सत्संग से कैसे रूपांतरण होता है , इस सन्दर्भ में कथा है ---- जब महर्षि वाल्मीकि दस्यु रत्नाकर हुआ करते थे l इस अपकर्म को करते हुए जीवन के कितने ही वर्ष बीत गए थे l ईश्वर की कृपा से एक दिन उन्हें देवर्षि नारद मिले l नारद जी ने उनसे पूछा -- ' तुम यह सब क्यों करते हो , क्या तुम्हारे परिवार के स्वजन तुम्हारे इस कर्मफल के भी भागीदार होंगे ? " उन्होंने कहा --- ' अवश्य ' l तब देवर्षि ने कहा --- " ऐसे नहीं , तुम उन लोगों से पूछकर मुझे अपना उत्तर दो l " तब वे देवर्षि को एक पेड़ से बांधकर उत्तर पूछने अपने परिवार के पास गए l सभी लोगों ने एक स्वर से मना करते हुए कहा --- " अपने कर्मफल का भोग तुम्हे स्वयं भोगना पड़ेगा l तुम्हारे कर्म को हम क्यों भोगेंगे l " यह सुनकर उन्हें बहुत निराशा हुई और वे भागकर देवर्षि की शरण में आये l तब देवर्षि ने उन्हें ' राम नाम जपने को कहा l दस्यु कर्म के कारण ' राम ' जपना बहुत कठिन लगा , तब देवर्षि ने कहा --- ' कोई बात नहीं तुम ' मरा - मरा ' जपो l भगवान का यह उल्टा नाम उनका अमोघ मन्त्र बन गया , साधना शुरू हुई l ' मरा - मरा ' कब ' राम - राम ' में बदल गया पता ही नहीं चला l अनेकों बाधाएं आईं , देवर्षि धीरज बंधाते रहे कि तुम प्रभु को पुकारते रहो सब बाधाएं दूर होंगी l समय बीतता गया , अंधकार दूर हुआ , रूपांतरण हुआ और संसार को महर्षि वाल्मीकि मिले l उनके जीवन ने सिखाया कि महापुरुषों का पल भर का सत्संग भी दुर्लभ और अमोघ होता है l