये पर रोजापार्क नहीं हटी । अत: उसे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया , जहाँ उसे दस डालर जुर्माने की सजा दी गई । यह अपमानपूर्ण व्यवहार वर्षों से था लेकिन अब इन पददलित लोगों में स्वाभिमान की भावना बढ़ती जा रही थी । नीग्रो नेताओं ने जिनके अध्यक्ष थे -- डॉ. मार्टिन लूथर किंग --- ने यह निश्चय किया कि जब तक भेदभाव की नीति का अंत नहीं किया जायेगा तब तक कोई नीग्रो बस में नहीं चढ़ेगा ------ उस दिन मोंट गुमरी की सड़कों पर एक विचित्र द्रश्य दिखाई पड़ा --- हजारों नीग्रो खच्चरों अथवा घोड़ों से खींची जाने वाली गाड़ियों से चल रहे थे , हजारों निजी मोटरों से जा रहे थे और हजारों ही पैदल रास्ता तय कर रहे थे बस में एक भी व्यक्ति ने पैर भी नहीं रखा । वर्ष भर हड़ताल चली ।
गोरे अधिकारियों ने उनमे भेद पैदा करने की बहुत कोशिश की । एक वर्ष तक हानि उठाने के पश्चात् नीग्रों लोगों की मांगें स्वीकार कर ली गईं ।
अपने सजातीयों से उनका कहना था कि अपना न्याययुक्त स्थान पाने के लिए हमको किसी दूषित कर्म का अपराधी नहीं बनना चाहिए ।